Monday, November 18, 2024
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Homeहिन्दी जगतआवश्यक है भारतीय भाषाओं का संरक्षण ।

आवश्यक है भारतीय भाषाओं का संरक्षण ।

भाषा जीव के मानव बनने की दिशा में प्रथम कदम कहा जा सकता है। आरंभ में संकेतों की भाषा रही होगी जो कालांतर में शब्द संवाद में परिवर्तित हुई। हर परिस्थिति परिवेश एक दूसरे से अपरिचित और भिन्न था इसलिए हर मानव समूह ने अपने ढ़ंग से कुछ शब्द संकेत बनाये। एक दूसरे से कुछ मील से हजारो मील तक की दूरी में रह रहे समूहों द्वारा विकसित किये गये इन संकेतों और शब्दों में एकरूपता का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। अतः हर कबीले की अपनी भाषा बन गई जो आज भी कायम है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि समय के साथ लगभग सभी भाषाओं बोलियों में परिवर्तन, परिष्कार भी जारी रहा क्योंकि हर द्वीप, महाद्वीप में केवल प्रकृति आपदाओं और परिवर्तनों से ही नहीं बल्कि मानव निर्मित परिस्थितियो और आविष्कारों को व्यक्त करने के लिए भी नये शब्द अथवा संकेत चाहिए थे। यह प्रक्रिया सतत जारी है लेकिन आज हमारा परस्पर सम्पर्क और संवाद बढ़ा है इसलिए एक दूसरे की भाषा का प्रभाव होना स्वाभाविक है। हर क्षेत्र, समुदाय का अपनी बोली-भाषा से अनुराग होना शुभ संकेत है। यह भाव उस क्षेत्र की विशिष्ट संस्कृति के जीवान्त रहने की गारंटी है।

भाषा को संस्कृति की संवेदन तंत्रिका भी कहा जा सकता है। क्योंकि उससे जुड़ा हर शब्द एक लंबा इतिहास अपने साथ लेकर चलता है। विभिन्न अवसरों पर प्रयुक्त होने वाले शब्द, संवाद, गीत उस भाषा और उसे मानने वाले समुदाय समाज की संस्कृति के परिचायक है। यदि सांस्कृतिक भिन्नता होगी तो भाषा और उसके शब्दों और उसे अभिव्यक्त करने के ढ़ंग में भिन्नता होना अवश्यंभावी है। इसलिए हर बोली अथवा भाषा महत्वपूर्ण है क्योंकि वह एक विशिष्ट संस्कृति की वाहिका है। उसका संरक्षण होना ही चाहिए।

यह हमारा सौभाग्य है कि भारत अपने आप में एक अनूठा देश है जहां लगभग हर मौसम है। बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियां है तो तपते रेगिस्तान भी है। तीन तरफ महासागर है। पठार है। नदियों का जाल है। घने जंगल है। विशाल मैदान है। अर्थात् विभिन्न परिस्थितियां है। हर दो कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है तो बोली भाषा के उच्चारण में भी परिवर्तन देखने को मिलता है। इसीलिए यहां 1600 से अधिक बोलियां और भाषाएं है। आधुनिकता के दौर में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए सम्पर्क, संवाद बढ़ा है अतः एक दूसरे की भाषा को जानने सीखने की आवश्यकता भी बढ़ी है। यह भी सत्य है कि प्रत्येक भारतीय के लिए यहां की सभी 1600 बोलियों भाषाओं को सीखना संभव नहीं है इसलिए एक सम्पर्क भाषा की आवश्यकता महसूस हुई। यहां भारत के ही एक छोटे से प्रांत अरुणाचल की चर्चा समीचीन होगी जहां अनेक कबीले हैं जिनकी बोली -भाषा एक दूसरे से भिन्न हैं लेकिन वहां हिन्दी उनके बीच संवाद वाहिका है।

अनेक अन्य प्रांतों के कबीलों में भी हिंदी सम्पर्क भाषा है। निर्विवाद सत्य यह है कि केवल कुछ कबीलों की ही नहीं बल्कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से कामरूप तक देश की सम्पर्क भाषा हिंदी ही है। जहां तक हिंदी की बात है हिंदी स्वयं में अनेक बोलियों का सम्मुचय है। अवधी, ब्रज, भोजपुरी, अंगिका, बजिका, मैथिली, बुंदेलखंडी, मालवी, राजस्थानी (जिसमें मेवाड़ी, डिंगल सहित हर आंचल की अलग बोली भी शामिल है), हरियाणवी, कौरवी जैसी बोलियां खड़ी बोली के रूप में हिंदी कहलाती है अतः इन बोलियों के प्रभाव क्षेत्र में हिंदी कोई बाहरी अथवा अजनबी भाषा नहीं है। सभी को हिंदी अपनी लगती है तो हिंदी भी इन बोलियां के साहित्य तथा लोक गीतों एवं कहावतों के माध्यम से समृद्ध होती है। स्वतंत्रता संग्रांम में हिंदी ने देशभर में जो जन जागरण किया उसी का परिणाम है विदेशी शासन को अपने तम्बू समेटने पड़ें। भिन्न लिपि वाली उर्दूू भी हिंदी ही कही जा सकती है लेकिन अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की अपनी नीति के अंतर्गत एक समुदाय को अलग कौम और उर्दू को उनकी भाषा के रूप में प्रचार कर उर्दू को हिंदी परिवार से अलग करने की असफल कोशिश की। आज भी देवनागरी में लिखी उर्दू किसी भी हिंदी भाषी के लिए अपनी सरीखी है।

