उन्नीसवीं सदी के आरम्भ और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के मध्यकाल में दुनिया भर में अनेक विज्ञान-कथाएं लिखी गयीं, जिन्होंने न केवल भविष्य के विज्ञान को परिलक्षित किया बल्कि समाज के वैज्ञानिक विकास को नियोजित दिशा भी दी. एडगर एलन पो (1809-1849) ने अमेरिका में विज्ञान-कथा लेखन की शुरूआत की. जासूसी उपन्यासों के प्रणेता अंग्रेज़ी लेखक सर आर्थर कानन डायल के उपन्यासों का प्रभाव आधुनिक विज्ञान-कथाओं पर पड़ा.
सन् 1820 में पश्चिमी देशों में प्रभावी विज्ञान-कथा लेखन आरम्भ हुआ. आगे 1898 में प्रसिद्ध विज्ञान-कथा लेखक एच.जी. वेल्स का विश्व प्रसिद्ध विज्ञान उपन्यास ‘द वार ऑव द वल्डर्स’ छपा, वेल्स ने ही ‘द टाईम मशीन’ और ‘द इनविजिविल मैन’ लिखकर इस क्षेत्र में धूम मचायी. जार्ज ऑरवेल का प्रख्यात विज्ञान उपन्यास ‘1984’ सन् 1949 में प्रकाशित हुआ. इसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. जूल्स वर्न (1829-1905) के ‘20,000 लीग्स अण्डर सी’, ‘जर्नी टू द सेंटर ऑव अर्थ’ उपन्यास प्रौद्योगिकी के विकास की सटीक भविष्यवाणी के रूप में प्रसिद्ध हुए. विज्ञान-कथाओं में व्यंग्य उपन्यास में आदर्श विश्व समाज की कल्पना की गयी है.
जर्मन खगोलविद् केपलर (1571-1630) ने चांद की स्वप्न-यात्रा का रोचक वर्णन किया था. वैसे आधुनिक विज्ञान फैंटसी (कल्पना) का जन्म 1705 में डेनियल डेफी के ‘द कंसोलिडेटर’ के रूप में हुआ. इसमें अंतरिक्ष यात्रा का कथानक लिया गया था. तत्पश्चात वेल्स के नवआयामी प्रस्तुतीकरण के बाद आर. एल. स्टीवेंसन के ‘द स्टोरी ऑव डा. जेकिल एंड मि. हाइड’ की सराहना हुई. 19वीं सदी के आरम्भ में कृत्रिम जीवोत्पत्ति के कथानक पर ‘फ्रेंकेस्टीन’ लिखा गया, लेखिका थीं- मैरी शेली. एल्डूस हक्सले ने 1932 में परखनली शिशु पर उपन्यास लिखा. आणुविक जीव विज्ञान पर डेविड शेरविक के ‘वार्न इन हिज ओन इमेज’, ‘क्लोनिंग ऑव द मैन’ प्रसिद्ध हैं. कारसेन की कृति ‘द साइलेंट स्प्रिंग, तथा डेविड शिल्तजर की ‘द प्रोफेसी’ प्रदूषण पर लिखी गयी हैं.
