Monday, November 18, 2024
spot_img
Homeदुनिया मेरे आगेमूर्तियां गिराना भयभीत करता है

मूर्तियां गिराना भयभीत करता है

त्रिपुरा का यह दृश्य सारी मीडिया की सुर्खियां बनी जिसमें एक जेसीबी से लेनिन की मूर्तियां तोड़ी जा रहीं हैं। उसके बाद वहां भारत माता की जय के नारे लगे। कुल मिलाकर त्रिपुरा में दो स्थानों पर लेनिन की मूर्तियांें को गिरा दिया गया। यह घटना पहली नजर में चिंता पैदा करती है। चूंकि इस समय कम्युनिस्ट पार्टियों की हार और भाजपा तथा उसके सहयोगी दल इंडिजेनस पीपुल्स्ट फ्रंट ऑफ त्रिपुरा की विजय हुई है इसलिए स्वाभाविक ही इन हिंसक घटनाओं के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया गया है। ऐसी घटनाओं की समर्थन कोई विवेकशील व्यक्ति नहीं कर सकता। हालांकि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि भाजपा एवं संघ के केन्द्रीय नेतृत्व ने ऐसा करने का किसी तरह संकेत भी दिया होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इस पर नाराजगी भी प्रकट की है। अमित शाह ने तो यहां तक कहा है कि अगर उनकी पार्टी के लोग इसमें शामिल पाए जाएंगे तो उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। तो क्या यह मान लिया जाए कि भाजपा के दोनों शीर्ष नेताओं की नाराजगी तथा हर ओर से इसकी आलोचना के बाद मूर्तियां गिराने का काम आगे नहीं होगा? इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती। त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल एवं केरल में कम्युनिस्ट पार्टियों एवं भाजपा सहित पूरे संघ परिवार के बीच जिस तरह का टकराव रहा है उसमें दोनों के बीच सामान्य राजनीतिक प्रतिस्पर्धा नहीं है। दोनों के कार्यकर्ता एक दूसरे के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार करते हैं। वास्तव में लेनिन की मूर्तियां गिराया जाना इसका दुश्मनी राजनीति का ही प्रकटीकरण है। इसलिए आगे क्या होगा कहना कठिन है। इस तरह की लड़ाई लंबी चलने वाली है और इसके परिणामों की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि संघ-भाजपा तथा कम्युनिस्टों के बीच सीधा वैचारिक मतभेद है। दोनों पक्ष एक दूसरे के विचार तथा महापुरुषों से नफरत करते हैं। दोनों ओर एक दूसरे के खिलाफ सबसे ज्यादा साहित्य छापे गए हैं। इसका प्रभाव कार्यकर्ताओं के मानस पटल पर छाया रहता है। इसमें जब एक की विजय होती है तो कार्यकर्ता कुछ ज्यादा उत्साहित होते हैं। उन्हें लगता है कि अपने सबसे बड़े वैचारिक विरोधी को पराजित करने में हमें सफलता मिली है तो फिर उनके चिन्हों को हमें क्यों बनाए रखना चाहिए? यही अति उत्साह इस समय त्रिपुरा में लेनिन की मूर्तियों को गिराने का कारण बना होगा। ऐसा केवल भारत में नही हुआ है। 1990 के दशक में जब दुनिया भर से कम्युनिस्ट सत्ताओं का ध्वंस हुआ तो लेनिन सहित सारे नेताओं की प्रतिमाओं का भी भंजन किया गया। जिस रुस में बोल्शेविक क्रांति हुई और उसके हीरो लेनिन थे वहां भी उन्हें बख्सा नहीं किया। कम्युनिस्ट नेताओं की प्रतिमाओं के खिलाफ जनता के गुस्से की तस्वीरंे आज भी उपलब्ध हैं। वह कम्युनिस्ट शासन के प्रति जनता का स्वाभाविक विद्रोह था। आज भी रुस में बड़े लोगों की मांग है कि लेनिन के सुरक्षित रखे गए शव को दफना दिया जाना चाहिए। लेनिन को इतिहास में कैसे याद किया जाए इस पर दो राय होगी। उन्हांेने जिस तरह बोल्शेविक क्रांति का नेतृत्व किया वह इतिहास की एक मिसाल है। हालांकि उनके शासनकाल में सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करने के नाम पर हुई हिंसा और उत्पीड़न किसी लोकतांत्रिक व्यक्ति को स्वीकार नहीं हो सकता। विरोधियों की चुन-चुनकर हत्या कराना और उसमें निर्दोषों को भी बलि चढ़ा देना किसी आदर्श नेतृत्व का लक्षण नहीं हो सकता। बावजूद इसके जो लोग उनके विचार को मानते हैं उनका यह अधिकार है।

