यह एक एतिहासिक तथ्य है कि प्रभु श्री राम ने लंका पर चढ़ाई करने के उद्देश्य से अपनी सेना वनवासियों एवं वानरों की सहायता से ही बनाई थी। केवट, छबरी, आदि के उद्धार सम्बंधी कहानियाँ तो हम सब जानते हैं। परंतु, जब वे 14 वर्षों के वनवास पर थे तो इतने लम्बे अर्से तक वनवास करते करते वे स्वयं भी एक तरह से वनवासी बन गए थे। इन 14 वर्षों के दौरान, वनवासियों ने ही प्रभु श्री राम की सेवा सुषुर्शा की थी एवं प्रभु श्री राम भी इनके स्नेह, प्रेम एवं श्रद्धा से बहुत अभिभूत थे। इसी तरह की कई कहानियाँ इतिहास के गर्भ में छिपी है।
यह भी एक कटु सत्य है एवं इतिहास इसका गवाह है कि हमारे ऋषि मुनि भी वनवासियों के बीच रहकर ही तपस्या करते रहे हैं। अतः भारत में ऋषि, मुनि, अवतार पुरुष, आदि वनवासियों, जनजातीय समाज के अधिक निकट रहते आए हैं। इस प्रकार, हमारी परम्पराएँ, मान्यताएँ एवं सोच एक ही है। जनजातीय समाज भी भारत का अभिन्न एवं अति महत्वपूर्ण अंग है।
आज भी भारत में वनवासी मूल रूप में प्रभु श्री राम की प्रतिमूर्ति ही नज़र आते हैं। दिल से एकदम सच्चे, धीर गम्भीर, भोले भाले होते हैं। यह प्रभु श्री राम की उन पर कृपा ही है कि वे आज भी सतयुग में कही गई बातों का पालन करते हैं। परंतु, ईसाई मशीनरियों एवं कुछ लोगों द्वारा आज वनवासियों को उनके मूल स्वभाव से भटकाकर लोभी, लालची एवं रावण वंशज बताया जा रहा है। वनवासी रावण के वंशज कैसे हो सकते हैं? जब रावण स्वयं तो वनवासी कभी रहे ही नहीं थे एवं वे श्री लंका के एक बुद्धिमान राजा थे। इस बात का वर्णन जैन रामायण में भी मिलता है। अब प्रशन्न यह उठता है कि जब रावण स्वयं एक ब्राह्मण था तो वंचित वर्ग का मसीहा या पूर्वज कैसे हो सकता है?
जैन रामायण की तरह गोंडी रामायण भी रावण को पुलत्स वंशी ब्राह्मण मानती है, न कि आदिवासियों का पूर्वज, कुछ गोंड पुजारी रावण को अपना गुरु भाई भी मानते हैं, चूँकि पुलत्स ऋषि ने उनके पूर्वजों को भी दीक्षा दी थी। इस तरह के तथ्य भी इतिहास में मिलते हैं कि रावण अपने समय का एक बहुत बड़ा शिव भक्त एवं प्रकांड विद्वान था। रावण जब मृत्यु शैया पर लेटा था तब प्रभु श्री राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण से कहा था कि रावण अब मृत्यु के निकट है एवं प्रकांड विद्वान है अतः उनसे उनके इस अंतिम समय में कुछ शिक्षा ले लो। तब लक्ष्मण रावण के सिर की तरफ़ खड़े होकर शिक्षा लेने पहुँचे थे तो लक्षमन को कहा गया था कि शिक्षा लेना है तो रावण के पैरों की तरफ़ आना होगा। तब लक्ष्मण, रावण के पैरों के पास आकर खड़े हुए तब जाकर रावण ने लक्ष्मण को अपने अंतिम समय में शिक्षा प्रदान की थी। अतः रावण अपने समय का एक प्रकांड पंडित था।
भारतीय संस्कृति पर पूर्व में भी इस प्रकार के हमले किए जाते रहे हैं। भारत में समाज को आपस में बाँटने के कुत्सित प्रयास कोई नए नहीं हैं। एक बार तो रामायण एवं महाभारत आदि एतिहासिक ग्रंथों को भी अप्रामाणिक बनाने के कुत्सित प्रयास हो चुके हैं। वर्ष 2007 में तो केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय के मातहत भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने एक हलफ़नामा (शपथ पत्र) दायर किया था, जिसमें कहा गया था कि वाल्मीकीय रामायण और गोस्वामी तुलसीदासजी कृत श्रीरामचरितमानस प्राचीन भारतीय साहित्य के महत्त्वपूर्ण हिस्से हैं, लेकिन इनके पात्रों को एतिहासिक रूप से रिकार्ड नहीं माना जा सकता है, जो कि निर्विवाद रूप से इनके पात्रों का अस्तित्व सिद्ध करता हो या फिर घटनाओं का होना सिद्ध करता हो।
ये बातें कितनी दुर्भाग्यपूर्ण हैं। यह कहना कि प्रभु श्री राम और रामायण के पात्र (राम, भरत, लक्ष्मण, हनुमान, विभीषण, सुग्रीव और रावण, आदि) एतिहासिक रूप से प्रामाणिक सिद्ध नहीं होते, एक प्रकार से भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात ही था। हालांकि भारतीय जनमानस के आंदोलित होने पर उस समय की भारत सरकार को अपनी ग़लती का एहसास हुआ था और उसने अपने शपथ पत्र (हलफ़नामे) को न्यायालय से वापस मांग लिया था।
विभिन्न देशों में वहां की स्थानीय भाषाओं में पाए जाने वाले ग्रंथों एवं विदेशों तक में किए गए कई शोध पत्रों के माध्यम से भी यह सिद्ध होता है कि प्रभु श्री राम 14 वर्ष तक वनवासी बनकर ही वनों में निवास किए थे। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि प्रभु श्री राम भी अपने वनवास के दौरान वनवासियों के बीच रहते हुए एक तरह से वनवासी ही बन गए थे। साथ ही, वनों में निवासरत समुदायों ने सहज ही उन्हें अपने से जुड़ा माना और प्रभु श्री राम उनके लिए देव तुल्य होकर उनमें एक तरह से रच बस गए थे। फिर आज किस तरह से रावण इन वनवासियों के मसीहा हो सकते हैं?