साहित्य अकादमी ने भारतीय भाषाओं में विभेद पैदा करने का काम किया। ऐसा जानबूझकर किया था अथवा हो गया, कहा नहीं जा सकता लेकिन हुआ। डोगरी, बोड़ो, मैथिली जैसी सीमित क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली/भाषाएं हमारे संविधान की आठवीं अनुसूची में होने के कारण साहित्य अकादमी में अलग स्थान रखती है। साहित्य अकादमी ने राजस्थानी को अलग भाषा की मान्यता देते हुए उसके लिए अलग पुरस्कार देने की परम्परा आरम्भ की। छोटी बोलियों को जितने लोग बोलने वाले हैं उससे अधिक तो हिंदी के केवल साहित्यकार ही हैं। इससे अन्य बोलियों में भी ऐसी मांग उठना स्वाभाविक है। कुछ लाख लोगों की भाषा और करोडों़ लोगों की भाषा के साहित्य के साथ एक समान व्यवहार से उत्पन्न हुई इस मांग को दबाना आसान नहीं है। सम्मान और पुरस्कारों की चाह मानवीय स्वभाव है। इसे अन्यथा नहीं लेना चाहिए। अतः साहित्य अकादमी पुरस्कारों का लोकतंत्रीकरण अर्थात् जनसंख्या के अनुपात से पुरस्कार होने चाहिए। लेकिन आज तक इस तरफ ध्यान देना तो दूर मेरे जैसे व्यक्ति की इस मांग पर विचार तक नहीं किया। ऐसे में यदि कुछ लोग अपनी- अपनी बोली को हिंदी से अलग घोषित करने की मांग तक जा पहुंचे हैं तो उसे सही संदर्भ में समझना जरूरी है।

आज राजस्थानी, भोजपुरी सहित कुछ बोलियों को संविधान की आठवीं सूची में शामिल करने की मांग को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। चुनावी दौर में ऐसा करने के वादे भी थे इसलिए अब इसे लम्बे समय तक टाला नहीं जा सकता। क्या यह उचित नहीं होगा कि केवल मांग करने वाली बोलियों को ही नहीं शेष बोलियों को भी विशिष्ट सूची में शामिल कर उनका संरक्षण किया जाए। लेकिन हिंदी को इस आठवीं सूची से बाहर कर देना चाहिए क्योंकि उसे संविधान में राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। जरूरत है हिंदी को यह दर्जा केवल कागजों में नहीं बल्कि व्यवहार में दिया जाये। हिन्दी भारतीय भाषाओं से शक्ति प्राप्त करती है तो भारतीय भाषाएं भी हिंदी से सबल प्राप्त करती है। वेे एक दूसरे के सहयोगी हैं, विरोधी नहीं। अतः इस दृष्टि में हिंदी सभी भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व करती है। यदि हिंदी पर संकट आता है तो भारतीय भाषाएं भी सुरक्षित नहीं रहेगी। इसलिए अपनी- अपनी बोली को आठवीं सूची में शामिल करने की मांग वालों को सद्भावना का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

भाषा और संस्कृति की तरह भाषा एवं शिक्षा का गर्भनाल का संबंध है। एक बच्चा सर्वप्रथम अपने परिवार और परिवेश की भाषा सीखता है। अभी उसका मस्तिष्क इतना विकसित नहीं होता कि वह एक साथ अनेक भाषायें सीख सके। इसीलिए दुनियाभर के चिंतक, शिक्षा-शास्त्री और अनुभवी शिक्षकों का मत है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। वह उस भाषा में सिखाये हुए को बेहतर ढ़ंग से सीखता है। जर्मनी, रूस, जापान सहित अनेक विकसित देशों में शिक्षा का माध्यम उनकी अपनी भाषा है। शिक्षाविदों और मनोवैज्ञानिकों का मत है कि विपरीत भाषा बालक की प्रतिभा को कुंठित करती है।

दुर्भाग्य से हमारे देश में मातृभाषा अथवा मातृभूमि की भाषा की बजाय अंग्रेजी माध्यम का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। अनेक अध्ययनों ने प्रमाणित किया है कि दस कक्षा पास ऐसे अधिकांश बालक अपनी मातृभाषा पढ़ अथवा लिख नहीं पाते हैं। गिनती नहीं समझते है। आधा तीतर, आधा बटेर बने इन बालकों की इस दशा का मुख्य जिम्मेवार शिक्षा का माध्यम है। दुखद आश्चर्य तब होता है जब सारा जीवन भारतीय भाषाओं का पक्ष लेने वाले लोग भी सत्ता में आकर विपरीत आचरण करने लगते है। हाल ही में गोवा में सत्ता में आने पर प्राथमिक शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम को हतोत्साहित करने का दावा करने वालों ने इससे ठीक उलट घोषणा की तो स्वाभिमानी लोगो ंने डटकर विरोध किया। भारतीय भाषाओं की कीमत पर अंग्रेजी थोपने के प्रयासों के विरोध में अपनो तक से भिड़ने वाले गोवा के कार्यकर्ताओं के साहस को नमन करते हुए हम सभी को हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के सम्मान की रक्षा के लिए संकल्पित होना चाहिए।

डॉ. विनोद बब्बर, संपादक– राष्ट्र किंकर
संपर्क- 09868211911 rashtrakinkar@gmai.com
ए-2/9ए, हस्तसाल रोड, उत्तम नगर नई दिल्ली-110059

वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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