Tuesday, November 26, 2024
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पर्यावरण वैज्ञानिक हैं छत्तीसगढ़ के आदिवासी

छत्तीसगढ़ – झारखंड की सीमा पर, झारखंड से मात्र 12 किलोमीटर दूरी पर एक सुंदर सा शहरी गांव है –  जशपुर। यहां का भगवान श्रीराम का ‘सोग्रा – अघोरी मंदिर’ जितना प्रसिद्ध है, उतना ही आशिया का दूसरा बड़ा चर्च, जो कुनकुरी में है, प्रसिद्ध हैं। जशपुर यह साफ, सुथरा, स्वच्छ ऐसा जनजातीय जिला मुख्यालय है। जशपुर के पास से कोतेबिरा ईब नदी बहती है। स्वच्छ, शुद्ध, निर्मल जल से भरपूर..!

कुछ वर्ष पहले जशपुर नगर में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का ग्रीष्मकालीन श्रमानुभव शिविर लगा था। इस दौरान शिविरार्थी छात्र-छात्राएं स्नान करने इस नदी पर आए। वहां उन्हें एक दृश्य दिखा, जिसके कारण इन शिविरार्थियों का कौतूहल जागृत हुआ।

नदी के किनारे, ढोल – ढमाके लेकर कुछ जनजातीय ग्रामीण, उत्सव जैसा कुछ कर रहे थे। इनमें पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल थी। वह ढोल की थाप के साथ कुछ गीत भी गा रहे थे। जब ये छात्र-छात्राएं पास गएं, तो उन्हें दिखा कि उस जनजातीय समूह में, एक प्रौढ़ सा दिखने वाला व्यक्ति और एक महिला लोटे जैसे पात्र में रखा जल, उस नदी में डाल रहे हैं और नदी की पूजा कर रहे हैं।

आश्चर्य से यह सब क्रिया देखने वाले छात्र-छात्राओं के समूह में छत्तीसगढ़ी बोली जानने वाले छात्र भी थे। उन्होंने उन जनजातिय लोगों से पूछा, “आप यह सब क्या कर रहे हैं?”

नदी की पूजा करने वाले उसे बुजुर्ग व्यक्ति ने बड़े प्रसन्न चेहरे से उत्तर दिया, “मेरे बेटे का विवाह होने जा रहा है। इसलिए, हम नदी मां से अनुमति लेने और क्षमा मांगने आए हैं।”

छात्र समझ नहीं सके। उन्होंने फिर पूछा, “भला आपके घर होने वाले विवाह से नदी का क्या वास्ता? उसकी क्यों अनुमति लेना?”

उस बुजुर्ग व्यक्ति को शायद यह प्रश्न ही ठीक से समझ में नहीं आया। ‘कुछ भी बेतुका प्रश्न आप पूछ रहे हैं’ ऐसा भाव लेकर उसने कहा,
“क्यों नहीं? *हमारे यहां विवाह होने जा रहा है। मंगल प्रसंग है। जात – बिरादरी से अनेक लोग आएंगे। दूर-दूर से आएंगे। पानी के लिए हम सब नदी मां पर ही निर्भर है। इसलिए इस पूरे विवाह प्रसंग मे हम नदी मां का ज्यादा जल प्रयोग करेंगे। तो नदी मां की अनुमति लेनी तो बनती है ना? और ज्यादा जल का प्रयोग होगा इसलिए क्षमा याचना भी। यह हमारी किसी भी मंगल प्रसंग पर निभाने वाली परंपरा का अंग हैं।”*

सुनने वाले छात्र-छात्राएं निःशब्द..!

*नदियों का चाहे जैसा दोहन करने वाले, उन्हें प्रदूषित करने वाले, पानी का अपव्यय करने वाले हम लोग। और आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी, विनम्रता पूर्वक, अतिरिक्त जल के लिए नदी मां की अनुमति मांगने वाले यह लोग..!*

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संयोग से दूसरा प्रसंग भी जशपुर के पास का ही हैं। उन दिनों वनवासी कल्याण आश्रम के अखिल भारतीय अध्यक्ष जगदेवराम जी उरांव थे। वे छत्तीसगढ़ में कार्यकर्ताओं के साथ जीप में किसी प्रवास पर निकले थे।

