अशोक गहलोत अचानक अत्यंत उत्साह में हैं, महारानी वसुंधरा राजे मात न खाने की मंशा से तपस्या कर आई हैं, हनुमान बेनीवाल गेंदे के फूलों से स्वागत करा रहे हैं, तो सचिन पायलट शांत हैं। इन सबके बीच राजस्थान की सियासत सवालों से उबल रही हैं। कांग्रेस में सवाल यह कि हिचकोले खाते हालातों में सरकार कैसे रिपीट हो, बीजेपी में सवाल यह कि आखिर कौन कहां बैठेगा और छोटी पार्टियों में यह कि अगले विधानसभा चुनाव में उनका क्या होगा?
राजस्थान में विधानसभा चुनाव सर पर है। सियासी बिसात बिछ रही हैं। कार्यकर्ता कमर कस रहे हैं, नेता हुंकार भर रहे हैं, और रणनीतिकार सियासत के सूत्र पकड़ने में व्यस्त हैं। आमतौर पर चुनाव से छह महीने पहले किसी भी प्रदेश में राजनीति और राजनेताओं का जो भी हाल होता है, राजस्थान में वही हाल कुछ ज्यादा ही बेहाल है। आप इस बेहाली बदहाल भी कह सकते हैं, क्योंकि सच्चाई भी यही हैं। कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही दलों में अंदरूनी खींचतान, गुटबाजी, परस्पर मात देने की कोशिश और मनमुटाव का माहौल मचल रहा है। कांग्रेस में सवाल यह है कि पार्टी संगठन के खस्ताहाल होने के बावजूद आखिर अशोक गहलोत की इतनी मेहनत क्या रंग लाएगी। तो, बीजेपी में सवाल यह कि केंद्रीय नेता अपने दर्जन भर प्रादेशिक नेताओं की खींचतान खत्म करके पार्टी को सत्ता में लाने का पथ कैसे संवारेंगे? सवाल यह भी है कि इन दोनों बड़े दलों के दंग करने वाले दलदल में छोटी पार्टियां कैसे अपनी जमीन तलाशेंगी, और सवाल यह भी है कि रेतीले राजस्थान की राजनीति में कौन इस चुनाव में शिखर पर होगा, किसकी सदा के लिए समाप्ति हो जाएगी और किसको जीवनदान मिल जाएगा। इस सबके बीच सवालों के घेरे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राजस्थान की जनता ‘एक बार तू और एक बार मैं’ वाला फार्मूला तोड़ने का मन बना चुकी है या परंपरा बरकरार रहेगी।
कांग्रेस में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, अपने ‘मित्र’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तर्ज पर धुंआधार और लगातार कोशिशों के तहत जनहितैषी योजनाओं के जरिए सत्ता में आने को सज्ज हैं। लेकिन कांग्रेस के बागी नेता सचिन पायलट उनकी कोशिशों की सफलता को सवालों के घेरे में खड़ा कर रहे हैं। पायलट व उनके समर्थक नेता और मंत्री अपनी ही सरकार को भ्रष्ट बताते हुए पंद्रह दिन की अंतिम चेतावनी के साथ सार्वजनिक संग्राम का ऐलान कर चुके हैं। सवाल यह है कि आखिर कांग्रेस में रह कर भी कांग्रेस की सरकार के खिलाफ पायलट की खुली बगावत अचानक शांत शांत क्यों? सवाल है कि आखिर कांग्रेस क्या गहलोत और पायलट के बीच मची जंग से से पार पा सकती है? और सवाल यह भी कि ऐसे हाल में कांग्रेस की सरकार को फिर से रिपीट कराने में गहलोत को कितनी मुश्किलें आएंगी? सवाल जितने मुश्किल हैं, जवाब उससे भी ज्यादा मुश्किल हैं।
