रोज की तरह आज भी एक आम दिन था. मूम्बई की लोकल ट्रेने स्टेशनों पर दौड़ने लगी थी. उसने कपड़े सुखाते हुए छत से एक लोकल को गुजरते देखा. खड़ खड़ की आवाज बंद हुई तो अंदर से सास की आवाज आई, “बहू, कुछ हुआ है क्या?”
“कुछ नहीं माँजी, बाहर सब ठीक है. लेकिन देश एक बार फिर से असहिंष्णु हो गया बताते है” उसने कपड़े तार पर डालते हुए कहा.
“तभी मैं कहूँ, अचार बिगड़ कैसे गया, धूप तो बराबर ही दी थी.”
सास के व्यंग्य पर मुस्कुराती वह खाली बाल्टी उठा कर सीढ़ियों की ओर बढ़ी.
“कोई नहीं, बहू, तुम्हारे पापाजी से कह कर दूसरे निम्बू मँगवा लेती हूँ, तब तक चुनाव निपट जाएंगे और देश सहिंष्णु भी हो जाएगा”
“लेकिन माँजी, तब तक किसी की फिल्म रिलीज होने का टाइम हो गया तो?” बहू ने भी चुटकी ली तो सास-बहू की हँसी से घर खिल उठा.