सांपों के जीवन पर ‘द स्नेक’ 1978 में जौन गोडी ने लिखी. आधुनिक युग के प्रसिद्ध विज्ञान कथाकार हैं- रे ब्रैडवरी, पाल एण्डरसन, यूरी लीन्स्टर, राबर्ट हीनलेन, जॉन क्रिस्टोफर आदि. 1979 में अंग्रेज़ी में एक विज्ञान कथा-संग्रह निकला है- ‘साइंस फिक्शन- इंग्लिश एंड अमेरिकन, इसमें जोत हालडमैन, फ्रेड्रिक पोल, आर्थर सी क्लार्क, हैरी हैरिसन आदि शामिल हैं, जिन्होंने अधिकतर अंतरिक्ष, समय-यात्रा और ऐसी ही विधाओं पर कथाएं लिखीं. महान विज्ञान कथाकार आईजक आसिमोव के अनुसार विज्ञान-कथा मानव समाज अथवा व्यक्ति विशेष पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रत्याशित प्रभावों के प्रति बुद्धिजीवियों और रचनाकारों के मन में उभरने वाली साहित्यिक प्रतिक्रिया है. इसमें वर्णित होनेवाली दुनिया हमारी अपनी जानी पहचानी और परिचित दुनिया नहीं है, बल्कि आने वाली एक दुनिया हो सकती है. अब जैसे जार्ज ऑरवेल ने अपने मशहूर उपन्यास ‘1984’ में दुतरफा संवाद वाले टीवी जैसी जुगत की कल्पना कर ली थी, भले ही आज भी अपना टीवी दुतरफा न हो पाया हो, कम्प्यूटर तो दुतरफा हो चला है. यह दूर की कौड़ी ऑरवेल 1939 में ही अपने उपन्यास में इंगित कर चुके थे. फ्रांसीसी रचनाकार जूल्स वेर्न ने चांद की सैर का वर्णन 1860 में ही अपने उपन्यास ‘फ्राम अर्थ टू मून’ में कर डाला था, जो सौ सालों बाद एक हकीकत बना. यह है विज्ञान-कथा की सार्वकालिक महत्ता. मगर यहां भारत में और खासकर हिंदी में इसे जो आदर मिलना चाहिए था, वह अभी नहीं मिल सका है.
ऐसा इसलिए भी है कि भारतीय साहित्यकार इस विधा को शुरू से ही गम्भीरतापूर्वक न लेकर इसे फंतासी, अजीबोगरीब कहानियों, जादू टोने, बच्चों की कहानियों के इर्द-गिर्द एक हाशिये का साहित्य ही मानते रहे और इसे उच्च स्तरीय, मानव समाज के करीब के साहित्य की श्रेणी से अलग हल्का-फुल्का साहित्य मानने के सहज बोध की अभिजात्य सोच से ग्रस्त रहे हैं. इसके पीछे इस विशिष्ट विधा की उनकी अपनी समझ की कमी ही मुख्य कारण रही है- जबकि आचार्य चतुरसेन शात्री ने एक विज्ञान-कथा उपन्यास ‘खग्रास’ लिखकर तत्कालीन हिंदी साहित्यकारों को इस विधा की ओर उन्मुख किया था और उनकी बेरुखी के प्रति उन्हें चेताया भी था. डॉ. सम्पूर्णानंद ने ‘पृथ्वी से सप्तर्षि मंडल’ लिखकर भी साहित्यकारों में इस विधा की ओर रुचि जगायी थी. सन 1924 में राहुल सांकृत्यायन ने ‘बाइसवीं सदी’ लिखा …मगर ये विरले युग द्रष्टा रचनाधर्मी थे …यह दुर्भाग्य ही रहा कि इन रचनाओं ने भी साहित्यकारों में इस विधा के प्रति अपेक्षित रुचि नहीं उत्पन्न की.
विज्ञान-कथा में फिक्शन और फंतासी दोनों का समावेश है. फिक्शन लातिनी शब्द है जिसका मतलब आविष्कार करना होता है और फंतासी यूनानी शब्द है जिसका अर्थ कल्पना करना है. अंग्रेज़ी साहित्य में तो साइंस फिक्शन और साइंस फंतासी की अलग-अलग पहचान है, मगर हिंदी में अभी तक इन दोनों उप विधाओं के लिए ‘विज्ञान कथा’ शीर्षक से ही काम चलाया जा रहा है. विज्ञान फिक्शन में विज्ञान के ज्ञात और मान्य नियमों में फेरबदल की कतई गुंजाइश नहीं रहती मगर फंतासी में ऐसा कोई बंधन नहीं रहता. विज्ञान कल्पना के नाम पर आप फंतासी में जी भर के बेसिर पैर की हांक सकते हैं. खूब वैज्ञानिक गप्पबाजी कर सकते हैं, विज्ञान के ज्ञात नियमों को तोड़-मरोड़ सकते हैं. यदि आप प्रकाश की गति से भी तेज़ चलाने की कोई जुगत निकाल लेते हैं तो यह विज्ञान फंतासी का नमूना है और यदि मौजूदा अंतरिक्ष यानों से अपने सौर मंडल की सैर पर नौ दिन चले अढाई कोस की रफ़्तार से भी चलकर कोई नया तीर मार लेते हैं, जैसे चांद पर हीरे की कोई खान खोज लेते हैं, तो यह विज्ञान फिक्शन कि कैटेगरी में आयेगा. एक और बात भी है- फिक्शन का आशय नयी सूझ या विचार से भी है और फंतासी का अर्थ चित्रांकनों /इमजेज से है.
