राजस्थान देश का एक ऐसा रंगीला प्रांत है जो इतिहास में न केवल त्याग,बलिदान और शौर्य की कहानियों के लिये प्रसिद्ध है ,बल्कि यहाॅ की कला,संस्कृति और सम्यता ने भी इसे एक विशिष्ट पहचान प्रदान की है। विश्व की सबसे प्राचीन सिन्धु घाटी सम्यता और वैदिक सभ्यता का जन्म स्थल सप्त – सैन्धव प्रदेश का गौरवगान करने वाली सरस्वती नदी प्रदेश की प्राचीनता का बोध करती हैै। विश्व की सर्वाधिक प्राचीन अरावली पर्वत,श्रृखलाएं कर्णवत अक्ष बनाती हुई प्रदेश के मध्यभाग में उत्तर – पूर्व से दक्षिण – पश्चिम तक फैली हुई हैं। सैकड़ों मील दूर तक फैला हुआ मरू टीलों का साम्राज्य,प्राकृतिक सौन्दर्य की छठा बिखेरती राजस्थान की झीलें एवं वन्य प्राणी कलात्मक और भव्य राजप्रासाद, दुर्ग और हवेलियां तथा संध्या के समय एकांत में गूंजते लोकसंगीत के स्वर अनायास ही पर्यटकों का मन मोह लेते हैं।
राजस्थान प्रदेश इतिहास ,कला एवं संस्कृति की दृष्टि से राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। राजस्थान का इतिहास गौरवशाली और महिमामयी रहा है। यहाॅ की धरती कुछ ऐसी है कि यहाॅ जन्म लेकर न केवल वीरों ने इसका गौरव बढ़ाया है बल्कि साहित्य ,संस्कृति एवं कला तीनों ही क्षेत्रों में इसकी श्री वृद्धि में अपना योगदान दिया है। पृथ्वीराज चैहान, राणाकुम्भा, महाराणा प्रताप, दुर्गादास तथा सवाई जयसिंह आदि इसी रणभूमि की संताने हैं। भामाशाह की निःस्वार्थ सेवा, पद्मिनी के जौहर और पन्नाधाय के त्याग से कौन परिचित नहीं है।
साहित्य सृजन और चिंतन परम्परा को महाकवि चंद व सूर्यमल्ल,कृष्णभक्त मीरा और संत दादू ने जीवित रखा है। राजस्थान के शौर्य का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने कहा कि राजस्थान में ऐसा कोई राज्य नहीं जिसकी अपनी थर्मोपोली न हो और कोई ऐसा नगर नहीं जिसने लियोनिडास पैदा नहीं किया हो। राजस्थान की भूमि पर ही खानवा का इतिहास प्रसिद्ध युद्ध लड़ा गया जिसने भारत के इतिहास को पलट कर रख दिया । इसी राज्य ने मालदेव,चन्द्रसेन और महाराणा प्रताप जैसे वीर दिये हैं, जिन्होंने ने सदैव मुगलों से लोहा लेकर प्रदेश की रक्षा की। मालदेव को पराजीत कर शेरशाह सूरी यह कहने को मजबूर हुआ कि खैर हुई वरना मुटठी भर बाजरे के लिये मैं हिन्दुस्तान की सल्तनत खो देता ।
भारत की आजादी के बाद 19 रियासतों और 3 ठिकानों को मिलाकर राज्य पुनर्गठन आयोग 1 नवम्बर 1956 को अस्तित्व में आया । देशी रियासतों का सामूहिक बोध कराने के लिये राजस्थान शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सुप्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने 1829 ई.में अपनी पुस्तक ‘‘एनल्स एण्ड़ एन्टीक्वीटिज ऑफ़ राजस्थान’’ में किया। अरावली पर्वत श्रृंखला ने राजस्थान को दो भागो में बांट दिया है। उत्तर-पश्चिमी राजस्थान और दक्षिण – पूर्वी राजस्थान । दोनों ही प्रदेश जलवायु, धरातल वनस्पति आदि दृष्टि से भिन्नता रखते हैं। राज्य के 61 प्रतिशत भाग पर मरूस्थल का विस्तार देखने को मिलता है। चम्बल राजस्थान की एक मात्र वर्ष भर बहने वाली नदी है। इसी नदी ने इसे भारत में एक समृद्धशाली प्रांत बनाया है। यदि चम्बल यहाॅ प्रवाहित नहीं हो रही होती तो राजस्थान पूरा ही सहारा की