Monday, November 25, 2024
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तबलीगियों के बहाने खतरे की आहट को पहचानिये

मिर्जा गालिब ने कहा था, ‘‘वो अपनी खू न छोड़ेंगे, हम अपनी वज’अ क्यों छोड़ें…’’। सचमुच, जब दुनिया अभूतपूर्व रोग से लड़ रही है, और रोजाना हर कोने में सैकड़ों उस से मर रहे हैं। तब भी अनेक मुस्लिम नेताओं ने इस्लाम की शान का दावा अपना पहला कर्तव्य समझा। किसी ने मस्जिद में जुटना अपना अधिकार बताया; तो किसी ने पड़ोसी देश पर बमबारी कर दी; तो किसी ने गुरुद्वारे में सिखों का सामूहिक संहार कर डाला। खुद तबलीगी जमात के सदर दस दिन पहले तक मस्जिदों में जुटना जरूरी बताते रहे।

इस्लामियों के सहयोगी भी उन का बचाव करना अपना नं. एक कर्तव्य मान उसी कटिबद्धता से लगे हैं। किसी ने कहा कि बेचारे मुसलमान भोले हैं, इसलिए उन के जमावड़े का क्या दोष! यहाँ वामपंथी पत्रकार ने लिखा कि अगर भारत को अफगानिस्तान में सिखों-हिन्दुओं की चिंता हो, तो उसे अपना नागरिकता कानून बदल के सब धान बाइस पसेरी करना चाहिए। तबलीगियों द्वारा देश भर में क्लस्टर-कोरोना फैलाने पर किसी ने कहा कि इस पर एफ.आई.आर. करने के बदले करुणा दिखानी चाहिए थी…। गर्ज कि कोरोना हो या कत्लेआम, पहली चीज हर हाल में इस्लाम की शान ऊपर रखना है।

तब, काफिर को भी अपनी बात क्यों न रखनी चाहिए? हालाँकि सेक्यूलर, गाँधीवादी, राष्ट्रवादी कहेंगे कि ये क्या वक्त हिन्दू-मुसलमान करने का! मानो इस का वक्त कभी आता भी है। सचाई ये है कि काफिर की सुनने का मुहुर्त कभी बनता ही नहीं। कभी चतुराई, कभी आराम, कभी लोभ, लाभ, संवेदना, कभी अज्ञान, यानी हमेशा कोई कारण होता है कि काफिर को चुप कराए रखा जाए।

सो, काफिर भी हर मौके पर, निरपवाद रूप से, हर इस्लामी बयान या काम पर अपना पक्ष नहीं रखेगा, तो उस का अंततः खात्मा निश्चित है। कभी 25, जैसे अभी काबुल में, तो कभी अकेले अंकित शर्मा, या हजारों पंडितों सा, जो कश्मीर में हुआ, या लाखों में जैसे बँटवारे के बाद हुआ था। काफिर को बचाने, या उस के लिए भी दिया जलाकर एक मिनट के लिए पूरे देश को जगाने, चेताने का काम कभी, कोई नहीं करेगा। न कोई सत्ता, न कोई दल, न संगठन। वे भी नहीं जो खुद को काफिरों के दूर के या गोपनीय रिश्तेदार बताते हैं। अभी ही देखिए कि काबुल में काफिर-संहार पर किस-किस ने बयान भी दिया? यह मुँहचोरी अपवाद नहीं है। काफिरों की दुर्गति पर मुँह छिपाने की परंपरा यहाँ पिछले सौ साल से जारी है।

इसलिए, चालू हालात पर काफिर मत यह है कि जिस तबलीगी जमात से अभी पूरे देश में कोरोना क्लस्टर फैला, वह पिछले सौ साल से इस से कई गुणा भयावह काम कर रहा है। उस का घोषित लक्ष्य है: काफिरी खत्म करना। पहले मुसलमानों के बीच से। फिर सबके। पूरी धरती से काफिरी के खात्मे से कम उस की कोई मंजिल नहीं है। हर तरीके से। अन्य जिहादी संगठनों के साथ सहयोग करके। गत बीस वर्षों से भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान, अमेरिका, मोरक्को, फ्रांस, इंग्लैंड, फिलीपीन्स, उजबेकिस्तान जैसे दुनिया के अनेक देशों से इस के सबूत मिले प्रकाशित हैं।

आखिर, यहाँ पिछली बार कब तबलीगी जमात का नाम खबरों में आया था? सन् 2002 में गोधरा में ट्रेन में 59 काफिरों को जिंदा जलाने के बाद। उस से पूर्व 1992-93 में बंगलादेश-पाकिस्तान में हिन्दू मंदिरों पर व्यापक हमलों में। और सब से पहले? अपने स्थापना वर्ष, 1927 में स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या के बाद। यह सब निकट इतिहास आप खुद जाँच सकते हैं। पर ‘जाँचने’ की बात ही इसलिए उठेगी क्योंकि काफिर का दुःख प्रकाशित करने के बदले उसे छिपाया-दफनाया गया है।