विज्ञान-कथा और आम फंतासी का एक अंतर इस बात से भी स्पष्ट हो सकता है कि अगर आप आज की प्रौद्योगिकी के स्तर में कोई परिकल्पित परिवर्तन करके उससे उत्पन्न किसी एक नये समाज /दुनिया से रूबरू हो जाते हैं तो वह विज्ञान-कथा की एक सम्भावित दुनिया होगी, मगर यदि आज की प्रौद्योगिकी में बदलाव के बाद भी आप किसी कथित दुनिया का दर्शन नहीं कर पा रहे हैं तो वह विज्ञान फंतासी नहीं है बस एक स्वैर-कल्पना, घोर फंतासी या मिथकों की दुनिया होगी. आशय यह कि आज हम मौजूदा किसी भी तकनीक/प्रविधि में बदलाव से विश्वकर्मा कृत मिथकीय संरचनाओं को मूर्त रूप नहीं दे सकते, स्वर्ग नरक को साकार नहीं कर सकते- इसलिए ये विवरण महज फंतासी हैं. निष्कर्षतः विज्ञान फंतासी नहीं है.
सोवियत रूप में भी विज्ञान-कथा लेखन काफी विकसित है. रूसी विज्ञान लेखन में एक समर्पित नाम है- एलेक्जेंडर वेलियेव, वेलियेव की अंतरिक्ष कथाएं- ‘द एयरशिप स्टार केट’ एवं ‘स्काई गेस्ट’ प्रसिद्ध हुई. 1935 में उन्होंने आणुविक ऊर्जाघर- ‘द मिरैकुलस आई’ नामक उपन्यास लिखा. परमाणु विध्वंस विषय को लेकर रूस में अनेक वैज्ञानिक उपन्यास लिखे गये, जिनकी अमेरिका के आलोचकों ने आलोचना
की है.
विश्व की प्रथम विज्ञान-कथा पत्रिका है ‘अमेज़िंग स्टोरीज़. इसके सम्पादक ‘ह्यूगो ग्रन्सबैक विद्युत इंजीनियर थे. उन्होंने 1928 में अमेजिंग स्टोरीज पत्रिका शुरू की थी.
हिंदी में आधुनिक विज्ञान उपन्यास की शुरूआत 1953 से हुई जब डा. सम्पूर्णानंद ने ‘पृथ्वी से सप्तिर्ष मण्डल’ नामक लघु उपन्यास लिखा. उन्होंने लिखा है, ‘हिंदी में वैज्ञानिक कहानी लिखने का चलन अभी नहीं है और हिंदी वाङ्मय में यह बड़ी कमी है.’ 1956 में एक बड़ा वैज्ञानिक उपन्यास, डा. ओम प्रकाश शर्मा ने प्रस्तुत किया, नाम था- मंगल यात्रा. समीक्षकों ने लिखा है कि निस्संदेह यह हिंदी में पहला वैज्ञानिक उपन्यास है, जो विदेशी लेखकों की टक्कर का है. उन्होंने जीवन और मानव, पांच यमदूत और समय के स्वामी आदि उपन्यास लिखे हैं. यहां आचार्य चतुरसेन का उपन्यास ‘खग्रास’ तथा राहुल सांकृत्यायन का उपन्यास ‘विस्मृति के गर्भ में’ भी उल्लेखनीय हैं.