तरह मरूस्थल में बदल जाता। यहाॅ की जलवायु शुष्क है और वर्षा का अधिकांश भाग पूर्वी राजस्थान को प्राप्त होता है। सर्दियों में बहुत कम वर्षा होती है। वनस्पति की दृष्टि से राजस्थान में अरावली की पहाड़ियाॅ नग्न हो गई हैं। राज्य का बहुत कम 9.57 प्रतिशत भाग ही वनाच्छाच्दित है। पीली क्रांति ने राज्य को भारत में सरसों के उत्पादन में प्रथम स्थान पर ला खड़ा किया है। राजस्थान में स्थिति सांभर झील भारत में आंतरिक भागों में नमक उत्पादन का सबसे बड़ा स्त्रोत है। सूती वस्त्र उद्योग राजस्थान का सबसे प्राचीन और संगठित उद्योग है। राजस्थान खनिजों की दृष्टि से एक समृद्ध राज्य है, इसीलिये इसे खनिजों का अजायबघर कहा जाता है। पन्ना,तामड़ा आदि कीमती पत्थरों का राजस्थान भारत में एकमात्र राज्य है। चम्बल जल विद्युत परियोजना राज्य की महत्ती परियोजना है पवन और सौर ऊर्जा के उत्पादन में भी देश में शीर्ष पर खड़ा है। सूरतगढ एवं कोटा में राज्य के सुपर थर्मल पावर स्टेशन स्थापित है।
परिवहन के साधनों का राज्य में तेजी से जाल बिछता जा रहा है। राज्य में उत्तर -पश्चिमी रेलवे और पश्चिमी-मध्य रेलवे के दो नये जोन अस्तित्व में आ गये हैं। पैलेस ऑन व्हील जैसी शाही रेलगाड़ी देश – विदेश के पर्यटकों को राजस्थान की यात्रा आठ दिनों में पूरा कराती है। राजस्थान की कला – संस्कृति और पर्यटन की गूंज यूरोप और अमेरिका तक सुनायी पड़ती है। राजस्थानी हस्तशिल्प और जयपुर के बंधेज ने विदेशी बाजारों में धूम मचा रखी है। भीलों की गवरी,कामड जाति का तेरहताली नृत्य और गुलाबो का कालबेलिया नृत्य विदेशों तक धूम मचा आया है। राजस्थान पर्यटकों के लिये स्वर्ग बना हुआ है। राजस्थान पर्यटन विकास निगम द्वारा राज्य में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये माउन्ट आबू का ग्रीष्माउत्सव, जैसलमेर का मरू उत्सव, बीकानेर का ऊंट उत्सव, अजमेर का कार्तिक मेला सहित अनेक सांस्कृतिक आयोजन किये जाते हैं। इन उत्सवों में जब लोक कलाकारों के पांव थिरकते हैं, लोकसंगीत की स्वर लहरियाॅ गूंजती हैं और अलगोजा जैसे वाद्य बजते हैं तो पर्यटकों को असीम आनंद की अनुभूति होने लगती है।
भोगोलिक सीमाएं
राजस्थान का आकार विषम कोण चतुर्भुज के समान है। इसकी पूर्व से पश्चिम लम्बाई 869 किमी. तथा उत्तर से दक्षिण की चैड़ाई 826 किमी. है। राजस्थान के उत्तर में पंजाब ,उत्तर पूर्व में हरियाणा,पूर्व में उत्तर प्रदेश ,दक्षिण पूर्व में मध्य प्रदेश और दक्षिण पश्चिम में गुजरात राज्य की सीमाएं लगती हैं। राजस्थान की कुल स्थलीय सीमा 5920 किमी. है, इसमें से 4850 किमी. सीमा अन्तर्राज्य सीमा है तथा 1070 किमी. अन्तर्राष्ट्रीय सीमा है जो पाकिस्तान से स्पर्श करती है जो भारत और पाकिस्तान की बीच भारत की आजादी के समय सर रैड क्लिफ द्वारा मानचित्र पर अंकित की गई थी ।
पाकिस्तान के पंजाब और सिंध प्रान्त के बहावलपुर ,खैरपुर और मीरपुर खास जिले राजस्थान की अंतर्राष्ट्रीय सीमा को स्पर्श करते हैं। गंगानगर शहर अंतर्राष्ट्रीय सीमा को स्पर्श करता है। जैसलमेर से लगने वाली अंतर्राष्ट्रीय सीमा सबसे लम्बी है। यह सीमा राजस्थान में गंगानगर जिले के हिन्दूमलकोट से प्रारम्भ होकर बाड़मेर के शाहगढ़ स्थान पर समाप्त होती है।