चलते-चलते काफी समय हो गया था। मार्च महीने के शुरुआती दिन थे। गर्मी बढ़ रही थी। अतः एक छायादार पेड़ के नीचे जीप रोकी गई। जगदेवराम जी और कार्यकर्ता नीचे उतरे। इतने में एक कार्यकर्ता का ध्यान उस पेड़ पर गया। आम का पेड़ था। भारी संख्या में कच्चे आम पेड़ पर लटक रहे थे। एक कार्यकर्ता ने पास में पड़ी लकड़ी से कुछ आम तोड़े, उन्हें साफ किया और खाने के लिए जगदेवराम जी और अन्य कार्यकर्ताओं को दिए।

कार्यकर्ता वो कच्चे आम खाने लगे। किंतु जगदेवराम जी ने उन्हें खाने से मना किया। कार्यकर्ताओं ने कारण पूछा, कि ‘आम के खट्टेपन के कारण तो जगदेवराम जी मना नहीं कर रहे हैं? या वह आम खाते ही नहीं?’

जगदेवराम जी ने बड़े ही सहज भाव से कहा, “आम तो मैं खाता हूं। मुझे अच्छे भी लगते हैं। किंतु अभी नहीं।

“क्यों, अभी क्या हुआ?” कार्यकर्ताओं ने पूछा।

“अभी आखा तीज (अक्षय तृतीया) नहीं हुई है ना। हम लोग आखा तीज से पहले आम नहीं खाते।” जगदेवराम जी का उत्तर।

कार्यकर्ता अचंभित। “आखा तीज का और आम खाने का क्या संबंध?”

*जगदेवराम जी फिर बड़े ही सहज भाव से बोलते हैं, “हम लोग मानते हैं कि आखा तीज से पहले आम में गुठली नहीं बनती। बिना गुठली के आम खाएंगे तो नये आम कहां से बनेंगे?”*

*कार्यकर्ता स्तब्ध..!*

*सहज रूप से भ्रूण हत्या करने वाला, भ्रूण हत्या को कानूनी जामा पहनाने वाला हमारा समाज। और आम में भी यदि गुठली नहीं बनती है तो उस ‘आम के भ्रूण’ को खाने से परहेज करने वाला जनजातीय समाज !*

*‘लोक’ के रक्त में पर्यावरण हैं..!*

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ऐसे अनेक उदाहरण है। अनगिनत हैं। यह जो जनजातीय समुदाय में ‘लोक’ बसता है, पर्यावरण यह उनके जीवन दर्शन का, जीवन शैली का ही हिस्सा हैं। इसलिए ‘पर्यावरण बचाओ’ जैसे नारे इनके समझ में नहीं आ सकते। इनको इसकी आवश्यकता ही नहीं हैं। मात्र मानव ही नहीं, तो सृष्टि के समस्त जीव जंतुओं का निसर्ग पर, प्रकृति पर अधिकार इनको मान्य हैं। इनकी रहन-सहन, इनकी सारी परंपराएं, यह निसर्ग पर, सृष्टि के चक्र पर आधारित है।

यह ‘लोक’ बिखरा हैं। पूरे देश में अनेक जनजातियों में बसता हैं। उनकी भाषा अलग हैं। खानपान अलग हैं। किंतु जीवन शैली में समानता हैं। परंपराओं में समानता है। कारण, यह सब निसर्ग के साथ तादात्म्य पाने वाले जीवन दर्शन को मानते हैं, जो हम सब का मूलाधार हैं। जल – जंगल – जमीन उनके लिए ईश्वर समान हैं।

*यही कारण हैं, कि यह निसर्ग चक्र को बहुत अच्छे से समझते हैं। कई बार हमारा मौसम विभाग, वर्षा का गलत पूर्वानुमान कर बैठता हैं। किंतु यह जो ‘लोक’ में रहने वाला जनजातीय समूह हैं, इन्हें इन सब बातों का सटीक पूर्वानुमान होता हैं।* कौवे अपना घोंसला कहां और कब बनाते हैं, इस पर हमारा ‘लोक’, वर्षा का सटीक अनुमान लगा लेता है। अगर कौवों ने मई माह में बबुल, सावर जैसे कटीले पेड़ों पर घोंसला बनाया, तो वर्षा कम होगी। किंतु यदि आम, करंज जैसे घने पेड़ों पर घोंसला बनाया, तो उस वर्ष बारिश अच्छी होगी यह निश्चित हैं। अगर घोंसला पेड़ पर पश्चिम दिशा में किया हैं, तो बारिश औसत होगी। यदि पेड़ के सबसे उंचे छोर पर घोंसला बनाया हैं, तो अकाल पड़ता हैं।

