देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कद विश्व समुदाय के सामनें लगातार इतना बढ़ रहा है, कि भारत के पीएम 30 साल बाद स्वीडन की यात्रा पर गए। पहली बार स्वीडन के प्रधानमंत्री ने अपनी परंपरा तोड़कर नरेंद्र मोदी की अगुवाई के लिए एयरपोर्ट पर स्वागत किया। उनके द्वारा पीएम मोदी को रिसीव करना हमारे लिए गर्व की बात है, कि किसी देश का प्रधानमंत्री भारत के प्रधानमंत्री के अगुवाई के लिए अपनी परंपरा को तोड़ने पर भी विवश हो जाए। बात यहीं पर समाप्त नही हो जाती है। बल्कि कॉमनवेल्थ समिट में आने वाले 52 देशों के प्रमुखों में से मोदी ही अकेले ऐसे प्रधानमंत्री रहे, जिन्हें वहां लिमोजीन कार से सफर करने की इजाजत दी, जबकि अन्य देशों के नेताओं ने समिट के दौरान बस से सफर किया।
अभी हाल में भी कुछ ऐसा ही दृश्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन का राष्ट्रपति की मुलाकात में देखने को मिला। राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तो दो बार प्रोटोकाल तोड़कर प्रधानमंत्री मोदी की अगवानी की, और बीजिंग से बाहर दूसरे शहर में आकर स्वागत किया।
दो दिन का दौरा दोनों देशों के रिश्तों के इतिहास में एक बड़ा मामला था, खासकर इसलिए कि पिछलें साल करीब 70 दिन चलें डोकलाम गतिरोध के कारण महीनों तक लगातार दोनों देशों की सेनाओं में तनातनी का माहौल बना रहा। डोकलाम गतिरोध दूर हो जाने के बाद चीन और भारत ने आपस में रिश्ते सामान्य बनाने की एक अच्छी पहल की। जिसके आगे भी सकारात्मक रिश्तें होने की संभावना नजर आ रही है, क्योंकि इस समय भारत और चीन उभरती हुई शक्ति है। इन दोनों नेताओं की आपसी मुलाकात से पूरे विश्व भर में एक सकारात्मक संदेश गया है।
दोनों नेताओं के बीच बातचीत का जो समय तय हुआ था, उससे कहीं ज्यादा यह बातचीत चली। राष्ट्रपति ने मोदी को संग्रहालय दिखाया और संग्रहालय के अवलोकन के समय भी समय-सीमा भूल गए। इन दोनों नेताओं ने साथ-साथ नाव की सैर करते हुए किसी भी प्रकार की अवसरोचित टिप्पणियों तक नही की, और व्यवहार से भी सौजन्य और संबंध सुधार का संदेश दिया गया। यह शिखर वार्ता अनौपचारिक रही और किसी की ओर से किसी भी प्रकार का कोई साझा बयान जारी नही हुआ। दरअसल, यह बस आपस में आई खटास दूर करने की कोशिश थी। प्रधानमंत्री मोदी ने अगले साल भारत में इसी तरह की शिखर वार्ता आयोजित करने की पेशकश की और उसके लिए शी को भारत आने का निमंत्रण भी दिया। चीन के राष्ट्रपति ने धीमी मुस्कुराहट से कहीं न कहीं इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया है।
बहरहाल, मोदी के इस दौरे की तुलना 1988 में हुए राजीव गांधी के चीन दौरे के की जा रही है, लेकिन जो प्रोटोकॉल मोदी के लिए शी ने तोड़े है, राजीव गांधी के लिए देंग श्याओं पेंग ने ऐसा कुछ नही किया था। 1962 में भारत-चीन युद्ध के छब्बीस साल बाद बेजिंग गए राजीव गांधी की देंग श्याओं पेंग से मुलाकात काफी अहम साबित हुई थी, जो कि दोनों देशों के बीच हुए कारोबारी समझौतों में भी देखी गई थी। इस शिखर वार्ता से लगा कि इन दोनों नेताओं के बीच डोकलाम जैसे प्रकरण की पुनरावृति न हो इस पर सहमति बन गई है। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनात दोनों तरफ के सैनिकों के बीच आपसी भरोसा बढ़ाने पर भी सहमति बनी है। इस बैठक के दौरान भविष्य में रिश्तें और भी अच्छे हो इसलिए इसमें न तो अरुणाचल का जिक्र आया, न किसी प्रकार के व्यापार की बात, न आर्थिक गलियारे और न ही एनएसजी के मुद्दे पर किसी प्रकार की कोई बातचीत हुई। इससे स्पष्ट है कि इस समय चीन भी ये समझनें की कोशिश में है कि मोदी का कद पूरे विश्व में जिस प्रकार बढ़ रहा है, उस बढ़ते कद को देखते हुए शी भी अपने प्रोटोकॉल भारत के प्रधानमंत्री के तोड़तें हुए नजर आए।
(ललित कौशिक विभिन्न राजनीतिक व सामाजिक विषयों पर लिखते हैं)