सरस्वती के जुलाई 1900 अंक में केवल प्रसाद सिंह की विज्ञान कथा ‘चद्र लोक की यात्रा’ तथा 1908 के एक अंक में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की कहानी ‘आश्चर्यजनक घंटी’ प्रकाशित होने का उल्लेख है. विशाल भारत में श्रीराम शर्मा और बनारसीदास चतुर्वेदी की विज्ञान कथाएं प्रकाशित हुईं. 1918 में शिव सहाय चतुर्वेदी ने जूल्स वर्न की ‘फाइव वीक्स इन ए बैलून’ का ‘बैलून विहार’ नामक अनुवाद किया. 1930 के आसपास ‘सरस्वती’ और ‘विशाल भारत’ में डा. नवल बिहारी मिश्र, डा. ब्रजमोहन गुप्त और यमुनादत्त वैष्णव ‘अशोक’ की विज्ञान कथाएं प्रकाशित हुईं.
सन् 1949 में अशोक जी ने ‘विशाल भारत’ में आंख प्रतिरोपण पर ‘चक्षुदान’ उपन्यास धारावाहिक लिखा. 1947 में उनका संग्रह ‘अस्थिपिंजर’ छपा, जिसमें वैज्ञानिक की पत्नी, दो रेखाएं तथा अस्थिपिंजर नामक तीन कथाएं शामिल थीं. उनका दूसरा संग्रह है- अप्सरा का सम्मोहन. उनके वैज्ञानिक उपन्यास हैं- अन्न का आविष्कार (1956), अपराधी वैज्ञानिक (1968), हिम सुंदरी (1971).
हिंदी विज्ञान-कथाओं में चिकित्सक डॉ. नवल बिहारी मिश्र का विशेष योगदान रहा. उन्होंने ‘सरस्वती’ और ‘विशाल भारत’ में विज्ञान-कथाएं लिखीं. 1960 के दशक में उन्होंने ‘विज्ञान लोक’ तथा ‘विज्ञान जगत’ में नियमित कथाएं लिखीं. उनका उपन्यास ‘अपराध का पुरस्कार’ 1962-63 में विज्ञान जगत में धारावाहिक प्रकाशित हुआ. उनके प्रमुख कथा-संग्रह हैं- अधूरा आविष्कार, आकाश का राक्षस, हत्या का उद्देश्य उनकी प्रमुख कहानियां हैं- शुक्र ग्रह ही यात्रा, पाताल लोक की यात्रा, उड़ती मोटरों का रहस्य, सितारों के आगे और भी है जहां, अदृश्य शत्रु आदि.
सन् 1950 में विष्णु दत्त शर्मा ने प्रतिध्वनि तथा आकर्षण आदि कथाएं लिखीं. रमेश वर्मा ने अंतरिक्ष स्पर्श (1963), सिंदूरी ग्रह की यात्रा, अंतरिक्ष के कीड़े (1969) लिखीं. 1976 में कैलाश शाह का कथा संग्रह मृत्युजयी प्रकाशित हुआ. उन्होंने दानवों का देश, अंतरिक्ष के पास, मकड़ी का जाल उपन्यास भी लिखे और हिंदी विज्ञान लेखन में अपना उल्लेखनीय स्थान बनाया.
डॉ. रमेश दत्त शर्मा ने उच्च स्तरीय कथाएं लिखी हैं. प्रमुख हैं- प्रयोगशाला में उगते प्राण (ज्ञानोदय 1967), हरा मानव (1981), हंसोड़ जीन (विज्ञान प्रगति, 1984), आदि. उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान, मनीला (फीजी) में रहकर, धान के बारे में रोचक जानकारी देने वाली एक यथार्थपरक विज्ञान कथा लिखी, नाम है- धान की कहानी. इसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है. प्रेमानंद चंदोला की विज्ञान कथाएं, चीखती टप-टप और खामोश आहट में संग्रहीत हैं. राजेश्वर गंगवार ने- शीशियों में बंद दिमाग, केसर ग्रह, साढ़े सैंतीस वर्ष, सप्तबाहु आदि कथाएं लिखीं.