ऐसे अनेक सटीक अनुमान, ये सामान्य से दिखने वाले लोग लगाते हैं। इसका कारण हैं, इनकी पूरी जीवन शैली यह निसर्ग से एकरूप हैं। पर्यावरण पूरक हैं।

प्रकृति की इनकी जानकारी अद्भुत रहती हैं। प्रख्यात मराठी लेखक, जो वन अधिकारी भी रह चुके हैं, ऐसे मारुति चित्तमपल्ली ने बताया कि, ‘जिस वर्ष बारिश नहीं होती, अकाल पड़ता हैं, उस समय, बारिश होने से पहले ही, गर्भवती शेरनी डायसकोरिया के कंद खाकर गर्भपात कर लेती हैं। वर्षा नहीं, तो जंगल में घास नहीं उगेगी। और घास नहीं, तो स्वाभाविकता, तृणभक्षी प्राणी भी नहीं होंगे। इस परिस्थिति में शेरनी के शावकों को अपना भक्ष्य नहीं मिलेगा। खाने के लिए कुछ नहीं मिलेगा। उनकी भुखमरी होगी। यह सब सोच कर, वर्षा आने से पहले ही, जंगल की शेरनी अपना गर्भ गिरा देती हैं। जंगल, प्रकृति से एकाकार हुए लोग, यह देखकर अकाल की सटीक भविष्यवाणी करते हैं, और अपनी अलग व्यवस्था बना लेते हैं।

*यह सब अद्भुत हैं। विस्मयजनक हैं। प्रकृति के साथ इनकी तद्रुपता, हम सबके कल्पना से भी परे हैं।*

यहां ‘लोक’ का अर्थ मात्र जनजातीय समुदाय के लोग ही नहीं हैं। गांव में रहने वाले, आपके – हमारे शहर में बस्ती बनाकर रहने वाले, सभी लोग इस श्रेणी में आते हैं। इनके जीवन का स्पंदन, प्रकृति के स्पंदन के साथ समकालीन (synchronised) होता हैं। इसलिए इनको ‘पर्यावरण’ या ‘पर्यावरण बचाओ’ ऐसे शब्दों का अर्थ ही समझ में नहीं आता। कारण, पर्यावरण के साथ जीना यह तो इनके रोजमर्रा की जीवन पद्धति का अंग हैं। पर्यावरण इनके रक्त में हैं।

इस ‘लोक’ में रहने वाले अनेकों को मैंने देखा हैं, जो, ‘सस्ते मिल रहे हैं इसलिए’ प्लास्टिक का स्वीकार नहीं करते हैं।

इस लोक में रहने वाले लोग, अपनी मस्ती में जीते हैं। कृत्रिम चीजों से इन्हें तिरस्कार हैं। आज भी अनेक घरों के आंगन को यह गोबर से लिपते हैं। दीवारों पर चुने की पुताई करते हैं। इन्हें यह नहीं मालूम कि तुलसी का पौधा ऑक्सीजन छोड़ता है, जो मनुष्य प्राणी के लिए अंत्यत आवश्यक हैं। इन्हें यह भी नहीं मालूम कि यह औषधि पौधा हैं, और इससे निकलने वाले तेल में अनेक फाइटोकेमिकल्स होते हैं, जिसमें टैनिन, फ्लेवोनॉयड्स, यूजिनाॅल, कपूर जैसे मानव शरीर के लिए लाभदायक तत्व हैं। इन सब की जानकारी ना होते हुए भी, बड़ी श्रद्धा से, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी घर के आंगन में तुलसी का पौधा लगाते आए हैं, और घर का पर्यावरण, अनजाने में, शुद्ध कर रहे हैं।

इनकी अनेक परंपराएं, पद्धतियां अनोखी होती है, अनमोल होती है। जैसे, मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले में किसान, अरहर (red gram) के साथ धान (rice) भी उगाते हैं। इसके कारण मिट्टी का कटाव नहीं होता हैं। अगली बार, इन फसलों को बदलकर, महुआ और काले चने की फसल लेते हैं। इसके कारण जमीन की उर्वरकता बनी रहती है, बढ़ती हैं।