राजस्थान का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 3.42.239 वर्ग किमी. है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का 10.43 प्रतिशत है। पहले मध्य प्रदेश भारत का सबसे बड़ा राज्य था परन्तु में छत्तीसगढ़ बनने के पश्चात राजस्थान क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य हो गया है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार राजस्थान राज्य की कुल जनसंख्या 6,85,48,437 है। इसमें से महिलाओं की संख्या 3,29,97,440 एवं पुरूषों की संख्या 3,55,50,997 है। राज्य में 2001 एवं 2011 के दशक में कुल 21.31 प्रतिशत जनसंख्य वृद्धि दर्ज की गई। जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से राज्य में प्रति वर्ग किलोमीटर 200 की जनसंख्या निवास करती है। राज्य में लिंगानुपात प्रति 1000 पुरूषों पर 928 महिलाएं हैं। राज्य में साक्षरता दर 66.11 प्रतिशत है।
ऐतिहासिक स्वरूप
राजस्थान के प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालें तो विदित होता है कि प्रस्तुत नामकरण से पूर्व राजस्थान प्रदेश के विभिन्न भाग भिन्न -भिन्न नामों से जाने जाते थे। जैसलमेर क्षेत्र को प्राचीन समय में मांड प्रदेश के नाम से जाना जाता था । आज भी यहाॅ का मांड गायन पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध हैं। जोधपुर का प्राचीन नाम मरू या मरू प्रदेश के रूप में ऋग्वेद, महाभारत, वृहद संहिता आदि प्राचीन ग्रन्थों, रूद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख तथा पाल अभिलेखों में मिलता है। उस समय मरू प्रदेश के अन्तर्गत जैसलमेर,बीकानेर ,बाड़मेर आदि का रेगिस्तानी क्षेत्र शामिल था । मरू प्रदेश की भाषा मरू भाषा के रूप में जानी गई जिसका सर्वप्रथम उल्लेख 8वीं 9वीं शताब्दी में उद्योतन सूरी रचित कुवलयमाला में मिलता है। जोधपुर को मारवाड़ प्रदेश के नाम से भी जाना जाता है। आज भी जोधपुर की भाषा मारवाड़ी भाषा कहलाती हैै।
मरू के बाद जांगल क्षेत्र का नाम आता है। महाभारत में प्रयुक्त कुरू जांगल एवं मद्र जांगल के उल्लेख से प्रतीत होता है कि जांगल के अन्तर्गत केवल राजस्थान का उत्तरार्द्ध भाग ही नहीं बल्कि पंजाब का दक्षिण – पूर्वी भाग भी सम्मलित था । राजस्थानी इतिहास व साहित्य ग्रन्थों में जांगल का प्रचुर उल्लेख मिलता है। जांगल प्रदेश के अन्तर्गत वर्तमान के बीकानेर और जोधपुर शामिल थे । इसकी राजधानी अहि छत्रपुर थी जिसे वर्तमान में नागौर के नाम से जाना जाता है। इसी जांगल प्रदेश के अधिपति होने के कारण बीकानेर के राजा को जांगल का बादशाह के नाम से जाना जाता था ।
राजस्थान का पूर्वी भाग (वर्तमान जयपुर,दौसा,अलवर,तथा भरतपुर का कुछ भाग)मत्स्य प्रदेश कहलाता था । वर्तमान जयपुर तथा उसका समीपवर्ती प्रदेश ढूंढाड़ के नाम से प्रसिद्ध रहा है। इसीलिये आज भी इस प्रदेश की भाषा ढूढ़ाडी कहलाती है। इसी प्रकार राजस्थान का दक्षिणी भू-भाग शिवि मेदपाट,बागड़,प्राग्वाट आदि नामों से जाना जाता था । उदयपुर का सबसे प्राचीन नाम शिवि मिलता हैं। शिवि जनपद चितौड़ का समीपवर्ती क्षेत्र था । इसकी राजधानी मध्यमिका थी जिसे आजकल नगर के नाम से जाना जाता है। नगरी चितौड़ से लगभग 7 मील उत्तर पूर्व में स्थित एक प्राचीन गांव हैं। यहाॅ उपलब्ध मुद्राओं पर अंकित मज्झिमनिकाय शिवि जनपदस्य से इसकी पुष्टि होती है।
