यह स्वर्ग नर्क विवेचना
मन का अनोखा कृत्य है।
है सत्य केवल एक गति
बाकी समस्त अनित्य है। (प्रलय सृजन)
कविवर शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ (1915-2002 ई.) के नाम-रूप का स्मरण आते ही औदात्य का एक विराट बिम्ब आकार लेता है। बहुत कम रचनाकारों को इस तरह जीवंत किंवदंती होने का सौभाग्य मिला है, सुमन जी उस विलक्षण कविमाला के अनूठे रत्न हैं। उनकी इस किंवदंती छबि को कहीं-कहीं असहजता से भी लिया गया, किन्तु यह समस्या हिन्दी जगत के कथित आभिजात्य वर्ग की है, जिसके लिए इस तरह की उदात्त और जनप्रिय छबि संदेहकारी रही है। वे तमाम प्रकार की असहमतियों और विसंवादों के बीच सहज संवाद के कवि हैं। उन्होंने अपना समूचा जीवन उत्कट मानवता और अविराम सर्जना को अर्पित किया था। वस्तुतः उनके रचनामय व्यक्तित्व के माध्यम से हम लगभग सात-आठ दशकों के वैश्विक युग-जीवन से जैविक संवाद का विरल अनुभव पाते हैं। उनकी रचनाओं में हमारे समाज, साहित्य, संवेदना और चिंतन का इतिहास सजीव-सप्राण हो जाता है।
अपनी सुदीर्घ कविता ‘सांसों का हिसाब’ में वे जीवन के अविराम प्रवाह के बीच मनुष्य होने और उस रूप में बिताए सार्थक क्षणों का लेखा-जोखा मांगते हैं,
तुमने जितनी रासें तानी, मोड़ी हैं
तुमने जितनी सांसें खींची, छोड़ी हैं
उनका हिसाब दो और करो रखवाली
कल आने वाला है साँसों का माली
कितनी साँसों की अलकें धूल सनी हैं
कितनी साँसों की पलकें फूल बनी हैं?
काल की निरवधि के बीच उभरते ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्नों और परिवर्तन-चक्र को बाँधता कवि उस मुहाने पर ले जाता है, जहाँ जिंदगी को देखने का एक नया नज़रिया मिलता है:
तुम समझे थे तुम सचमुच में जीते हो
तुम ख़ुद ही देखो भरे या कि रीते हो
जीवन की लज्जा है तो अब भी चेतो
जो जंग लगी उनको ख़राद पर रेतो
जितनी बाक़ी हैं सार्थक उन्हें बना लो
पछताओ मत आगे की रक़म भुना लो
अब काल न तुमसे बाज़ी पाने पाये
अब एक साँस भी व्यर्थ न जाने पाये
तब जीवन का सच्चा सम्मान रहेगा
यह जिया न अपने लिए मौत से जीता
यह सदा भरा ही रहा न ढुलका रीता
एक अविराम-अडिग पथिक के रूप में गतिशील बने रहने में ही सुमन जी का जीवन-संदेश आकार लेता है। गति का आस्वाद वह क्या जाने जिसका जीवन अचल हो,
साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।
जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।
सुमन जी धारा के नहीं, उसके प्रतिरोध के कवि हैं। वे आजीवन नियति के आगे पराजित और संकल्पों को समर्पित करते मनुष्य को उसके विरुद्ध टकराने का आह्वान करते हैं,
इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पड़ा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पड़ा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ, मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।
मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोड़ा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे? जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है। (हिल्लोल से)
सुमन जी ने ‘महादेवी की काव्य साधना’ और ‘गीति काव्य: उद्गम और विकास और हिन्दी में उसकी परंपरा’ जैसे विषयों पर प्रतिमानी शोध किया था। उनके कई मर्म-मधुर गीत इस परंपरा में बहुत कुछ नया जोड़ते हैं। उनकी एक चर्चित गीति-रचना देखिए, जहाँ प्रणय का राग नई उड़ान भरता दिखाई देता है-
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था।
देख मेरे पंख चल, गतिमय
लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छिपाए मुख
कली भी मुस्कुराई।
एक क्षण को थम गए डैने
समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
आ गई आंधी सदलबल।
डाल झूमी, पर न टूटी
किंतु पंछी उड़ गया था।
एक ओर प्रणय का संदेश सुनाती प्रिया, दूसरी ओर बाँहें पसारे आहत-जन, सुमन जी अपनी राह पूरे आत्मविश्वास के साथ चुनते हैं,
चाहता तो था कि रुक लूँ पार्श्व में क्षण भर तुम्हारे
किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बाँहें पसारे,
अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचना कापुरुषता
मुंह दिखने योग्य रखेंगी न मुझको स्वार्थपरता।
उन्हें जीवन-प्रवाह के वे पक्ष कभी आंदोलित नहीं कर सके, जो या तो कल्पना-लोक में ले जाते रहे हों या पलायन-पथ पर। कवि सुमन का अमृत स्वर हमें ऐसे गान में डुबोता है, जहाँ प्रवृत्ति में ही जीवन सार्थकता पा सकता है, निष्क्रिय निवृत्ति में नहीं,
यह मन की बातें गढ़-गढ़ कर
मैं क्या पाऊँगा पढ़ पढ़ कर
मुझको दो ऐसे गान सिखा
मैं मिट जाऊँ गाते गाते
मुझको यह पाठ नहीं भाते
क्या शिक्षा का उपयोग यहाँ
है हाय हाय का शोर यहाँ
मेरी आँखों के आगे तो
जगती के सुख दुख मँडराते
मुझको यह पाठ नहीं भाते
(व्यक्ति चित्र: कलागुरु श्री रामचन्द्र भावसार/ माध्यम: तैलरंग)
– प्रो शैलेन्द्रकुमार शर्मा आचार्य, एवं अध्यक्ष हिंदी अध्ययनशाला एवं कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन। लेखक ने विक्रम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए अनेक नवाचार किए, 40 पुस्तकें प्रकाशित हुई। , मालवा का लोक-नाट्य माच और अन्य विधाओँ के साथ ही तीन सौ से अधिक शोध निबंधों, एक हजार से अधिक आलेख,समीक्षा का प्रकाशन।