लाल गलियारा – देश दुनिया में ‘रेड कॉरिडोर ‘के नाम से चर्चित कम्यनिस्टों के लाल झंडों से रक्तरंजित बंगाल में अब भगवा ध्वज लगाए नरेंद्र मोदी का भाजपाई रथ आगे बढ़ रहा है | बंगाल हमेशा भारत की क्रांतियों का क्षेत्र रहा है |संस्कृति की जमीन है || भले मानुस संवेदनशील और बुद्धिमान लोग हैं |आजादी के बाद दो दशकों में नक्सल आतंकवादियों ने अपने खूनी पंजों से इस इलाके को लहू लुहान किया | उन पर एक हद तक काबू पाने के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टियों ने तीन दशकों तक इसे अपना अभेद्य किला बनाए रखा | लेकिन कांग्रेस से ही निकली ममता बनर्जी की नई तृणमूल कांग्रेस को विकल्प मानकर जनता ने कम्युनिस्टों को मिटटी चटा दी | वैसे जिस तरह कम्युनिस्टों ने मजदुर किसानों के नाम पर बंगाल को बहकाया , भड़काया और विकास के बजाय हड़ताल चरित्र से कलंकित किया , लगभग उसी हथियार से सत्ता हासिल की | अवसरवादी कम्युनिस्ट कार्यकर्ता और उनका समर्थक अपराधी तत्व भी ममता के दरबार में शामिल हो गया |
लगभग दस वर्ष पहले कोलकाता की यात्रा के दौरान एक शिक्षाविद अधिकारी ने मुझसे कहा था कि ‘कम्युनिस्टों से हम बहुत दुखी हो गए थे ,लेकिन ममता के सत्ता में आने पर हम नई समस्याओं में फंस जायेंगे | ” उनकी आशंका सही साबित होती रही | ममता राज में अव्यवस्था , हिंसा और अराजकता का पहाड़ सा खड़ा हो गया है | भ्रष्टाचार और राजनीतिक हत्याओं से अधिक बड़ी समस्या राज काज की हो गई है | पिछले सात दशकों के दौरान केंद्र और कई राज्यों में अलग अलग दलों की सरकारें रही हैं , मतभेद और टकराव के अवसर भी आए हैं | लेकिन पिछले छह वर्षों में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार ने अपनी मनमानी और केंद्र से टकराव की सारी सीमाएं लाँघ दी हैं | गभीर आपराधिक मामलों में भी सी बी आई के अधिकारियों के प्रवेश पर रोक के साथ हिरासत , केंद्र सरकार की बैठकों के बहिष्कार के साथ उसकी जन कल्याण की योजनाओं को लागू न करने की जिद ने बंगाल को एक भयावह टापू में बदल दिया है |
दस साल पहले तृणमूल कांग्रेस के नेता और कार्यकर्त्ता कम्युनिस्ट मोर्चे की विदाई के पोस्टर – नारे लगाकर परिवर्तन के साथ उन्नति के सुहाने सपने जनता को दिखा रहे थे | लेकिन धीरे धीरे सपने टूटने लगे | विश्वविद्यालयों में धांधली – राजनीति , कस्बों और गांवों में मुंबई के शिव सैनिकों की तरह राजनीतिक अपराधियों की रंगदारी , बंगला देश से अवैध घुसपैठ , नकली नॉट , तस्करी और हिंसा , राज्यपाल तक से सीधे टकराव ने प्रशासनिक व्यवस्था ध्वस्त सी कर दी है |इसीलिए अब तृणमूल के ही कई नेता , विधायक , कार्यकर्त्ता ममता दीदी का दमन छोड़कर भाजपा की शरण में आ रहे हैं |कांग्रेस मृतपाय स्थिति में है और अब उसके साथ लाल झंडा उठाए कम्युनिस्टों के हाथ कमजोर दिख रहे हैं | यही कारण है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्त्व एवं नीतियों का समर्थन करते हुए तृणमूण के शीर्ष नेता सुधेंवू अधिकारी ही नहीं कांग्रेस , माकपा , कम्युनिस्ट पार्टियों के दस से अधिक विधायक , सांसद , जिला पंचायतों के अनेकानेक नेता रातोंरात भाजपा में शामिल हो गए | गृह मंत्री अमित शाह की मेदनपुर में हुई विशाल जान सभा में इन लोगों के भाजपा में शामिल होने से यह संकेत तो मिल ही गया है कि अब बंगाल की जनता के सामने भाजपा सशक्त विकल्प के रूप में खड़ी हो गई है |