मिट्टी के गुणधर्म बनाए रखने की, उर्वरकता बढ़ाने की और मिट्टी का कटाव रोकने की, यह अत्यंत प्रभावी पध्दति हैं, जो पूर्णतः प्राकृतिक हैं। लाभदायक खेती करने का यह टिकाऊ (sustainable) मॉडल हैं। मध्य प्रदेश के क्षेत्रीय कृषि कार्यालय का इस ओर ध्यान गया। इसकी जानकारी लेकर ‘इंडियन काउंसिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च’ (ICAR) ने इस पद्धति को अपने ‘नेशनल एग्रीकल्चर टेक्नोलॉजी प्रोजेक्ट’ में शामिल किया। इस परियोजना का उद्देश्य, यूरिया पर निर्भरता कम करना हैं।

यह एक छोटा सा उदाहरण हैं। *ऐसी अनेक पद्धतियां, अनेक प्रक्रियाएं, अनेक परंपराएं आज भी ‘लोक’ में चल रही हैं। टिकाऊ विकास (sustainable development) के यह सब उदाहरण है, जिन्हें बडी मात्रा मे, प्रत्यक्ष धरातल पर उतारना आवश्यक हैं।*

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*इस ‘लोक’ में रहने वाले लोगों के पास परंपरागत ज्ञान का अकूत भंडार हैं। यह लोग प्राकृतिक दवाइयां से लेकर तो सब कुछ जानते हैं।*

प्रख्यात समाजसेवी और लेखक पद्मश्री गिरीश प्रभुणे एक अनुभव सुनाते हैं। उनका घुमंतू लोगों में बहुत काम हैं। सांप – नेवले की लड़ाई करवाने वाले, लड़ाने वाले घुमंतू लोगों ने उन्हें बताया, कि वह जहां जाते हैं, वहां सांप के जहर का उपाय ढूंढ निकालते हैं।

नेवले से लड़ाई करने वाले सांप जहरीले भी होते हैं। जहरीले सांप ज्यादा ताकत से, ज्यादा ऊर्जा से और ज्यादा जोश से नेवले पर आक्रमण करते हैं। इसके कारण सांप – नेवले की लड़ाई में रंग भरता हैं, और देखने वाले दर्शक, दो पैसे ज्यादा डालते हैं।

अब सांप यदि जहरीला हैं, तो सपेरे को कभी ना कभी तो काटेगा ही। नेवले को तो अनेकों बार काटेगा। इस जहरीले काट की दवाई, यह लोग जिस पद्धति से ढूंढते हैं, वह बड़ी रोचक होती हैं।

जिस नई जगह पर यह लोग जाते हैं, वहां पहुंचने पर सांप – नेवले की लड़ाई करवाते हैं। लड़ाई लड़ते हुए सांप, नेवले को काटता हैं। नेवले को खुला छोड़ा रहता हैं। ज्यादा काटने पर नेवला सरपट दौड़ लगाता हैं। उस नेवले के पीछे, इन घुमंतू लोगों के कुत्ते भागते हैं। यह कुत्ते नेवले को ट्रैक करते हैं। और कुत्तों के पीछे यह घुमंतू लोग भागते हैं।

भागते-भागते नेवला झाड़ियां ढूंढता है। ढूंढते ढूंढते वह किसी एक वनस्पति की पत्तियां चबा चबाकर खाता हैं। बस, यही है सांप के जहर पर दवाई..! यह घुमंतू लोग उस पौधे को अच्छे से देख कर रखते हैं। उस गांव में, सांप के जहर की दवाई अब उनकी जानकारी में रहती हैं।

यह सब आश्चर्यजनक है। अद्भुत है। किसी अनजाने जगह पर, नेवला बराबर जहर को काट देने वाली दवाई का पौधा कैसे ढूंढता हैं, या कल्पना से परे हैं। प्रकृति के साथ एकाकार होने का यह प्रभावी उदाहरण हैं।

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आज से कुछ दशकों पहले, कोदो – कुटकी यह गरीबों का, जनजातीय लोगों का अनाज समझा जाता था। शहरी क्षेत्र के लोगों का इस अनाज से, उन दिनों दूर-दूर तक वास्ता नहीं था।

किंतु आज ?