उदयपुर को ही बाद में मेवाड़ के नाम से जाना गया । राजस्थान के दक्षिणी – पश्चिमी भू-भाग जिसमें सिवाणा और जालौर क्षेत्र शामिल हैं को गुर्जर अथवा गुजरत्रा नाम से जाना जाता था । इसकी प्राचीन राजधानी भीनमाल थी जैसा कि प्रसि़द्ध चीनी यात्री हेनसांग के यात्रा विवरण से संकेत मिलता है। डूंगरपुर – बांसवाड़ा क्षेत्र को पहले बांगड़ प्रदेश के नाम से जाना जाता था । आज भी प्रदेश की भाषा बागड़ी भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। चैहान नरेशों के राज्य शाकम्भरी (सांभर)एवं अजमेर को पूर्व में सपादलक्ष के नाम जाना जाता था। इसी प्रकार राजस्थान के विविध भू- भागों के लिये और अनेक नाम समय – समय पर प्रचलित रहे हैं। उदाहरण के लिये खींची चैहानों द्वारा अधिकृत होने के कारण गागरोन और उसका समीवर्ती क्षेत्र खींचींवाडा़ ,झालाओं द्वारा शासित झालावाड़ रावशेखा के वंशजों द्वारा अधिकृत प्रदेश शेखावटी, तंवर क्षत्रियों के अधीन नीमका थाना तथा कोटपूतली का निकटवर्ती प्रदेश तोरावाटी या तंवर वाटी कहलाया ।
इसके अलावा मेव बाहुल्य प्रदेश मेवात (वर्तमान के अलवर और भरतपुर जिले),मेरों की अधिकता के कारण अजमेर और उसका निकटवर्ती प्रदेश मेरवाड़ा प्रदेश कहलाया । आदिवासी भीलों की अधिकता के कारण भीलवाड़ा को यह नाम प्राप्त हुआ । कई नाम ऐसे हैं जो प्राचीन काल में प्रचलित रहे हैं और आज भी लोक व्यवहार में प्रचलन में हैं जैसे कोटा- बूंदी ,झालावाड़,बांरा का क्षेत्र आज भी हाड़ौती के नाम से प्रचलित है। इसी प्रकार चितौड़ को पूर्व में खिज्रराबाद ,धौलपुर को कोठी तथा करौली को गोपालपाल आदि नाम से जाना जाता था। इस प्रकार राजस्थान के भौगोलिक क्षेत्र या अंचल को प्राचीन संदर्भ के अनुसार विविध नामों से पहचाना गया है।
राजनीतिक एकीकरण
राजस्थान का वर्तमान स्वरूप 1 नवम्बर 1956 को राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 के अन्तर्गत अस्तित्व में आया है। भारत में रियासतों के एकीकरण का महान कार्य तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के हाथों से सम्पन्न हुआ । जब भारत आजाद हुआ उस समय राजपूताना में 19 रियासतें और 3 ठिकाने (निमराना,लावा,और कुशलगढ़)शामिल थे तथा अजमेर -मेरवाड़ा केन्द्र शासित प्रदेश था । सात चरणो में इन सभी प्रशासनिक इकाईयों का राजस्थान में विलय हुआ । इसी प्रक्रिया को राजस्थान का राजनीतिक एकीकरण कहा जाता हैं।
प्रथम चरण मत्स्य संघ (17मार्च,1948) 27 फरवरी,1948 को अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली के तत्कालीन नरेशों के समक्ष दिल्ली में केन्द्रीय सरकार की ओर से चारों रियासतों के विलीनीकरण का प्रस्ताव रखा गया जिसे चारों ने स्वीकार कर लिया । इस नये राज्य संघ का नाम श्री कन्हैयालाल माणिक्यलाल मुंशी के सुझाव पर ‘‘मत्स्य’’ रखा गया । प्रथम चरण में निमराना ठिकाने का विलय भी मत्स्य संघ में कर दिया गया । तत्कालीन केन्द्रीय खनिज एवं विद्युत मंत्री श्रीनरहरि विष्णु गाडगिल ने इसका उद्घाटन किया । अलवर मत्स्य प्रदेश की राजधानी तथा धौलपुर नरेश राजप्रमुख एवं अलवर नरेश प्रधानमंत्री बनाए गए।
