क्या हम आज भी जजिया कर और खरज भुगत रहे है??
23 मई 1993 को सुप्रीम कोर्ट ने 743 वक्फों की पेटिशन पर केंद्र सरकार को आदेश दिया कि तमाम मस्जिदों के स्थाई और अस्थायी इमामों को 1 दिसम्बर 1993 से उनकी योग्यता अनुसार वेतन दिया जाये।
योग्यता, उनकी शरियत की, कुरान की, हदीस की जानकारी के आधार पर तय होती है जिसमें सबसे काबिल इमाम आलिम होता है उससे नीचे इमाम हाफिज उससे नीचे इमाम नाजराह और मुअजिन। मुअजिन जानते हैं न वही जिसकी ड्यूटी सुबह सुबह और दिन में पांच बार लाउडस्पीकर पर चिल्ला कर सबको नमाज के लिए बुलाना होता है।
ये तनख्वाह क्यों दी जानी चाहिए इसके लिए इमामों का तर्क था कि वे एक धार्मिक कार्य कर रहे हैं और समाज के एक बड़े वर्ग का नमाज अदा करवाते हैं।
कर्नाटक वक्फ बोर्ड ने दलील दी कि चूंकि ऐसा कोई इस्लामी कानून और परम्परा नहीं है इसलिए इनको तनख्वाह नहीं दी जा सकती।
केंद्र और और अन्य कुछ राज्यों के वक्फ बोर्डों ने दलील दी कि, चूंकि इनके और हमारे बीच कोई मालिक और कर्मचारी वाला सम्बन्ध नहीं है इसलिए हम इन्हें तनख्वाह नहीं दे सकते।
वहीं पंजाब के वक्फ बोर्ड जिसके अंतर्गत हिमाचल और हरियाणा की मस्जिदें भी आतीं हैं की दलील थी कि हम_तो_पहले_से_ही_तनख्वाह_दे_रहे_हैं और साथ में प्रतिमाह मेडिकल एलाऊंस भी दे रहे हैं।*
तमाम दलीलों और गवाहों के बयानों को मद्देनजर रखते हुए एक *धर्मनिरपेक्ष और समानता की बात करने वाले देश की काबिल अदालत ने निर्णय दिया कि केंद्र सरकार छह महीने के अंदर गैरसरकारी मस्जिदों के इमामों की तनख्वाह के स्केल तय करे। और यदि इसमें छह महीने से अधिक का समय लगता है तो यह भुगतान 1 दिसम्बर 1993 से देय होगा।
*इस निर्णय को पढ़ने के बाद में मुझे पता चला कि मस्जिदें सरकारी भी होतीं हैं।
बात यहीं खत्म नहीं हुई । उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने मार्च 2011 में राज्यपाल को ज्ञापन दिया कि उत्तर प्रदेश में सरकार ने अभी सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार यहां के इमामों को नये वेतनमान के अनुसार वेतन देना शुरू नहीं किया है वो अभी पुराने वेतन पर ही गुजारा कर रहे हैं। साथ ही में उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने राज्यपाल को ये भी बताया कि *भारत में इस समय 28 लाख मस्जिदें हैं और हर इमाम को 18000/- पगार दी जाती है मतलब 50,000 करोड़ जो आप हम देता है।। और उत्तर प्रदेश में 3.30 लाख मस्जिदें हैं। (ये आंकड़े मार्च 2011 के हैं)*।।
ये तो सिर्फ इमाम की पगार है बाकी की पगार तो अलग है।
2011 में वक्फ बोर्ड की सम्पत्तियों और उनसे होने वाली आय पर जस्टिस शाश्वत कुमार कमेटी का आंकलन था कि भारत में 30 राज्यों में 30 वक्फ बोर्डों के पास एक लाख चालीस हजार करोड़ की सम्पत्ति है जिससे 12000 करोड़ रुपये की प्रतिवर्ष आय हो सकती है।
जबकि कुप्रबंधन के कारण इनकी अधिकतम आय 163 करोड़ ही है। यानि कि केन्द्रीय वक्फ बोर्ड के अतिरिक्त इन 30 वक्फ बोर्डों के कर्मचारियों की तनख्वाह भी सरकार ही वहन करती है।
जजिया और खरज के विषय में अंग्रेज विदेशी यात्री मानुक्की (Mannuci) लिखता है कि “शाहजहां और औरंगजेब के समय में जजिया और खरज की वसूली इतनी सख्त थी कि, न दे पाने की स्थिति में काश्तकार को उठा कर ले जाते थे और गुलामों के बाजार में बेच देते थे – – उस काश्तकार के पीछे पीछे रोती बिलखती उसकी पत्नी भी होते थे जो पति के साथ ही बिक जाते थे – – या उनके बच्चों को उठा कर ले जाते थे। जजिया से बचने के दो ही रास्ते थे या तो इस्लाम कबूल कर लो या मौत।”
औरंगजेब खुद बहुत खुश होकर बताता था कि जजिया न दे पाने के कारण हजारों लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया है।
एक धर्मनिरपेक्ष संविधान और प्रजातंत्र के तहत आज भी हम उत्तर से लेकर दक्षिण तक के इमामों की तनख्वाह के लिए जजिया भी दे रहे हैं और जैसे मुगलकाल में मंदिर लूटे जाते वैसे ही सरकारें आज भी मंदिरों को लूट रहीं हैं।
ये जजिया हम क्यों दे रहे हैं – इस लिए कि नमाज के बाद काफिरों से कैसे नफरत करनी है ये सिखाने वाले इमामों के पेट भरे रहें। ताकि कश्मीर में हुर्रियत की दुकान चलती रहे। ताकि बंगाल में राज्यपाल के पैर पकड़ कोई अबला रोये कि क्या जिंदा रहने के लिए अब धर्म परिवर्तन ही एकमात्र विकल्प बचा है। ताकि इनके बच्चों को 4800 करोड़ का अतिरिक्त वजीफा दिया जा सके जिससे उनके एक हाथ में कम्प्यूटर और एक हाथ में नफरत फैलाने वाली कुरान सुलभ हो सके। ताकि वो जामिया और एएमयू से नारे लगा
वैसे एक बात और बता दूँ कि औरंगजेब कितना भी जालिम था लेकिन इस जजिया का जब दिल्ली में हिन्दुओं ने उग्र विरोध किया था तो उसे जामा मस्जिद में नमाज पढ़ने जाना छोड़ कर लाल किले में ही नमाज पढ़ने के लिए मोती मस्जिद बनवानी पड़ गई थी ।
काफिरों ने तब भी सहा जब तुर्क और मुगल तलवार के दम पर वसूलते थे और आज भी सह रहे हैं जब धर्मनिरपेक्ष संविधान की नज़र में सब बराबर हैं।
साभार- https://upjagran.com/ से