श्री देवेंद्र मेवाड़ी की वैज्ञानिक उपन्यासिका 1979 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपी. उन्होंने क्रायोबायलोजी पर ‘भविष्य’ नामक कथा लिखी. अरविंद मिश्र की कहानियां, गुरु दक्षिणा (अमृत प्रभात, 1985), मिस रोबिनो, एक और क्रौंच वध (धर्मयुग 1989), देहदान (जनसत्ता, अगस्त 1989) छपीं. चांद का मुन्ना (आनंद प्रकाश जैन), हरे जीवों के चंगुल में (राममूर्ति), काल भैरव का कोप (मनोहर लाल वर्मा), रोबो मेरा दोस्त (शुकदेव प्रसाद) आदि कथाएं भी उल्लेखनीय हैं. लेखक ने भी ज्ञान का तबादला (वैज्ञानिक, जुलाई-सितम्बर 1986), वैज्ञानिक पत्नी की मुसीबत (जिज्ञासा, जुलाई-दिसम्बर 1988), डाल-डाल ः पात-पात, रोबोटों की दुनिया, प्रदूषण महात्म्य (वैज्ञानिक, जनवरी-मार्च 1982), वरदान (विज्ञान, नवम्बर 84-85), आदि विज्ञान कथाएं लिखीं.
राजेश जैन की महत्त्वपूर्ण कहानियां हैं -अंधा सपना, प्रोग्रामिंग (वागर्थ तथा कथा उर्जा डॉट कॉम ), मन मोबाइल (ज्ञानोदय), निद्राखोर (हंस), महा मशीन (हंस), अंधी रौशनी (धर्मयुग), स्वर्ण पुरुष(हंस) रिमोट कंट्रोल आदि.
समयानुसार अनेक विज्ञान कथाओं और उपन्यासों के हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हुए. प्रमुख कहानी पत्रिका सारिका ने सितम्बर 1985 अंक में अनेक हिंदी कथाओं के साथ ही अरुण साधु लिखित ‘विस्फोटक’ (मराठी) और मोहन संजीवन लिखित ‘मैं मरना चाहता हूं’(तमिल) के हिंदी अनुवाद प्रकाशित किये थे. रासेल कासेन के उपन्यास ‘द साइलेंट स्प्रिंग’ का प्रेमानंद चंदोला द्वारा किया गया अनुवाद, नवनीत में छपा. गुणाकर मुले ने आसिमोव का ‘शिशु का रोबोट’ तथा विक्टर कोमारोव का ‘दूसरी धरती’ तथा रमेश दत्त शर्मा ने गोर विडाल के ‘क्षुद्रग्रह’ उपन्यासों का हिंदी रूपांतर किया.
बांङ्ला से सत्यजित राय की 13 विज्ञान कहानियों का हिंदी अनुवाद किया गया है. समीर गांगुली का बाल वैज्ञानिक उपन्यास ‘जेड जुइंग की डायरी’ मेला पत्रिका में, समरजितकर की कहानी ‘एक यंत्र की खातिर’ (धर्मयुग 1984), डा. जयंत विष्णु नार्लीकर की- अक्स, धूमकेतु (धर्मयुग), अरुण साधु की ‘एक आदमी के उड़ने की कहानी’ (धर्मयुग 1988) में प्रकाशित हुई. डा. बाल फोंडके की कहानियां, तख्ती टूट गयी और अनोखा खून पराग में तथा अन्य कहानियां विज्ञान प्रगति में छपी हैं. दिलीप साल्वी की अंग्रेज़ी कहानियों के हिंदी अनुवाद भी पराग में रोबोट चालाक होते जा रहे हैं, रोबोट डींगमार होते हैं, नामक शीर्षकों के साथ प्रकाशित हुए हैं. प्रख्यात विज्ञान कथाकार डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर की बहुत ही रोचक और रोमांचक विज्ञान कथा ‘अंतरिक्ष में विस्फोट’ धारावाहिक रूप से धर्मयुग में प्रकाशित हुई. प्रौद्योगिकी को आधार बनाकर वैचारिक धरातल पर स्तरीय वैज्ञानिक लेखन में जीतेंद्र भाटिया एक महत्त्वपूर्ण नाम है.