द्वितीय चरण राजस्थान संघ ( 25 मार्च,1948) राजस्थान के एकीकरण का दूसरा महत्वपूर्ण चरण 25 मार्च,1948 को पूरा हुआ जब कोटा, बूंदी, झालावाड़, बांसवाड़ा डंूगरपुर, प्रतापगढ़, किशनगढ़, टोंक और शाहपुरा रियासतों के शासकों ने मिलकर ‘‘राजस्थान संघ’’ का निर्माण किया लावा और कुशलगढ़ ठिकानों का विलय भी इसी समय हुुआ। इसका उद्घाटन भी श्री गाडगिल के हाथों ही सम्पन्न हुआ इसकी राजधानी कोटा को बनाया गया तथा कोटा के महाराव और डूंगरपुर के महारावल क्रमशः राजप्रमुख और उप राजप्रमुख बनाये गए।
तृतीय चरण संयुक्त राजस्थान (18 अप्रैल,1948) 18 अपै्रल,1948 को उदयपुर रियासत का राजस्थान संघ में विलीनीकरण होने पर ‘‘ संयुक्त राजस्थान’’ का निर्माण हुआ । जिसका उद्घाटन इसी दिन उदयपुर में भारत के प्रधानमंत्री पं0जवाहर लाल नेहरू ने किया । उदयपुर को इस नये राज्य की राजधानी ,वहाॅ के महाराणा भूपालसिंह को राजप्रमुख, कोटा महाराव भीमसिंह को उप राजप्रमुख बनाया गया । वस्तुतः वर्तमान राजस्थान का स्वरूप इसी समय बना और यहीं से इसके निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। चतुर्थ चरण वृहद् राजस्थान ( 30 मार्च,1949) इस समय जयपुर,जोधपुर,बीकानेर,जैसलमेर और सिरोही की पांच रियासतें ही ऐसी बची थी जो एकीकरण में शामिल नहीं हुई थी। इनके अलावा 19 जुलाई 1948 को केन्द्रीय सरकार के आदेश पर लावा चीफशिप को जयपुर राज्य में शामिल कर लिया गया जबकि कुशलगढ़ की चीफशिप पहले से ही बांसवाड़ा रियासत का अंग बन चुकी थी। प्रयासों के बाद 14 जनवरी,1949 को उदयपुर की एक सार्वजनिक सभा में सरदार पटेल ने जयपुर ,जोधपुर,बीकानेर,और जैसलमेर रियासतों के वृहद् राजस्थान में जोधपुर में सैद्धान्तिक रूप से सम्मिलित होने की घोषणा की,जिसे 30 मार्च 1949 को प्रातः 10.40 बजे सरदार पटेल ने जयपुर के ऐेतिहासिक दरबार में आयोजित एक भव्य समारोह में सरदार पटेल ने जयपुर महाराजा श्री मानसिंह को राजप्रमुख, कोटा महाराव श्री भीमसिंह को उप राजप्रमुख तथा श्री हीरालाल शास्त्री को नये राज्य के प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई। तब से 30 मार्च को राजस्थान का स्थापना दिवस कहा जाता है। पंचम चरण में 15 मई, 1949 को मत्स्य संघ भी राजस्थान का अंग बन गया।
षष्ठ चरण राजस्थान ’ब’ श्रेणी का राज्य सिरोही के विलय की प्रक्रिया पूरी की गई। सातवें चरण में एक नवम्बर 1956 को तत्कालीन अजमेर-मेरवाड़ा राज्य का भी राजस्थान में विलीन कर दिया गया। इस प्रकार 18 मार्च 1948 को आरम्भ हुई राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया 1 नवम्बर 1956 को 7 चरणों में जाकर सम्पन्न हुई और वर्तमान राजस्थान अस्तित्व में आया।
प्रशासनिक व्यवस्था
राजस्थान में गुरूमुख निहाल सिंह प्रथम राज्यपाल एवं मोहन लाल सुखाड़िया प्रथम मुख्यमंत्री बने। प्रशासनिक दृष्टि से वर्तमान में राज्य में 7 सम्भाग एवं 33 जिले हैं। पुनर्गठन के समय 1 नवम्बर, 1956 को राजस्थान में 26 जिले थे। उसके बाद प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से 5 चरणों में 7 जिले और बनाए गए। 15 अप्रैल, 1982 को धौलपुर जिला, 10 अप्रैल, 1991 को बारां, राजसमन्द तथा दौसा जिले, 12 जुलाई, 1994 को गंगानगर से अलग होकर हनुमानगढ़ राजस्थान का 31 वाँ जिला बना। सवाई माधोपुर से अलग कर 19 जुलाई 1997 को करौली राजस्थान का 32 वाँ जिला बना। 26 जनवरी 2008 को प्रतापगढ़ को जिला बनाने की बजट सत्र में की गईनघोषणा से 33 वाँ जिला अस्तित्व में आया।