कई वनवासी एवं जनजाति समाजों ने तो अपनी रामायण ही रच डाली है। जिस प्रकार, गोंडी रामायण, जो रामायण को अपने दृष्टिकोण से देखती है, हज़ारों सालों से गोंडी व पंडवानी वनों में रहने वाले जनजाति समाजों की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा रही है। गुजरात के आदिवासियों में “डांगी रामायण” तथा वहां के भीलों में “भलोडी रामायण” का प्रचलन है। साथ ही, हृदय स्पर्शी लोक गीतों पर आधारित लोक रामायण भी गुजरात में राम कथा की पावन परम्परा को दर्शाती है।
इसके साथ ही, विदेशों में भी वहां की भाषाओं में लिखी गई रामायण बहुत प्रसिद्ध है। आज प्रभु श्री राम की कथा भारतीय सीमाओं को लांघकर विश्व पटल पर पहुंच गई है और निरंतर वहां अपनी उपयोगिता, महत्ता और गरिमा की दस्तक देती आ रही है। आज यह कथा विश्व की विभिन्न भाषाओं में स्थान, विचार, काल, परिस्थिति आदि में अंतर होने के बावजूद भी अनेक रूपों में, विधाओं में और प्रकारों में लिखी हुई मिलती है। यथा, थाईलेंड में प्रचलित रामायण का नाम “रामकिचेन” है। जिसका अर्थ है राम की कीर्ति।
कम्बोडिया की रामायण “रामकेर” नाम से प्रसिद्ध है। लाओस में “फालक फालाम” और “फोमचक्र” नाम से दो रामायण प्रचलित हैं। मलेशिया यद्यपि मुस्लिम राष्ट्र है, परंतु वहां भी “हिकायत सिरीरामा” नामक रामायण प्रचलित है, जिसका तात्पर्य है श्री राम की कथा। इंडोनेशिया की रामायण का नाम “ककविन रामायण” है, जिसके रचनाकार महाकवि ककविन हैं। नेपाल में “भानुभक्त रामायण” और फिलीपीन में “महरादिया लावना” नामक रामायण प्रचलित है। इतना ही नहीं, प्रभु श्री राम को मिस्र (संयुक्त अरब गणराज्य) जैसे मुस्लिम राष्ट्र और रूस जैसे कम्युनिस्ट राष्ट्र में भी लोकनायक के रूप में स्वीकार किया गया है। इन सभी रामायण में भी प्रभु श्री राम के वनवास में बिताए गए 14 वर्षों के वनवास का विस्तार से वर्णन किया गया है।
भारतीय साहित्य की विशिष्टताओं और गहनता से प्रभावित होकर तथा भारतीय धर्म की व्यापकता एवं व्यावहारिकता से प्रेरित होकर समय समय पर चीन, जापान आदि एशिया के विभिन्न देशों से ही नहीं, यूरोप में पुर्तगाल, स्पेन, इटली, फ़्रान्स, इंग्लैंड आदि देशों से भी अनेक यात्री, धर्म प्रचारक व्यापारी साहित्यकार आदि यहां आते रहे हैं। इन लोगों ने भारत की विभिन्न विशिष्टताओं और विशेषताओं के उल्लेख के साथ साथ भारत की बहुप्रचलित श्री राम कथा के सम्बंध में भी बहुत कुछ लिखा है। यही नहीं, विदेशों से आए कई विद्वानों जहां इस संदर्भ में स्वतंत्र रूप से मौलिक ग्रंथ लिखे हैं, वहीं कई ने इस कथा से सम्बंधित “रामचरितमानस” आदि विभिन्न ग्रंथों के अनुवाद भी अपने अपने भाषाओं में किए हैं और कई ने तो इस विषय में शोध प्रबंध तैयार किए हैं।
भारत के वनवासियों के तो रोम रोम में प्रभु श्री राम बसे हैं। उन्हें प्रभु श्री राम से अलग किस प्रकार किया जा सकता है। यह सोचना भी हास्यास्पद लगता है। प्रभु श्री राम की जड़ें आदिवासियों में बहुत गहरे तक जुड़ी हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि विदेशी मशीनरियों एवं वामपंथियों के कुत्सित प्रयासों को विफल करते हुए भारतीय संस्कृति पर हमें गर्व करना होगा। धर्मप्राण भारत सारे विश्व में एक अद्भुत दिव्य देश है। इसकी बराबरी का कोई देश नहीं है क्योंकि भारत में ही प्रभु श्री राम एवं श्री कृष्ण ने जन्म लिया। हमारे भारतवर्ष में भगवान स्वयं आए हैं एवं एक बार नहीं अनेक बार आए हैं। हमारे यहां गंगा जैसी पावन नदी है एवं हिमालय जैसा दिव्य पर्वत है। ऐसे भाग्यशाली कहां हैं अन्य देशों के लोग।
प्रहलाद सबनानी,
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