सियासत के इन सुलगते सवालों का ध्रुव सत्य यह भी है कि राजस्थान की राजनीति में बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं, जो तीन बार मुख्यमंत्री बनने सहित गहलोत के राजनीतिक उत्थान को काफी आसानी से जुगाड़ और अवसरवाद करार देकर अपना कलेजा ठंडा कर लेते हैं, उनके पास गहलोत की ताकत को तोलने के कुछ हल्के तर्क और कुछ कमजोर कारण भी जरूर होगें। लेकिन उन लोगों के लिए यह समझना कठिन है कि अस्तित्व और आकांक्षा के अद्वैत को साधने के लिए निर्गुण और सगुण का नहीं, निराकार और साकार में से केवल साकार का चुनाव करना पड़ता है। अपने 50 साल के राजनीतिक जीवन में गहलोत ने सदा से ही राजनीति के साकार पात्रों को साधने में समय दिया, और एक बड़ी बात यह कि धाराएं भले ही अलग रही हों, न तो गहलोत ने किसी के भरोसे अपनी राजनीति की और न ही किसी से नाता से तोड़ा। न तो नरेंद्र मोदी से, न वसुंधरा राजे से और न ही अपनी पार्टी के आलाकमान से। खुलकर चुनौती तो किसी को दी ही नहीं। राजनीति के पांच दशक के लंबे सफर में गहलोत अपने जीवन के पता नहीं कब और किस मोड़ पर का यह शाश्त सत्य सीख गए थे कि रिश्तों में किया गया निवेश ही असल निवेश होता है। इसीलिए हर बार, हर जगह और हर हाल में वे अपने खास अंदाज में फिर से प्रकट हो ही जाते हैं। सवाल इसलिए भी है कि आखिर ऐसा वे कैसे कर लेते हैं?
यही वजह है कि राजस्थान की कांग्रेसी राजनीति की अब तक की सबसे बड़ी और सबसे लंबी चली बगावत के बावजूद पायलट, बहुत कोशिश करके भी गहलोत का व्यक्तिगत नुकसान नहीं कर पाए हैं। हां, इतना जरूर है कि पायलट की कोशिशों से जो भी नुकसान हो रहा है, वह कांग्रेस पार्टी का हो रहा है, न संगठन सक्रिय हो पा रहा है और न ही कार्यकर्ता। इस जंग वे खुद भी झुलस गए हैं। दो खेमों में बंटवारा साफ है और इस हाल में तो फिर पायलट का भी कोई प्रकट राजनीतिक लाभ कहां है। निश्चित तौर पर पायलट की उम्मीदें और आकांक्षाएं बड़ी भले ही हों, लेकिन ज्यादातर नौसिखिया नेताओं की तरह उनकी नाराजगी में बिगड़ रहे हालात के बाद आखिर उनकी नाव भी किस घाट पर जा कर लगेगी, खुद उन्हें भी इसका अंदाजा नहीं है। इसीलिए सवाल यह भी है कि कांग्रेस की सरकार फिर से लाने की मुख्यमंत्री गहलोत की सकारात्मक कोशिशें कितनी फलित होंगी, या फलित होंगी भी या नहीं?
सत्ता सवालों के घेरे में हैं, तो बीजेपी के उत्साह पर भी सवाल कोई कम नहीं है। उसके उत्साह का एक कारण भले ही यह है कि राजस्थान में हर पांच साल सत्ता में बदलाव की बिसात पर उसकी नैया पार लगना वह तय मान रही है। और, यह भी कि मोदी लहर चलेगी और कांग्रेस की फूट का लाभ भी सीधा उसे ही मिलेगा। लेकिन बीजेपी में भी वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री के घोषित चेहरे की चमक से दरकिनार करके चुनाव कैसे जीता जाए, यह सबसे बड़ा सवाल है। सवाल यह भी है कि पहले अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के गृह प्रदेश हिमाचल में सत्ता गंवाने और अब कर्नाटक में हतोत्साहित करने वाली हार के बाद बीजेपी में उपजी हल्की सी हताश राजनीतिक तस्वीर में राजस्थान बीजेपी में चल रहा बिखराव विधानसभा चुनाव में क्या नतीजे देगा? जिन वजहों से कांग्रेस को जितना कमजोर बताया जा रहा है, वैसी ही वजहों से उतनी ही कमजोर बीजेपी भी तो है। मतभेद हैं, गुटबाजी हैं, एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश हैं और जातिगत जनाधार का बंटवारा भी साफ है। जनता की जुबान पर मुख्यमंत्री पद के लिए नामों की सूची दर्जन भर लंबी है, तो उन सभी दर्जन भर नेताओं के बीच टकराव का इतिहास भी कोई नया नहीं है। दरअसल, बीजेपी में सभी दर्जनभर नेताओं में से हर नेता के ताकतवर होने पर भी सवाल है।
