एक तालाब की कहानी- मैनहन गाँव का कबुलहा ताल
कहानियाँ तो हमेशा हमारा अतीत कहती हैं, वर्तमान दिखलाती है, और भविष्य का संकेत भी देती है, कहांनियां सिर्फ इतिहास नही कहती! इस तालाब को देख रहें है न, कभी यह वाकई प्राकृतिक तालाब था, कबुलहा कहते हैं इसे शायद इंडो-अफगानी रिश्तों से उपजा है ये शब्द, कोइ भी बेहतरीन, लंबी चौड़ी वस्तु को काबुल की बाज़ारों से जोड़ दिया जाता था, फिर वह चाहे चने हों या फिर काबुली घोड़ा। दरअसल भारत पर आक्रमण करने वाले गोर चिट्टे लंबे, खूबसूरत नाक नक्श वाले वे लोग सुंदर व् फुर्तीले बेहतरीन नस्ल के घोड़ों से उत्तर भारत की जमीन रौंद रहे थे, विजेता, विजातीय और विदेशी सदैव आकर्षण, और कौतुहल का कारण होते हैं! सो हिन्दुस्तानियों के लिए भी हर बेहतर वस्तु काबुली हो गयी, बाद में इंग्लैण्ड की सत्ता के कारण भी हमारे यहाँ उत्कृष्ट बहुत चीजों को विलायती की संज्ञा दी, और अब कुछ कुछ चीजें चाइनीज हो रही हैं। खैर बात कबुलहा ताल की हो रही है, जिसकी विशालता और सुंदरता ने उसे काबुली बना दिया।
इस तालाब की विशालता से इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है की मैनहन गाँव से ओदारा गाँव तक इसकी सीमाएं हैं, तालाब के मध्य में एक आइलैंड था, जो तमाम प्रजातियों की लैंडिंग का सुरम्य स्थल था, और तालाब आगे चलकर छिछला होकर झाबर की शक्ल ले लेता था जिसमें विभिन्न किस्म की घासें उगती थी और बारिश के बाद यह दोनों गाँवों के पशुओं का चारागाह हुआ करता था साथ ही गाँव के बच्चों का प्ले-ग्राउंड तथा बुजुर्गों की विमर्श स्थली, और निठल्लों की निंदारस व् ठिठोली की महान कर्मस्थली, पर अब न वह आइलैंड बचा, न ही झाबर, क्योंकि इन जैवविवधिता वाले स्थलों को पंचायती राज के अनियोजित व् भ्रष्ट विकास ने निगल लिया, नरेगा ने तालाब में की अनियोजित खुदाई से उसके प्राकृतिक स्वरूप को बदल डाला, झाबर पट्टे और कृषि भूमि के तौर पर अतिक्रमित कर लिया गया, अब न इस तालाब में पक्षी चहचहातें है, न ही तमाम तरह की मछलियों की उछल कूद है, न ही बेहया जलकुम्भी के रंग बिरंगे पुष्प खिलते हैं, और न ही मवेशी व् उनके रखवालों का मेला लगता है, श्मशान के सन्नाटें में तब्दील हो गया यह पारिस्थितिकी तंत्र जहाँ हज़ारों किस्म की वनस्पति व् जंतु जगत की प्रजातियां निवास करती थी, गौरतलब बात यह है की खुदाई के उपरान्त इसके चारो तरफ मिट्टी के ढेर लगा दिए गए जिससे जल संचयन की व्यवस्था ही ख़त्म हो गयी।
प्रकृति कैसे ढालती है चीजों को अपने अनुरूप यदि मानव उससे छेड़छाड़ न करे, कभी मैनहन गाँव के इस तालाब के उत्तर में बहने वाली पिरई नदी इस तालाब से जुड़ जाती थी बरसात के महीनों में, यदि नदी में उफान आता तो उसका जल इस तालाब में आकर संचित हो जाता, और जब तालाब में पानी अधिक हो जाता तो नदी की जल धारा में मिलकर बाह जाता और तालाब का जलस्तर उसकी सरहदों में सीमित हो जाता, इस तरह बाढ़ की समस्या भी नही उत्पन्न होती। लेकिन अब नदी सिकुड़ गयी, मैदान खेत में बदल गए, खेतों की चौ हद्दियों पर ऊँची ऊँची मेढे बाँध दी गयी और रही सही कसर समतल चकरोडों की पटाई कर उन्हें इतना ऊंची सड़क में तब्दील कर दिया गया की पानी का मुसलसल बहना ही बंद हो गया, अब बारिश का पानी इन खेतों की मेढ़ों और चकरोडों की चारदीवारी में ही कैद हो जाता नतीजतन जल भराव की समस्या के साथ साथ पानी अपने उचित संचयन स्थल यानी तालाबों तक नही आ पाता और न ही स्थानीय नदियों को पोषित कर पाता ताकि वह सदानीरा हो सके।
कबुलहा ताल की के करीब मुखिया बाबा की आम की बाग़, फिर ठेकेदार बाबा की बाग़ और उसके बाद मुनीम बाबा की बाग़, इस बेहतरीन प्राकृतिक स्थल के कारण ही गाँव के किसी भी कुँए और नल का जल स्तर नही घटता था, और 25 फुट पर ही धरती से रसधार फूट पड़ती, गाँव में कहावत है ऐसे जलस्तर वाले कुँए के ताजे मीठे पानी को डाल से तोड़ा हुआ पानी कहना, परन्तु कबुलहा की दुर्दशा ने अब डाल के टूटे पानी अर्थात ताज़ा मीठे पानी वाले कथन को खारिज कर दिया, अब जलस्तर भी 100 फुट पर हो गया और पानी की मिठास भी जाती रही, विकास की आंधी ने संस्कार तोड़ दिए तो अब इस गाँव का सारा गंदा पानी इस तालाब में गिरता है, और नाबदान विलुप्त हो गए, या यूँ कह ले की विकास की नालियों ने नाबदानों को निगल लिया, पेस्टिसाइड और रासायनिक खादों के प्रयोग से खेतों का जहरीला पानी भी अब कबुलहा में ही गिरता है, सो जलीय जलीय जैव विविधिता की दुर्गति भी हो गयी, तालाब भी व्यापारियों के हवाले हो गए, सहकारिता के नाम पर किसी एक ठेकेदार से रकम लेकर उसे उसके हवाले कर दिया जाता मछली व् सिंघाड़े पालन के लिए, और गाँव के वे समुदाय वंचित रह जाते उस प्राकृतिक लाभ से जुस्मे स्वतंत्रता से वह मछली आदि वस्तुओं को भोजन के तौर पर प्रयोग करते आएं, वे सारे समुदाय जो मिट्टी, मछली कमल गट्टा, नारी, और अन्य जलीय खाद्य वस्तुओं के साथ साथ औषधीय वनस्पतियों पर सदियों से इन तालाबों पर निर्भर थे अब विकास के इस तन्त्र में महरूम है उन सब चीजों से, जाहिर है बाज़ार की प्रासंगिकता बढ़ती जा रही है और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता ख़त्म। बस यही हालात आने वाले समय में घातक होंगे, जब बाज़ार हमारे घरों खेतो और खलिहानों तालाबों पर तांडव कर रहा होगा और हम अपना सब कुछ उसके हवाले कर चुके होंगे, और तब मानवता किसी कोने में बैठकर बेसाख़्ता आँसू बहायेगी और राजनीति तथा सरकारें बेबश और लाचार होंगी।
अभी भी वक्त है हो सके तो कुँए तालाब बागें बीज और अपनी जमीन जे साथ साथ अपनी इस संस्कृति को भी बचा ले जिसमें नदियां तालाब खेत वृक्ष अन्न जल अग्नि पृथ्वी और आकाश के अतिरिक्त सम्पूर्ण जगत के चराचर की वन्दना होती आई है।
तालाब अब भी खरे हैं, कबुलहा तो सिर्फ एक बानगी है !
कृष्ण कुमार मिश्र
krishna.manhan@gmail.com
(लेखक वन्य जीव विशेषज्ञ, स्वतन्त्र पत्रकार व् अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका दुधवा लाइव के संस्थापक संपादक हैं।)