सम्भाग के प्रभारी सम्भागीय आयुक्त एवं जिले के प्रभारी जिला कलेक्टर होते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात् खेजड़ी को राज्य वृक्ष,मरू की शोभा रोहिड़ा को राज्य पुष्प, गोडावण को राज्य पक्षी, छोटा हिरन-चिंकारा को राज्य वन्य पशु घोषित किया गया।
विश्व सन्दर्भ
राजस्थान को विश्व सन्दर्भ में देखें तो राजसमन्द झील के किनारे स्थित “राजसिंह प्रशस्ति” जो संगमरमर के 25 शिलालेखों पर उत्कीर्ण है विश्व की सबसे बड़ी प्रशस्ति मानी जाती है। यह मेवाड़ के इतिहास का सबसे प्रमुख स्त्रोत है। इंग्लैण्ड के सम्राट जेम्स प्रथम का राजदूत सर टाॅमस रो 1616़ ई. में अजमेर स्थित अकबर किले में मुगल सम्राट जहांगीर से मिला था। इस महत्वपूर्ण भेंट को भारत में अंग्रेजी व्यापारिक हितों की शुरूआत मानी जाती है। राजस्थान की राजपूत वीरांगनाओं द्वारा आक्रान्ताओं से अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु किये गये जौहर विश्व के इतिहास के एकमात्र द्दष्टांत हैं। इसमें पद्मिनी और कर्मावती के जौहर विशेष रूप विख्यात हैं। जयपुर के जयगढ़ किले में स्थित जयबाण तोप पहियों पर रखी हुई विश्व की सबसे बड़ी तोप के रूप में प्रसिद्ध है।
अजमेर के निकट पुष्करराज में स्थित ब्रह्माजी का मन्दिर विश्व का एकमात्र मन्दिर है जहाँ इनकी विधिवत् पूजा होती है।अजमेर स्थित विश्वविख्यात सूफी सन्त ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह समूचे विश्व में इस्लामिक आस्था के प्रमुखतम केन्द्रों में है और इसका स्थान मक्का मदीना के बाद आता है। पाली जिले के रणकपुर में स्थित चैमुखा आदिनाथ जैन मन्दिर विश्वविख्यात है। नागौर जिले में मेड़ता के निकट कुड़की गांव की राजकुमारी मीरा बाई को कृष्ण भक्ति के लिये पूरे देश में जाना जाता है। दादू पंथ के प्रवर्तक दादूदयाल की कर्मस्थली राजस्थान रहा और उनकी समाधि जयपुर के निकट नारायणा नामक स्थान पर स्थित है। भारत का एकमात्र विभीषण मन्दिर कोटा के निकट कैथून कस्बे में स्थित है। कोटा नगर का दशहरा मेला पूरे भारत में राष्ट्रीय मेले के रूप में प्रसिद्ध है। सवाई माधोपुर के रणथम्भौर का बाघ अभयारण्य, घाना पक्षी विहार, गुलाबी नगर जयपुर, झीलों की नगरी उदयपुर,बून्दी व टोंक जिलों की बावड़ियां , किशनगढ़ की बनी-ठनी पेंटिंग, बून्दी की चित्र शैली, आमेर-चित्तौड़गढ़- जैसलमेर-कुंभलगढ़- रणथंभोर एवं झालावाड़ जिले में गागरोन के पहाड़ी किले एवं जोधपुर का छीतर महल विश्व का सबसे बड़ा रिहायशी महल ऐसे आकर्षण हैं जो विश्व स्तर पर राजस्थान की पहचान हैं।शेखावाटी क्षेत्र की हवेलियों के भित्ति चित्र श्रेष्ठता व बहुलता के कारण विश्व भर में ओपन आर्ट गैलरी के रूप में प्रसिद्ध हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व राजस्थान के जनसंपर्क विभाग के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं)
संपर्क1-एफ-18, आवासन मंडल कॉलोनी,कुन्हाड़ी,
कोटा, राजस्थान