वैज्ञानिक परीक्षणों में यह सिद्ध हुआ कि कोदो में फेनोलिक एसिड नाम का यौगिक होता है, जो पेनक्रियाज में एमाईजेल को बढ़ाकर इंसुलिन के निर्माण को प्रोत्साहित करता हैं। शरीर में इंसुलिन की सही मात्रा शुगर लेवल को कंट्रोल करने में मदद करती हैं, जिससे डायबिटीज की स्थिति में राहत मिलती हैं। पौधों का ग्लिसमिक इंडेक्स बहुत कम होता हैं। कोदो, फाइबर का भी एक अच्छा स्रोत हैं, जो मधुमेह पीड़ित लोगों के लिए फायदेमंद है।

कोदो – कुटकी यह बाजरा (मिलेट) श्रेणी के अनाज हैं। यह मिलेट के सारे प्रकार, पहले ‘लोक’ का अनाज हुआ करते थे। आज भी हैं। किंतु आज मिलेट खाना यह एक स्टेटस् सिंबल बनता जा रहा हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से, वर्ष 2023 यह अंतर्राष्ट्रीय मिलेट वर्ष के रूप में मनाया गया। ‘लोक खाद्य’ यह अब उच्च वर्ग का अन्न भी बन रहा हैं।

*हमारे पुरखों के पास ज्ञान का अद्भुत भंडार था। गणित, विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, कला के साथ ही शरीर स्वास्थ्य की भी अदभुत जानकारी थी। लोक परंपराओं से यह जानकारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती गई। इन लोक परंपराओं के कारण ही ज्ञान का यहां भंडार, कुछ अंशोंमें हम तक पहुंच सका। यह सारा ज्ञान, यह सारी ज्ञान परंपरा, पूर्णतः प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है।*

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लोक परंपराओं ने, लोक संस्कृति ने इस टिकाऊ जीवन शैली को, प्राकृतिक जीवन पद्धति को अभी तक बनाए रखा है। किंतु अब समय बदल रहा हैं। ‘लोक’ के सामने ‘पर्यावरण’ यह प्रश्न चिन्ह बनकर सामने खड़ा हैं। वनों की अंधाधुंध कटाई हुई हैं। हो रही हैं। प्रकृति के साथ एकाकार होना, एकरूप होना, दिनों दिन कठिन होता जा रहा हैं। जनजातीय समुदाय को जंगलों के सहारे रहना, यह असंभव की श्रेणी में आ रहा हैं। सृष्टि का चक्र भी बिगड़ने लगा हैं।

अर्थात, सरकार ने कुछ अच्छे कानून भी बनाए हैं, जैसे पेसा (PESA – पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरियाज एक्ट) कानून। पेसा कानून का मुख्य उद्देश्य है,  पारंपरिक प्रथाओं के अनुरूप उपयुक्त प्रशासनिक ढांचा विकसित करना। जनजातीय समुदायों की परंपराओं और रीति रिवाजों की रक्षा और संरक्षण करना। जनजातीय आवश्यकताओं के अनुरूप, विशिष्ट शक्तियों के साथ उचित स्तर पर पंचायत को सशक्त बनाना। कुल 10 राज्यों में अनुसूचित जनजातियों का प्राबल्य हैं। इसलिए वहां पेसा कानून उपयुक्त हैं। इनमें से आठ राज्यों ने पेसा कानून लागू किया हैं। किंतु उसका कार्यान्वयन या परिपालन ठीक से नहीं हो पा रहा हैं।

गांव – शहरों में जो ‘लोक’ बसता हैं, उनके सामने तकनीकी के इस बदलते दौर में अपनी परंपराएं बचाने की चुनौती हैं। इन सब का प्रत्यक्ष परिणाम पर्यावरण पर हो रहा है।

किंतु यह बात तय हैं, की प्रमाणिकता से पर्यावरण की रक्षा, यह ‘लोक’ ही कर सकेगा। इसलिए इस ‘लोक’ को सुदृढ़ बनाना, उन्हें बल देना, ताकत देना, उनकी परंपराएं जतन करने में मदद करना, यही समय की आवश्यकता है..!