यह धारणा भी ठीक नहीं है कि भाजपा को आसानी से सफलता मिल जाएगी | वास्तव में भाजपा ने इसकी तैयारियां बहुत पहले शुरू कर दी थी | भाजपा और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ दूरगामी हितो और लक्ष्य बनाकर काम करते रहे हैं | भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल से ही पार्टी को खादफा किया था | कभी इसी राज्य से जनसंघ के 12 विधायक चुनकर आए थे | भाजपा ने पूर्वोत्तर राज्यों में भी वर्षों तक सक्रिय रहने के बाद असम और कम्युनिस्टों के गढ़ त्रिपुरा में अपनी सरकार बनाने में सफलता पाई | हाल के 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को 18 स्थानों पर विजय का अर्थ करीब 125 विधान सभा में सफलता रहा है और अन्य क्षेत्रों में मिले मतों से उसे आगामी विधान सभा में बहुमत का विश्वास करना स्वाभाविक है |
बंगाल का सबसे बड़ा दर्द यही है कि उसे पिछले दशकों में कांग्रेस , कम्युनिस्ट मोर्चें और तृणमूल कांग्रेस ने प्रगति के बजाय केवल संघर्ष में उलझाए रखा | ममता सरकार ने तो पराकाष्ठा ही कर दी , क्योंकि किसानों के लिए केंद्र सरकार की छह हजार रूपये की वार्षिक सहायता राशि और सामान्य लोगों को मुफ्त इलाज के लिए पांच लाख रूपये की आयुष्मान भारत योजना तक लागू नहीं की | अन्य राज्यों का अनुभव बताता है कि आवास , शिक्षा , स्वास्थ्य , पानी , बिजली के लिए धनराशि भले ही केंद्र सरकार से मिले , स्थानीय सरकार और नेताओं को भी इसका श्रेय और राजनीतिक लाभ मिलता है | फिर मोदी सरकार की अच्छी छवि का लाभ भाजपा को मिल रहा है | ममता बनर्जी ने अल्पसंख्यकों भी अपना वोट बैंक मान लिया , लेकिन उन्हें भी अधिक कुछ नहीं मिला | अब ओवेसी की पार्टी हो या पुरानी कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां उन्हीं अल्प संख्यकों को भी वापस लाने का प्रयास कर रही हैं | दूसरी तरफ गुजरात , मध्य प्रदेश , राजस्थान जैसे राज्यों कई महत्वपूर्ण क्षत्रों में यह भी हुआ है कि अल्प संख्यकों ने भाजपा के उम्मीदवारों को जितवा दिया | अहमदाबाद ,लखनऊ और भोपाल इस बात के प्रमाण हैं |
बंगाल के चुनाव में अभी पांच छह महीने हैं | इसलिए जल्दबाजी में निष्कर्ष निकलना ठीक नहीं होगा | लेकिन यह भारत का ऐतिहासिक और कड़े संघर्ष वाला चुनाव होगा | बंगाल की हवा केरल तक पहुंच रही हैं | वहां भी कम्युनिस्ट पार्टियां अस्तत्व की अंतिम लड़ाई लड़ रही हैं | कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों का पतन देश के राजनीतिक भविष्य को भी बदल रहा हैं | स्थायित्व के लिए छोटी पार्टियां खतरनाक साबित होती हैं | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी एक देश एक चुनाव के नारे को आगे बढ़ा रहे हैं | इस दृष्टि से वैचारिक आधार पर ही सही दो सशक्त राष्ट्रीय दलों का होना लोकतंत्र के लिए अचछा होगा | रथ कोई हो , असली मंजिल तो जन कल्याण और राष्ट्र को सशक्त तथा विकसित करना हैं |