बिहार के शिक्षा मन्त्री ने जान बूझकर तुलसीदास, महर्षि मनु और गोलवलकर को गाली दी।
वास्तव में नेता का उद्देश्य किसी ग्रन्थ के गुण दोष नहीं बल्कि समाज मे द्वेष फैलाना था।
यह लेख केवल रामचरित मानस के हिन्दुत्व की रक्षा में योगदान के विषय मे है।
गिरमिटिया। यह शब्द आपने शायद ही सुना हो।
अंग्रेजों ने भारत को जब उपीनिवेश बनाया तो उन्हें गन्ने व नील की खेती के लिए भाड़े के मजदूरों की जरूरत पड़ी तो उन्होंने बिहार, यूपी आदि क्षेत्रों से मजदूरों को मारिशस, फीजी, गुआना आदि देशों में मजदूरी के लिए ले जाया गया और वे वहीं बस गए। इन मजदूरों की हालत अच्छी नहीं होती थी। एक तो अनपढ़ थे और एकमात्र मजदूरी ही इनका जीविका का माध्यम था। इनसे 16-16 घंटे काम लिया जाता था और बदले में 2 वक्त की रोटी ही दी जाती थी।
इनको एग्रीमैंट करके लाया गया था। यह एग्रीमेंट शब्द बदल कर गिरमिट हो गया और इस तरह के लोगों को गिरमिटिया मजदूर कहा जाता था। बिहार के इलाकों से आए ये लोग अधिकतर हिन्दू थे। ये अपने साथ रामचरित मानस ग्रंथ, तुलसी की माला व आरती ही ला पाए थे। बस इसी के सहारे इन्होंने अपने धर्म को जीवित रखा। महाभारत व रामायण की गाथाओं को ये जब भी समय मिलता गाते व आपस में बैठ कर भजन गाते। ये न तो ज्यादा संस्कृत जानते थे लेकिन गायत्री मंत्र, राम-राम या ओम नम.. शिवाय मंत्र का उच्चारण करते रहते थे।
1832 से 1924 के बीच कोई पांच लाख मजदूर यूरोपीय व्यापारियों से एग्रीमेंट कर दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के विभिन्न देशों में चले गए। इनमें से सबसे ज्यादा दुर्गम यात्रा थी कैरेबियन समुद्र तटों पर बसे देशों की। गिरमिटिया मजदूरों ने जो पीड़ा भुगती, उसके बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है। ये गिरमिटिया मजदूर आम तौर पर यूपी-बिहार के ग्रामीण थे जो नकद लगान नहीं दे पाने के कारण अपनी जमीनें खो बैठे ये देश थे सूरीनाम, ट्रिनीडाड और गयाना तथा वेस्टइंडीज। यहां पर जो लोग गए, वे भारतीय संस्कृति के नाम पर अपने साथ तुलसी दास की रामचरित मानस का गुटका ले गए और उसी के सहारे वे अपनी संस्कृति को बचाए रहे। इन मजदूरों के वंशजों ने अपनी भाषा और बोली को भी खूब संभाल कर रखा था और यही कारण है कि मारीशस से लेकर पूरे हिंद महासागरीय द्वीपों तथा कैरेबियन तटवर्ती देशों में अवधी व भोजपुरी मिश्रित भाषा आम है। इन मजदूरों ने कष्ट सहे और उनसे निकले भी। अपनी कथा भी कही।
ऐसे ही एक गिरमिटिया मजदूर थे मुंशी रहमान खान। वे यूपी के हमीरपुर जिले के भरखरी गांव के रहने वाले थे और वहां के एक पठान परिवार में सन् 1874 में उनका जन्म हुआ था। उनके दादा अफगानिस्तान से आकर हमीरपुर के इस गांव में बसे थे। साल 1898 में जब रहमान खान की उम्र 24 साल की थी, कलकत्ता के एक जहाज से रवाना होकर सूरीनाम चले गए। अंडमान पहुंचते ही रहमान खान समझ गए कि अब वे शायद अपनी मातृभूमि के दर्शन नहीं कर पाएंगे। उन्होंने अपनी सारी यादों को लिपिबद्ध करने की आदत डाली। रहमान खान मुस्लिम थे और जाति के पठान पर उन्हें सिर्फ देवनागरी में ही लिखना आता था। उनका सूरीनाम में बंधुआ मजदूर बनकर रहना और गोरे मालिकों के जुल्मों की पूरी गाथा उन्होंने अपनी आत्मकथा जीवन प्रकाश में लिखी है। चार खंडों की यह पुस्तक बंधुआ मजदूरों की पीड़ा को उकेरने वाली सबसे सच्ची पुस्तक है। पुस्तक में उन्होंने अपना नाम मुंशी रहमान खान और कौम पठान बताया है। इसके पहले खंड में वे हिंदुस्तान की समरसता की कहानी लिखते हुए राम और कृष्ण को अपना पूर्वज मानते हैं। राम-कृष्ण की इस धरती पर हिंदू और मुसलमान भाई-भाई की तरह रहा करते थे। रामायण उनका सबसे पुराना ग्रन्थ था। वे सब लोग अपने साथ सूरीनाम जाते वक्त रामायण ले गए थे। जहाज पर बाकी के लोगों को पढ़ना- लिखना नहीं आता था, इसलिए रहमान खान ही उन्हें रामायण पढ़कर सुनाते। इसी तरह सूरीनाम में भी वे बंधुआ मजदूरों के रामायण कथावाचक हो गए। इसीलिए सब लोग उन्हें मुंशी जी कहने लगे।
बात 1910 की है, जब पटना के रहने वाले किशुन को अंग्रेज गिरमिटिया मजदूर के रूप में फिजी लेकर गए। श्रमिक के रूप में बेचारगी की मिसाल बनकर अपनी मिट्टी से महरूम किशन के पास अस्मिता-आत्म सम्मान के नाम पर यदि उस समय कुछ था, तो रामचरितमानस की छोटी प्रति। विरासत के नाम पर उनके पास रामचरितमानस के रूप में एक मजबूत संबल था और रामकथा के प्रतिनिधि ग्रंथ से मिले संस्कार का परिणाम रहा कि भारतीयों ने गैरों के बीच अपनी एक खास जगह बनाई। मानस की शिक्षा के अनुरूप सतत श्रम, अविचल धैर्य, विनम्रता, पराक्रम और उद्यम से। उनकी पीढ़ी के पूरे के पूरे गिरमिटिया श्रमिकों ने। उन्होंने बहुत श्रम और संयम से पूरे फिजी में रामचरितमानस को प्रतिष्ठित करने के साथ सनातन धर्म सभा, आर्य सभा की स्थापना की और भारतीय संस्कार से अनुप्राणित स्कूल स्थापित किए।