–  प्रशांत पोळ

_(भाग्यनगर मे आयोजित हो रहे *लोकमंथन – २०२४* के अवसर पर प्रकाशित पुस्तक, *लोकावलोकन* में प्रकाशित लेख)_

“कारकेन” मुक्ति की एक कहानी, अपने अंदर की आवाज को खोजने की एक यात्रा: निर्देशक नेंडिंग लोडर

सिनेमा में एक गैंगस्टर को बदलने की ताकत है: ‘जिगरथंडा डबल एक्स’ के निर्देशक कार्तिक सुब्बाराज

‘बट्टो का बुलबुला’ की कहानी हरियाणा के ग्रामीण जीवन में गहराई से रची बसी है: संपादक सक्षम यादव

तीन फिल्मों, बट्टो का बुलबुला, कारकेन और जिगरथंडा डबल एक्स के कलाकार और क्रू आज गोवा में 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (इफ्फी) में एक रोचक प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए एकत्र हुए। फिल्म निर्माताओं ने अपनी-अपनी रचनात्मक यात्रा, निर्माण के दौरान सामने आई चुनौतियों और सिनेमा के भविष्य के प्रति अपने दृष्टिकोण के बारे में जानकारी साझा की।

कारकेन – जुनून और मुक्ति की यात्रा
गोआ । यहाँ आयोजित अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में कारकेन के निर्देशक बेंडिंग लोड ने अपनी फिल्म के बारे में जिज्ञासा से बात की, जो सामाजिक अपेक्षाओं और व्यक्तिगत इच्छा के बीच फंसे एक व्यक्ति के आंतरिक संघर्ष पर आधारित है। लोडर ने कहा, “यह मुक्ति की एक कहानी है, यह अपनी अंतरात्मा की आवाज को खोजने की यात्रा के बारे में है।” लोडर ने फिल्म निर्माण में सहयोग के लिए राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) के प्रति आभार व्यक्त किया तथा अरुणाचल प्रदेश में फिल्मांकन की कठिनाई को स्वीकार किया। उन्होंने कहा, “राज्य में असाधारण प्रतिभाएं मौजूद हैं लेकिन उभरते फिल्म निर्माताओं के लिए पर्याप्त मंच का अभाव है। मुझे विश्वास है कि यह फिल्म अगली पीढ़ी के फिल्म निर्माताओं को अपने सपनों का अनुसरण करने और अपनी कहानियां बताने के लिए प्रेरित करेगी।”

सिनेमैटोग्राफर न्यागो ने एक सीमित स्थान में एक ही किरदार के साथ शूटिंग करने का अपना अनुभव साझा किया, यह एक ऐसी चुनौती थी जिसका सामना उन्होंने पहले कभी नहीं किया था। उन्होंने कहा, “यह एक अनूठा अनुभव था जिसने एक सिनेमैटोग्राफर के रूप में मेरी सीमाओं के दायरे को आगे बढ़ाया।”

जिगरथंडा डबल एक्स – सिनेमा में गैंगस्टर को बदलने की ताकत

जिगरथंडा डबल एक्स के दूरदर्शी निर्देशक कार्तिक सुब्बाराज ने फिल्म के अंतर्निहित विषय : सामाजिक परिवर्तन को प्रेरित करने के लिए सिनेमा की शक्ति के बारे में बात की। सुब्बाराज ने कहा, “सिनेमा समाज को बदलने का एक बेहतरीन साधन है। इसमें एक गैंगस्टर को भी बदलने की शक्ति है।” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यह फिल्म मानव और जानवरों के बीच संबंधों को गहराई से दर्शाती है तथा दोनों के बीच संबंध को जोड़ती है। इसके अतिरिक्त सुब्बाराज ने मुख्यधारा के व्यावसायिक सिनेमा और कला सिनेमा के बीच की रेखाओं को हलका करने की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने कहा, “यह फिल्म मुख्यधारा सिनेमा के मनोरंजन को कला सिनेमा की गहराई और अर्थ के साथ जोड़कर इन दोनों दुनियाओं को आपस में जोड़ती है।”

बट्टो का बुलबुला – हरियाणा में ग्रामीण जीवन का उत्सव

बट्टो का बुलबुला के संपादक सक्षम यादव ने पोस्ट-प्रोडक्शन के दौरान आने वाली चुनौतियों खासकर फिल्म के विस्तारित शॉट्स के कारण पर चर्चा की। श्री यादव ने कहा, “सबसे बड़ी चुनौती फिल्म के अंतर्निहित आकर्षण को बनाए रखना था, साथ ही शॉट्स की लंबाई को भी नियंत्रित करना था।”

फिल्म के फोटोग्राफी निर्देशक (डीओपी) आर्यन सिंह ने प्रामाणिकता के प्रति टीम की प्रतिबद्धता के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि यह कहानी हरियाणा के ग्रामीण जीवन में गहराई से निहित है। आर्यन सिंह ने कहा, “हमारा लक्ष्य ग्रामीण जीवन के सार को इस तरह से प्रस्तुत करना था कि वह वास्तविक, अनफिल्टर्ड और कहानी में डूब जाने वाला लगे।”