जब कोई सुनाने पर उतर ही आए तो बड़े-बड़े गाँधी, नेहरू, यचूरी, वाजपेई, आदि उलटे काफिर को ही ‘धर्म’ सिखाने लगते हैं। मानो वह बेवकूफ मानवीय, राष्ट्रीय, दलीय, आदि ‘बड़ी तस्वीर’ न देख, बस अपनी छोटी तकलीफ पर सिर पटकना चाहता है। मगर इसी कारण, यानी किसी न किसी बहाने काफिर की तकलीफ झुठलाने और उस के जानी दुश्मन की आलोचना न करने के ही कारण यह हालत हुई है।

तबलीगी जमात को ही लें। आज ये दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है। इस के जलसों में दस लाख से अधिक मुसलमान जुटते हैं। लेकिन कितने लोग जानते है कि इसे सब से बड़ी ताकत महात्मा गाँधी से मिली थी? प्रो. मुमताज अहमद के अनुसार खलीफत आंदोलन (1919-24) का सबसे अधिक लाभ जिन नेताओं को मिला, उस में तबलीगी जमात के संस्थापक मौलाना मुहम्मद इलियास भी थे। गाँधीजी द्वारा कांग्रेस को झोंकने से ही ‘खलीफत जिहाद’ देश-व्यापी तूफान बना था। जिस के तुरत बाद उस ने यहाँ हजारों काफिरों की बलि ली! उसी तूफान ने यहाँ आम मुसलमानों में वह जज्बा भरा, जो उन में पहले न था (इसीलिए तबलीग, यानी मुसलमानों को सच्चा मुसलमान बनाने की कोशिशें होती रही थी)।

उसी दौरान महात्मा गाँधी ने इस्लाम को ‘नोबल फेथ’ की संज्ञा देकर हिन्दुओं को नैतिक रूप से भी निःशस्त्र कर दिया। यह एक दूरगामी मार साबित हुई, जिस की चोट रोज काफिर झेलते हैं। उस से पहले तक यहाँ हिन्दू राजाओं, संतों, विद्वानों और जनता द्वारा इस्लाम को भद्र-मत जैसी स्वीकृति कभी नहीं मिली थी। उन के लिए इस्लाम वही था, जो वह वास्तव में है! जो उन्होंने सदियों से, विभिन्न सुलतानों, बादशाहों, सूफियों, आदि के समय खुद देखा और झेला था। वह सब झुठलाकर गाँधीजी ने इस्लाम को एक नया हथियार थमा दिया:- काफिरों से जबरन सलामी लेने का।

इस से पहले तक यहाँ किसी इस्लामी नेता/ संस्था के लिए भी यह अकल्पनीय था। वे हिन्दुओं द्वारा इस्लाम की आलोचना करना सहज मानते थे, क्योंकि वे अपना देखा-भोगा हुआ यथार्थ ही तो कहते थे। गाँधी से ठीक पहले सब से बड़े हिन्दू स्वामी विवेकानन्द हुए। उन्होंने इस्लाम और प्रोफेट मुहम्मद की जो समीक्षा की थी, उसे पढ़ें। बाद में भी, श्रीअरविन्द, टैगोर, डॉ. अंबेदकर ने वही सच कहा। मगर तब तक गाँधीजी और कांग्रेस, सस्ती राजनीति के फेर में, इस्लाम को सदैव केवल सलामी देते रहने के लिए हिन्दुओं को मजबूर कर चुके थे।

यही नहीं, गाँधीजी ने आर्य समाज के शुद्धि अभियान की भर्त्सना करके उसे भी बंद करवाया। जबकि वही तबलीगी जमात के काम की एक मात्र शान्तिपूर्ण काट थी। फिर जब स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या हुई, तब भी गाँधी जी ने हत्यारे तबलीगी अब्दुल रशीद को बार-बार अपना ‘भाई’ कहा। उलटे श्रद्धानन्द की ही आलोचना की। इन सब से तबलीगी जमात, उस की सरपरस्त जमाते उलेमा को कैसी ताकत मिली – और किस तरह हिन्दू वैचारिक रूप से भी असहाय बना दिए गए – यह नहीं समझने वाले इस्लाम संबधित किसी विषय पर बोलने के अधिकारी नहीं हैं। यानी, काफिरों के हित की दृष्टि से।

यह ठोक-बजा कर देख लेना चाहिए कि दोहरी नैतिकता इस्लाम का मूल सिद्धांत है। उस में कोई चीज ऐसी नहीं, जो मुसलमानों-काफिरों के लिए एक जैसी मानी गई हो। यही उस की बुनियाद है। इसलिए जो मुस्लिम-काफिर को ‘समान’ नजरिए से देखते हैं, उन्हें सावधानी रखनी चाहिए। वरना सदैव इस्लाम को फायदा और काफिर की हानि होती है। गत सौ सालों से 99% मामलों में यही होता रहा है। पाठकों से गुजारिश है कि इसे खुद परखते रहें, और काफिरों के साथ होते जुल्मो-सितम का हिसाब करें। यह एक चेतावनी भी है ताकि, बकौल गालिब, ‘‘न कहियो फिर कि गाफिल थे।’’

साभार- https://www.nayaindia.com/ से

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