प्रोफेसर यशपाल का नाम आज भारत में व्यावहारिक विज्ञान शिक्षण का पर्याय है. उनके अनुसार विज्ञान और तकनीक व्यक्ति की जिज्ञासाओं को शांत करने और जीवन में निरंतर आगे बढ़ने का एक सशक्त माध्यम है. आज देश को बेसिक साइंस की ज़रूरत है. माना जाता है कि वस्तुतः भारत में प्राचीन काल में विज्ञान का ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था, लेकिन अनेक संस्कृतियों में उतार-चढ़ाव और सामाजिक उथल-पुथल के कारण उसके कुछ अवशेष ही रह गये. पुराणों, उपनिषदों, आदि ग्रंथों में विज्ञान के ऐसे पहलुओं पर कथाएं उपलब्ध हैं जिनको आज आधुनिक विज्ञान का समर्थन प्राप्त है. इन ग्रंथों में वैज्ञानिक चमत्कारों का तो वर्णन है, पर चमत्कार की तकनीकों के बारे में वे प्रायः मौन हैं. शायद इसीलिए इन ग्रंथों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता सीधे स्वीकार नहीं की जा सकी.
इनमें इंद्र के वज्र, शिव के पाशुपत, विष्णु के नारायणशात्र, ब्रह्मा के ब्रह्मात्र, आदि विनाशकारी अत्रों का वर्णन है. ब्रह्मात्र के बारे में महाभारत में जो वर्णन किया गया है वह परमाणु अत्रों से काफी समानता रखता है. ब्रह्मात्र के बारे में लिखा है, ‘इसे चलाने पर हजारों सूर्यों की भांति बिजलियां चमकने लगती थीं, इसके प्रभाव से धूल भरी आंधियां चलती थीं, और यह धूल लम्बे समय तक छायी रहती थी, ब्रह्मात्र गिरने वाले स्थान पर अनेक वर्षों तक खेती नहीं होती थी.’ एक अन्य कथा में भगवान शंकर के पुत्र गणेश का सिर कट जाने के बाद उनके शरीर में नवजात हाथी का सिर प्रत्यारोपित करने का वर्णन है. कौरवों के जन्म की कथा भी विचित्र है, 100 पुत्र माता गंधारी के गर्भ से भ्रूण निकाल कर उसे विभक्त करके 100 अलग अलग घड़ों में विकसित किये जाने का वर्णन है, जिसे आज परखनली शिशु तकनीक ने सम्भव कर दिया है. इसी प्रकार रक्तबीज से पूर्ण शरीर बनने की कहानी की तुलना क्लोनिंग से की जा सकती है.
प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक कार्ल सागान ने लिखा है, कि मिथक में विज्ञान ढूंढ़ना हो तो भारत के पुराणों को पढ़ना चाहिए. यह प्रायः निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है कि हिंदी में आधुनिक विज्ञान कथाएं पश्चिमी अंग्रेज़ी विज्ञान कथाओं से प्रभावित रहीं, तथापि भारतीय पुराणों में वर्णित कथाओं का भी हिंदी विज्ञान कथाओं पर प्रभाव नकारा नहीं जा सकता.
भारत के महान गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय (1150 ई.) के ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि’ के अंतर्गत ‘गोलाध्याय’ में बतायी गयी वैज्ञानिक लेखन की विशेषताओं का उल्लेख करना चाहेंगे जो इस प्रकार हैं-
– वैज्ञानिक साहित्य की भाषा अधिक कठिन नहीं होनी चाहिए.
