भारत की धर्मरक्षक परंपरा के आदि पुरुष प्रभु राम के मूर्त्त रूप की प्राण प्रतिष्ठा केवल उन का अयोध्या में पुनर्वास ही इंगित नहीं करती। यह हिन्दू संस्कृति के लुप्त-प्रकट, विनाश-निर्माण के काल-चक्र में संस्कृति, धर्म व आस्था के पुनर्स्थापन एवं पुनरुत्थान प्रक्रिया की प्रवाह नित्यता की भी द्योतक है।
धन-धान्य से परिपूर्ण भारत सदैव लुटेरों का इष्टतम लक्ष्य रहा। कुछ लुटेरे लूटकर लौट जाते थे अथवा कोई भारतीय रूप अपना कर अभिन्न अंग बन कर यहीं रह जाते थे। परन्तु आठवीं शताब्दी से छिट-पुट और ग्यारहवीं शताब्दी से निरन्तर ऐसे आक्रमण शुरू हुए जिन्होंने दो सभ्यताओं के बीच सदियों चलने वाले भीषण संघर्ष का रूप ले लिया।
दुनिया की दो ज्ञान संस्कृतियाँ हैं। मध्य एशिया की अब्राहमिक और भारतवर्ष की वैदिक। अब्राहमिक संस्कृति थियो (देव) केंद्रित है, एक ईश्वर-विशेष केंद्रित है। उस का हीब्राइक गॉड एक और निराकार है। किन्तु निर्गुण नहीं। इस तार्किक त्रुटि के चलते तीन अब्राहमी मजहब यहूदी, क्रिश्चियन, इस्लाम आपस में भी मार-काट करते रहे हैं। क्रिश्चियनिटी और इस्लाम की मान्यता है कि सब को उन का मजहब कबूल करना चाहिए क्योंकि वही एकमात्र सच्चा है, और जो इसे नहीं मानते उन को जीने का अधिकार नहीं। इन दोनों मजहबों का हिंसात्मक इतिहास इस तथ्य की गवाही है। विशेष कर इस्लाम का इतिहास कई गुना हिंसात्मक और विघटनात्मक रहा है।
आठवीं शताब्दी से इस्लामी फौजों के सामने अनेक देश – लीबिया, ट्यूनीसिया, इजिप्ट, सीरिया, फारस – ध्वस्त हो गये। उन की मूल संस्कृति मिट गई और वे इस्लामी बन गये। आठवीं सदी के लगभग इस्लामी फौजों ने भारत पर दस्तक दी। और स्कन्द पुराण के अनुसार, “हिन्दू राजा तिनके की तरह बिखर गये।” पर यह पिछले जमाने जैसी लड़ाइयाँ न थी, जिस में वे भोजन या धन के लिए लड़ते, और पीछे हटते या बस जाते थे। अब युद्ध का चरित्र बदल गया। अब यह ‘काफिरों’ के सामूहिक खात्मे के कठोर मजहबी उद्देश्य से प्रेरित था। नगर के नगर रौंद दिये गये। प्रमुख मंदिर धूल में मिला दिए गए, और पूरी आबादी तलवार के घाट उतार दी गई। यह गुरु नानक ने हफीजाबाद पर बाबर की जीत के बारे में ‘बाबरवाणी’ में लिखा है।
इन युद्धों में नई बात थी: भयावह क्रूरता, काटे गये हिन्दू सिरों का ढेर लगाकर गर्वित होना, अंतहीन विध्वंस, जिस में उत्तरी, उत्तर-पश्चिमी, दक्षिण-पश्चिमी, दक्षिण-केंद्रीय भारत में एक भी प्रमुख हिन्दू, बौद्ध, या जैन मंदिर नहीं रहने दिया गया। सिंध की ७१२ ई. में पहली इस्लामी जीत से मराठों के उदय और १७०७ ई. में औरंगजेब के पतन तक हिन्दुओं का नरसंहार होता रहा, जो इतिहास में सब से भयावह था। इन में सल्तनत काल (१२०६-१५२६), मुगल काल (१५२६-१७१२) ऐसे थे जिन के विवरण अमेरिका में स्थानीय आबादी के संहार, यहूदियों के संहार, ख्मेर रूज के संहार (१९७५-७९) से बढ़कर थे। इस हद तक कि १२००-१५०० ई. के बीच हिन्दू आबादी गिर कर एक चौथाई रह गई।