माना कि प्रदेश बीजेपी के नए अध्यक्ष के रूप में चित्तौड़गढ़ के सांसद सीपी जोशी सहज, सरल और समर्पित कार्यकर्ता के रूप में कदम बढ़ा रहे हैं और ताकतवर तेवर दिखाते हुए दिख भी रहे। विधानसभा चुनाव की कमान प्रकट तौर पर भले ही जोशी के हाथ होगी, लेकिन असली डोर बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के हाथ ही रहेगी। इसीलिए सवाल यह है कि वसुंधरा राजे, ओम बिडला, राजेंद्र सिंह राठौड़, गजेंद्र सिंह शेखावत, ओमप्रकाश माथुर, अर्जुन मेघवाल, राजेंद्र गहलोत, राज्यवर्धन सिंह राठौड़, किरोड़ीलाल मीणा, सतीश पूनिया और दीया कुमारी जैसे राजपूत, ओबीसी, जाट, दलित व आदिवासी मजबूत नेता क्या अपने से जूनियर सीपी जोशी के निर्णयों को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करेंगे? माना कि जोशी राजस्थान की राजनीति में सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नुमाइंदे हैं, और अमित शाह व जेपी नड्डा का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त हैं। लेकिन अपने प्रादेशिक वरिष्ठ नेताओं के बीच सामंजस्य साधकर उस ताकत को वोटों में तब्दील करने की उलझनों को सुलझाना भी तो उनके लिए किसी रहस्यमयी सवाल से कम नहीं है?
बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व जानता है कि राजनीति कुल मिलाकर केवल संभावनाओं का खेल है। लेकिन जहां संभावनाएं खुद ही खेल करने लगें, तो खेल के खत्म होते देर नहीं लगती। इसीलिए बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व साल भर से स्थानीय नेताओं के बीच के अवरोध चुपचाप कम करने में जुटा है। केंद्रीय नेतृत्व को आभास है कि राजनीति में मनमुटाव और परस्पर नीचा दिखाने की होड़ जब व्यक्तिगत स्तर पर ज्यादा सताने लगे, तो बरबादी का रास्ता खुलना तय है। ऐसे में मामला अगर राजनीतिक संगठन का हो तो, और चुनाव से जुड़ा हो, तो जीत मुश्किल हो ही जाती। सो, कहा जा सकता है कि बीजेपी के लिए भी चुनाव जीतना उतना ही मुश्किल है, जितना कांग्रेस में पायलट और गहलोत का एक होना।
कांग्रेस और बीजेपी की सीधी ताकत वाले प्रदेश में आश्चर्य इस बात का भी है कि छोटी पार्टियां भी अपनी जड़ें जमाने को जमीन तलाश रही हैं। राजस्थान में वैसे तो सालों पहले बूटा सिंह की राजस्थान विकास पार्टी, और बाद में देवी सिंह भाटी की सामाजिक न्याय मंच, किरोड़ी लाल मीणा की राजस्थान जनतांत्रिक पार्टी और घनश्याम तिवाड़ी की भारत वाहिनी पार्टी जैसी छोटी पार्टियां असफलता के आसमान से पछाड़ खाकर धड़ाम से गिरी, खत्म भी हो गईं और उसके नेता फिर अपने पुराने घाट पर पहुंच गए। लेकिन हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी को बीते चुनाव में मिली छोटी सी सफलता और हाल के उपचुनावों में मिले ठीक – ठाक वोटों के कारण इस बार फिर नई उम्मीद है, क्योंकि उनका जातिगत जनाधार किसान कौम की जरा मजबूत जमीन पर जमा हुआ है और बहुजन समाज पार्टी की तरह ही कुछ सीटें बेनीवाल भी जीतते तो हैं ही।