– उसमें अनावश्यक विवरण नहीं होने चाहिए.
– उसमें मूल सिद्धांतों की सही-सही और सटीक व्याख्या की जानी चाहिए.
– उसमें भाषागत स्पष्टता और गरिमा का निर्वाह किया जाना चाहिए.
– उसमें विषय को पर्याप्त उदाहरणों द्वारा पुष्ट किया जाना चाहिए.
आज विज्ञान के दौर में बच्चों को विज्ञान की बातें आसानी से समझाने के लिए विज्ञान कथाओं का सहारा लिया जाने लगा है. विज्ञान कथाएं समाज में न केवल विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए, बल्कि सामाजिक परिवर्तनों और भविष्य की तस्वीर उभरने में भी उपयोगी हैं. रूसी विज्ञान कथा लेखक दिमित्री बाइलेंकिन लिखते हैं, ‘इसका महत्त्व नहीं है कि विज्ञान कथाएं मनोरंजन करती हैं या नहीं, महत्त्व तो इस बात का है कि वे लोगों को युग की जटिलता से आगाह करा सकती हैं, और उनकी प्रवृत्ति को मोड़ भी सकती हैं, विज्ञान कथाओं का सामाजिक उद्देश्य व्यापक एवं उत्तरदायित्व पूर्ण है, क्योंकि इनमें भविष्य का दर्शन किया जा सकता है.’ दरअसल विज्ञान-कथाएं विज्ञान के पाठकों के साथ ही विज्ञान न जानने वालों को भी अपनी ओर आकिर्षत करती हैं, इसलिए विज्ञान साहित्य की इस विशा में विज्ञान के प्रचार की अद्वितीय क्षमता निहित है.
विज्ञान शिक्षक श्री शचींद्र नाथ चक्रवर्ती अपने विद्यार्थियों को विज्ञान, बोलचाल के रूप में समझाते थे, और गृहकार्य के रूप में प्रायः दर्पण और लेंस के बीच एक संवाद जैसी बातें लिखने को देते थे. स्वाभाविक है बच्चों में इस विधा से विज्ञान पढ़ने का शौक चौगुना हो गया था. इसी प्रकार उन्होंने ‘धातुओं की सभा’ लिखा, जिसका मंचन इलाहाबाद में किया गया. विज्ञान और लेखन की उर्वरा शक्ति को विकसित करने के लिए इस परम्परा को आगे बढ़ाया जा सकता है.
विज्ञान-कथा लिखने में प्रायः दो खास कठिनाइयां आती हैं, पहली है पृष्ठभूमि. सामान्य कहानी में कथानक में प्रयुक्त शब्दों की पृष्ठभूमि नहीं बनानी पड़ती, जैसे, यदि वह रिवाल्वर लिखता है, तो पाठकों के सामने तत्काल रिवाल्वर का दृश्य घूम जाता है, परंतु विज्ञान कथा में ऐसा नहीं है, विज्ञान कथाकार यदि कथा में पातालवाहन नामक काल्पनिक शब्द का प्रयोग करे तो उसे बताना होगा कि पातालवाहन उनकी कल्पना में क्या है, कैसा बना है तथा काम कैसे करता है, तभी पाठक उस कथा को सही अर्थों में हृदयंगम कर सकेगा, अन्यथा नहीं. दूसरी कठिनाई की ओर संकेत करते हुए ऑसिमोव लिखते हैं कि विज्ञान-कथा का अधिकांश भाग तो अपरिचित परिवेश से पाठकों का तादात्म्य स्थापित करने में ही खर्च हो जाता है, जिसके कारण विज्ञान- कथा में पात्रों का चारित्रिक विकास प्रायः सम्भव नहीं हो पाता है. हिंदी विज्ञान-कथा लेखन में इस पर ध्यान दिया जाना निस्संदेह महत्त्वपूर्ण होगा.
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