मंदिर विध्वंस, वहीं मस्जिद बनाना, ब्राह्मणों तथा पाँच वर्ष से बड़े हिन्दू बालकों का संहार, युवतियों का अपहरण, तोड़ी गई देवमूर्तियों को मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे गाड़ना ताकि वहाँ जाने वाले इस्लामी अनुयायी उन को नित्य रौंदते हुए चलें, मध्यवय हिन्दू स्त्री-पुरुषों को गुलाम बनाकर पैदल ‘हिन्दू कुश’ (हिन्दुओं का खात्मा) पहाड़ से ले जाते हुए मध्य एसिया के बाजारों में बेचने जाना – यह सब सदियों चलता रहा। विल ड्यूरां ने अपने ग्रंथ ‘हिस्ट्री ऑफ सिविलाइजेशन’ में लिखा: “भारत पर इस्लामी जीत मानव इतिहास में सर्वाधिक रक्तरंजित है।”
फिर भी, हिन्दुओं ने ही मर्मांतक प्रतिरोध भी किया। अपमान झेलने के बदले मृत्यु को स्वीकार किया। इस पैमाने पर बलिदान दिये गये कि चंद बरदाई ने अपने पृथ्वीराज रासो में लिखा: “१२ साल कुक्कुर जीवे, १४ साल सियार; १६ साल खत्री जीवे, आगे को धिक्कार।” यानी, जो क्षत्रिय १६ वर्ष से अधिक आयु का है, वह जरूर रण से भागा है, इसलिए उसे धिक्कार है। इस तरह, बारं-बार लड़ते रहने में असंख्य नगर-गाँव पुरुषों से खाली हो जाते थे। परन्तु साहस पूर्वक लड़ते हुए हिन्दुओं ने अपनी धर्म-सभ्यता बचाई। यह फारस, मिस्र, मित्तानी के सीरियाई, और मेसोपोटामिया सभ्यता के लोग नहीं कर पाए।
पर भारत में राजा दर राजा, योद्धा दर योद्धा इस्लामी गिरोहों से लड़ते रहे। धर्म-रक्षा की लंबी परंपरा बनी और चलती रही। मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के संस्थापक बप्पा रावल, कोसल के गहड़वाल, असम के अहोम, वारांगल के काकातिया, विजयनगर के राय, हिन्दू पदपादशाही के शिवाजी, बाजीराव और मराठे, गुरु गोविन्द सिंह और खालसे, भरतपुर के जाट, नेपाल के गोरक्षक (‘गोरखा’) – एक के बाद एक हिन्दू राज्यों ने सनातन धर्म का दीप जलाए रखा।
यह योद्धाओं, ऋषि-मुनियों की अटूट श्रृंखला द्वारा धर्म-रक्षा का इतिहास है। पूरे भारत में बिखरे हुए देवमूर्तियों, मंदिरों, किलों के भग्नावशेष निरंतर मर्मांतक प्रतिरोध की गवाही हैं। कार्ल मार्क्स ने ‘नोट्स ऑन इंडियन हिस्ट्री (६६४-१८५८)’ में हिन्दुओं के अतुलनीय प्रतिरोध के बारे में आश्चर्य से लिखा कि जब फारसी लोग केवल तीस बरसों में अरब हमलावरों से हार कर इस्लामी बन गये, हिन्दुओं ने कैसे ऐसा मर्मांतक संघर्ष किया कि हमलावरों को केवल ९९० किलोमीटर, काबुल से दिल्ली, पँहुचने में कई शताब्दियाँ लग गई!
