मित्रो, इस बार दशहरे पर, श्री राम से अधिक श्रीमान रावण के बारे में सद्भावना रखने वाले लेख पढ़ने को मिले, अटपटा लगा। विचार किया तो समझ आया कि वाट्स एप और फेसबुक के दौर में तो यही होगा।
जो दिखता है वह बिकता है। इतने सारे पोस्ट के बीच दिख पाने का अर्थ बेहतर के बजाय अटपटा या चटपटा होने से है। तो दो वस्त्रों में साधारण से रामजी कहाँ दिखेंगे। यह तो गनीमत रही कि लोगों ने सिर्फ रावण की तारीफों के पुल बाँधे।( रामसेतु की चर्चा नहीं की। ), लक्ष्मण जी को सुपर्णखा के कान काटने के लिए नारी का विरोधी, हनुमान जी को अशोक वाटिका उजाड़ने के लिए गैर अनुशासित आदि संज्ञाएँ नहीं दीं। रामादल को असहिष्णु नहीं कहा, वर्ना किसी वानर को भड़का कर पुरुस्कार वापसी का नाटक रच जाता, ऐसी स्थिति में रामलीला 10 के बजाय 11 दिन चलती, जैसे हमारे संसद या विधानसभा के सत्र बढ़ जाते हैं।
और तो और, किसी ने यह भी नहीं लिखा कि रावण को, हनुमान जी और अंगद जैसे रामदूतों से उनके असली दूत होने के सबूत नहीं माँगे। हद हो गई, किसी ने यह भी नहीं लिखा कि रावण को यह जाँच करानी चाहिए थी कि उसके भाई होते हुए विभीषण की हनुमान से मित्रता कैसे, कहाँ और क्यों संभव हुई।
उन सभी सम्माननीय लेखकों का धन्यवाद व्यक्त करता हूँ जिन्होंने “वह” लिखते हुए भी “यह” नहीं लिखा। यह उन पर श्री राम की कृपा का ही परोक्ष प्रभाव है जो और अधिक पाप के भागी होने से बचा लिया फिर चाहे वो किसी स्थान, धर्म, जाति या पेशे से हों।
यदि आप इसे किसी को पढ़ने भेजें तो रामादल का एक सदस्य महसूस करेंगे। पुण्य का तो पता नहीं, पुरुषोत्तम की आभा का प्रभाव पड़ेगा।