किंतु यह अलग से विचार का विषय है। यह भारत देश है। हमारे यहां कोई शासन सीधे जन विद्रोह से नहीं उखाड़ा जाता। बाजाब्ता चुनाव में जनता अपना मत देकर किसी को सत्ता से हटाती है तो किसी को सत्ता सौंपती है। शांतिपूर्ण तरीके से हुए सत्ता परिवर्तन में अपना वैचारिक गुस्सा प्रकट करने की भी सीमाएं हैं। आपके पास यह अधिकार तो है कि आप सत्ता में आने के साथ उनकी विचारधारा के आधार पर अपनाई गई नीतियों को नकारें और उसकी जगह अपनी विचारधारा की नीतियों को लागू करने की कोशिश करें। किंतु यह अधिकार नहीं है कि शासन या शक्ति के बल पर किसी विचार या राजनीति के प्रतीक पुरुषों का अपमान करें। ऐसी राजनीति हमें कहीं का नहीं रखेगी। हिंसा से हिंसा पैदा होती है तथा घृणा से घृृणा। संसदीय राजनीति में हिंसा और राजनीतिक घृणा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। भाजपा एवं संघ के उत्साही कार्यकर्ताओं को समझना होगा कि सत्ता के साथ जिम्मेवारी आती है। सत्ता से बाहर रहकर लड़ी जाने वाली राजनीतिक लड़ाई और सत्ता में आने के बाद के राजनीतिक व्यवहार में मौलिक अंतर होता है। त्रिपुरा के लोगों ने 25 वर्ष की कम्युनिस्ट सत्ता को उखाड़कर अपना गुस्सा दिखा दिया है। इसके बाद आपकी जिम्मेवारी है कि जनाभिमुखी सरकार चलाकर अपना स्थायी जनाधार विकसित करें। इसके आधार पर ही आप कम्युनिस्टों को वैचारिक रुप से कमजोर कर सकते हैं।

भाजपा को जनता ने शासन सौंपा है तो जाहिर है वे कम्युनिस्ट शासन से असंतुष्ट थे। आपके पक्ष मंें इस समय जनमत है। सरकार में जाने वाले लोग अपने कार्यों से जनता का दिल जीतने की कोशिश करें तथा सरकार से बाहर जो नेता कार्यकर्ता हैं वे अपने व्यवहार से। मूर्तियां तोड़ना इस व्यवहार में नहीं आ सकता। इससे तो संदेश जाएगा कि आप सत्ता की ताकत आने के बाद फासीवादी व्यवहार कर रहे हैं। वैसे भी मूर्तियां तोड़ने से किसी विचारधारा का अंत नहीं हो सकता है। इसके विपरीत उनके प्रति जनता के ऐसे वर्ग की सहानुभूति पैदा होती है जो किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े। यही नहीं जो कार्यकर्ता अपनी पार्टी से नाराज होते हैं उनके अंदर भी ऐसी घटनाओं से गुस्से का भाव पैदा होता है एवं अपनी पार्टी के साथ आ जाते हैं। इसलिए मूर्तियां हटाने या तोड़ने के राजनीतिक जोखिम भी बहुत बड़े हैं। जो मूर्तियां बाजाब्ता प्रशासन के आदेश से स्थापित हुईं हैं उनको गिराया जाना या तोड़ा जाना अपराध तो है ही। हालांकि कम्युनिस्टों की समस्या रही है कि जहां भी उनका शासन स्थापित हुआ उन्होंने कहीं राष्ट्रपति महात्मा गांधी की एक मूर्ति नहीं लगाई, सरदार पटेल की नहीं लगाई, पश्चिम बंगाल में विवेकानंद का इतना सम्मान है लेकिन उनकी भी कोई प्रतिमा कम्युनिस्टों के प्रयास से नहीं लगा। इसकी लंबी श्रृंखला है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि हम उनका शासन समाप्त होने के बाद मूर्तियों का भंजन करने लगें।

इसकी प्रतिक्रिया भी देख लीजिए। कुछ समय के लिए ऐसा माहौल बना मानो देश में मूर्तियां तोड़ने की कोशिश करने का अभियान सा चल पड़ा है। कोलकाता में भाजपा की पूर्वज जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मूर्ति को तोड़ने की कोशिश हुई। उसका कुछ अंश टूटा भी। इसे त्रिपुरा में हुई घटना की प्रतिक्रिया ही मानी जाएगी। इसके पहले मुखर्जी की मूर्ति के साथ कभी दुर्व्यवहार नहीं हुआ। अगर पहली बार हुआ है तो इसे त्रिपुरा की घटना से जोड़कर देखा ही जाएगा। श्यामाप्रसाद मुखर्जी केवल जनसंघ के संस्थापक ही नहीं थे, वे स्वतंत्रता सेनानी थे तथा आजादी के बाद नेहरु के मंत्रिमंडल के एक सदस्य भी थे। तमिलनाडु में पेरियार की मूर्ति तोड़ी गई। पेरियार का दर्शन बहुत लोगों को स्वीकार नहीं होगा। लेकिन उन्होंने तमिलनाडु की राजनीति बदल दी। उत्तर प्रदेश में मेरठ के निकट बाबासाहब अम्बेदकर की मूर्ति तोड़ दी गई। यह कैसी प्रवृत्ति चल रही है? यह कई मायनों में भयभीत करता है। इनमें से अनेक के विचारों से हमारा मतभेद हो सकता है, पर सब हमारे महापुरुष हैं। हमारे अंदर इतनी असहिष्णुता आ जाए कि हम वैचारिक असमतियों वाले महापुरुषों की मूर्तियां तक सहन नहीं कर पाएं तो फिर देश जाएगा कहां? हम कैसा समाज बनाना चाहते हैं? भारतीय समाज की पहचान सहिष्णुता की रही है। वैचारिक असहमतियों के बीच एक दूसरे का सम्मान हमारा संस्कार है। इस संस्कार को बनाए रखने से ही भारत भारत रहेगा। मूर्तियों का भंजन करने वाले इसे समझें तथा भविष्य में ऐसा करने से बाज आएं। संगठनों का भी दायित्व है कि उनको संभालें। साथ ही प्रशासन भी कानून के अनुसार उनके खिलाफ कार्रवाई करे।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 09811027208

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -

वार त्यौहार