Tuesday, December 24, 2024
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याद माँ की मीठी यादों की

माँ की मृत्यु हुए क़रीब दो वर्ष बीत गए थे| एक दिन माँ की बहुत याद आ रही थी सोचा कि भाई भाभी से भी मिल आऊँगी और भैय्या भी बीमार चल रहे हैं उन्हें भी देख आऊँगी| पति से कहकर अपना टिकट कराया और माँ के घर चली गई| भाई भाभी ने बड़े प्यार से स्वागत किया और जिस कमरे में माँ की चारपाई होती थी वहीं मेरे सोने का प्रबंध कर दिया मैंने कमरे को सब ओर से देखा –माँ पिताजी की तस्वीर सामने की दीवार पर लगी हुई थी और दोनों की तस्वीरों पर फूलों का हार लगा हुआ था| मैंने माँ और पिताजी की तस्वीर को प्रणाम किया, लगा दोनों ही मुस्कराकर मेरा स्वागत कर रहे हैं| ह्रदय में खुशी तो हुई परन्तु माँ नहीं थीं वह बहुत बड़ी कमी थी एक खालीपन उस कमरे में छाया हुआ था| मेरी आँखों के सामने वह पुराना दृश्य घूम गया जहां माँ की चारपाई होती थी उसके साथ ही एक छोटी सी मेज़ हुआ करती थी जिसे माँ ने एक बार पिताजी के साथ जाकर मेले से दो रूपए में खरीदा था और उस मेज़ का नाम भी दो रूपए वाली मेज़ रख दिया था| जब भी माँ को अपनी दवाई की ज़रूरत होती तो कहतीं थीं ज़रा मेरी दवाई तो ले आ,वहीं दो रूपए वाली मेज़ पर रखी है|

हम सभी भाई बहन खूब हँसते थे और माँ से कहते कि अब आप इसका नाम बदल कर पुरानी छोटी मेज़ रख लें परन्तु माँ को तो दो रूपए वाली मेज़ कहना ही अच्छा लगता था| हम सब भी उसके आदी हो गए थे| चारपाई के पास ही माँ ने पिताजी से कहकर एक खूंटी लगवाई थी क्योंकि रात को सोने से पहले माँ के पास एक तुलसी की माला थी, वह जपा करतीं थीं और उसे वे अपने हाथ से सिली हुई एक छोटी सी थैली में रखतीं थीं| सोते समय उसे खूंटी पर लटका दिया करतीं थीं, उन्हें पसंद नहीं था कि माला बिस्तर पर रखी जाए| एक स्कार्फ जिसे माँ ने सर्दी के दिनों में धूप में बैठ कर बनाया था सोने से पहले वे हमेशा उसे तकिये के नीचे रख दिया करती थीं और सुबह उठकर पहन लिया करतीं थीं| एक एक कर सभी बातें मेरे मस्तिष्क में चलचित्र की तरह घूम रही थीं| परन्तु अब दृश्य बदल गया था| कमरे में जिस चारपाई पर माँ सोतीं थीं उसकी जगह पर आधुनिक पलंग आ गया था| ज़मीन पर रखी मेज़ की जगह पर सुंदर से गलीचे पर बड़ा सा फूलदान रखा था| मैंने पलंग पर बैठ कर लम्बी सांस ली और एकटक दीवार पर लगी माँ- पिताजी की तस्वीर को देखती रही| अपना पर्स टांगने के लिए खूंटी देखी वह भी नही थी| उसका निशाँ भी मिटा दिया गया था, दीवारों पर हरे रंग की जगह पर हलके पीले रंग की छटा बिखर रही थी|

किसी तरह मैंने अपना सामान सूटकेस पर ही रख दिया और माँ पिताजी की यादों में खो गई| पता न चला कब आँख लग गई और सुबह के पांच बजे पास वाली मस्जिद की अजान से मेरी आँख खुल गई| अजान सुनकर माँ हमेशा कहा करतीं थीं कि.. “लो सुबह हो गई है अपने अपने कामों में लग जाओ”| आज यह कहने वाली माँ इस संसार में नहीं थी| केवल यादें ही शेष रह गयीं थीं |

(सविता अग्रवाल “सवि” केनेडा निवासी हैं)
जन्म स्थान: मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत
शिक्षा: एम.ए. (कला)

साहित्य रूचि का प्रारंभ और प्रेरणा स्त्रोत: साहित्य प्रवाह मेरे मन में बचपन से ही प्रवाहित होता रहा है| साहित्य सृजन की प्रेरणा मुझे अपने पिता से मिली है| २००१ में कैनेडा आने के पश्चात यहाँ की जानी मानी संस्था हिंदी रायटर्स गिल्ड की स्थापना से ही इस संस्था की साहित्यिक गतिविधियों में निरंतर भाग लेती रही हूँ | आजकल इस संस्था की परिचालन निदेशिका (Operations Director) के रूप में कार्यरत हूँ |

प्रकाशित रचनाएं: मेरी कवितायेँ, लेख और लघु कथाएं एवं हाइकु इत्यादि समय समय पर ”हिंदी चेतना”, “हिंदी टाइम्स”, ई –पत्रिका “साहित्य कुंज”, “प्रयास”, “अम्स्तेल्गंगा” (Netherland), “शब्दों का उजाला”, गर्भनाल आदि में प्रकाशित होती रहती हैं |मेरा प्रथम काव्य संग्रह “भावनाओं के भंवर से” २०१५ में प्रकाशित | “खट्टे मीठे रिश्ते” उपन्यास के ६५ अन्य लेखकों की सह-रचनाकार |

मेरी प्रिय विधा : कविता और लघु कथा |
निवास : मिसिसागा, कैनेडा

साभार http://amstelganga.org/ से

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