वस्तुतः हिन्दुओं ने अपनी आत्मा और मन की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्रतिरोध किया। आत्मिक स्वतंत्रता मुनियों-मनीषियों ने बचा कर रखी, और बाह्य शत्रुओं से रक्षा असंख्य प्रख्यात और अख्यात योद्धाओं ने लड़कर की। गौतमी पुत्र सतकर्नी, बप्पा रावल, नागभट्ट, राणा कुम्भा, राणा प्रताप, सुहेलदेव, लाचित बरफुकन, छत्रपति शिवाजी, तथा अन्य अनेकानेक। मनीषियों में आदि शंकराचार्य, गुरु गोरखनाथ, ज्ञानेश्वर, वसवन्ना, मीरा बाई, शाह हुसैन, कबीर, जयदेव, शंकर देव, तथा अनेक अन्य। दस सिख गुरुओं ने शस्त्र और शास्त्र से धर्म की रक्षा की। गुरु अर्जुन देव, गुरु तेग बहादुर के सर्वोच्च बलिदान के बाद, गुरु गोविन्द सिंह ने मीरी-पीरी को संयुक्त रूप से धारण किया। वे एक कवि, संत, दार्शनिक, और योद्धा भी थे। वे अयोध्या गये और मर्यादा पुरुषोत्तम राम की वन्दना की।
राम का नाम उन से भी अधिक शक्तिशाली है। जिन्हें हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख नित्य सुख-दुख में स्मरण करते हैं। उन से जुड़े मूल्य ही भारतीय सभ्यता के मर्मभूत मूल्य हैं। राम ईश्वर नहीं हैं, वे सर्वोत्तम मनुष्य के उदाहरण हैं, एक अवतारी पुरुष, जिस में सर्वोच्च दैवी शक्ति अभिव्यक्त हुई है। राम उन तीन सार्वभौमिक शक्तियों में एक हैं जो इस चक्रीय सृष्टि को जन्म देती, पालन करती, और नाश करती हैं। ‘आरंभ’ का प्रतीक होने के कारण जन्मभूमि अधिक पुण्य है। उस में भी राम की जन्मभूमि पवित्रतम मानी जाती रही है। इसीलिए हिन्दुओं के शत्रुओं ने बार-बार उन कलात्मक मंदिर-शिल्पों को जलाकर ध्वस्त किया। यमुना किनारे कृष्ण-जन्मस्थान मंदिर को महमूद गजनवी ने ११वीं सदी में, और मीर बाकी ने राम-जन्मभूमि मंदिर को १५२८ ई. में ध्वस्त किया। बाद में, १६६९ ई. में औरंगजेब ने ज्ञानवापी, केशवदेव कृष्ण जन्मस्थान, और सोमनाथ के मंदिरों को एक ही दिन तोड़ देने का हुक्म दिया। परन्तु जैसा मेरी माँ एक वाक्य में मध्ययुगीन इतिहास बताती थीं: “वे मन्दिर तोड़ते रहते थे, हम मन्दिर बनाते रहते थे।”
श्रीराम-जन्मभूमि मंदिर के विध्वंस को यहूदियों के सोलोमन टेंपल ध्वंस और अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के विध्वंस की श्रेणी में रखा जाता है। वे स्थान मात्र एक भवन नहीं, अपितु एक सभ्यता को धूल में मिलाने की चाह के प्रतीक-कांड थे। लगभग ५०० वर्षों तक लाखों हिन्दू राम-जन्मभूमि को मुक्त कराने और वहाँ पुनः मंदिर बनाने के लिए बलिदान होते रहे हैं। हमारे महान संतों, मनीषियों ने भी उसे विस्मृत नहीं किया। गुरु नानक वहाँ गये और प्रार्थना की थी। नवें गुरु तेग बहादुर राम-भक्त थे। दसम गुरु गोविन्द सिंह ने अयोध्या में एक लड़ाई भी लड़ी थी। ब्रिटिश काल में राम-जन्मभूमि में अवैध गतिविधि संबंधी पहली प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) १८६३ ई. में निहंग सिखों के विरुद्ध दर्ज हुई जो राम-जन्मस्थान में पूजा करने गये थे।
अतः, अयोध्या में २२ जनवरी को होने वाली प्राण-प्रतिष्ठा शताब्दियों के बलिदान की परिणति है। वह एक विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं, अपितु सनातन वैदिक सभ्यता की प्राण-प्रतिष्ठा है।