फिल्मों के बारे में

बट्टो का बुलबुला

रंगीन | 35′ | हरियाणवी | 2024

सारांश

हरियाणा के एक गांव में बुजुर्ग बट्टो अपने बिछड़े हुए दोस्त सुल्तान के साथ अक्सर शराब पीते हुए अपना दिन गुजारता है। अपनी अधिकांश जमीन बेच चुका बट्टो, गाँव छोड़ने के लिए आपनी बाकी बची जमीन भी बेचने की योजना बना रहा है। उसका चालाक दत्तक पुत्र बिट्टू उस पर जमीन के लिए दबाव डालता है, जिससे भावनात्मक उथल-पुथल मच जाती है। बट्टो का दोस्त सुल्तान लगातार सच्चाई की तलाश करता है जिसके कारण तनावपूर्ण टकराव होता है। अंततः बट्टो को सच्ची दोस्ती की ताकत और विश्वासघात के बीच के महत्व का एहसास होता है।

कलाकार और क्रू सदस्य

निर्देशक: अक्षय भारद्वाज

निर्माता: दादा लखमी चंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ परफॉर्मिंग एंड विजुअल आर्ट्स (डीएलसी सुपवा)

छायाकार: अक्षय भारद्वाज

पटकथा लेखक : रजत करिया

संपादक: सक्षम यादव

कास्ट: कृष्ण नाटक

छायाकार: अक्षय भारद्वाज

तमिल अभिनेता शिवकार्तिकेयन खुशबू सुंदर ने कहा, दर्शकों की सीटी और ताली मेरी थेरेपी है

धैर्य, दृढ़ता और ईमानदारी की यात्रा, तमिल अभिनेता ने आईएफएफआई में अपने जीवन के सबक साझा किए
युवाओं से अभिनेता ने कहा कि एक उन्मु क्त पक्षी की तरह उड़ो, लेकिन हमेशा अपने नीड़ में लौट आओ

जब वे खचाखच भरे हॉल में पहुंचे तो उनका जोरदार स्वागत हुआ और गोवा में कला अकादमी का सभागार तालियों और सीटियों की आवाज से गूंज उठा। तमिल सुपरस्टार शिवकार्तिकेयन की मौजूदगी स्क्रीन पर और ऑफ-स्क्रीन दोनों जगह ऐसी ही है।

शिवकार्तिकेयन की साधारण शुरुआत से लेकर तमिल सिनेमा के सबसे चमकते सितारों में से एक बनने तक की यात्रा, धैर्य, जुनून और दृढ़ता की कहानी है। 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में बोलते हुए उन्होंने अभिनेता और राजनीतिज्ञ खुशबू सुंदर के साथ बातचीत की जिसमें उन्होंने अपने जीवन, करियर और प्रेरणाओं के बारे में बताया।

शिवकार्तिकेयन ने कहा, “शुरू से ही सिनेमा हमेशा मेरा जुनून रहा है और मैं हमेशा दर्शकों का मनोरंजन करना चाहता था।” “इसलिए, मैंने टेलीविज़न एंकरिंग से शुरुआत की, जिसने मुझे मनोरंजन के क्षेत्र में अपना करियर बनाने का मौका दिया और इसे मैंने पूरे जुनून के साथ अपनाया।”

एक मिमिक्री कलाकार के रूप में अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए शिवकार्तिकेयन ने याद किया, “मैं इंजीनियरिंग कॉलेज में अपने प्रोफेसरों की नकल करता था। बाद में, जब मैंने उनसे माफ़ी मांगी तो उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया और कहा कि इस प्रतिभा को सही तरीके से इस्तेमाल किया जाना चाहिए।”

अभिनेता ने बताया किया कि उनके पिता का असामयिक निधन उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। “मेरे पिता के निधन के बाद मैं लगभग अवसाद में चला गया था। मेरे काम ने मुझे इस अवसाद से बाहर निकाला और मेरे दर्शकों की सीटियाँ और तालियाँ मेरी थेरेपी बन गईं,” उन्होंने अपने प्रशंसकों के प्यार और समर्थन को इसका श्रेय दिया।

खुशबू सुंदर ने उनके दृढ़ संकल्प और ईमानदारी की प्रशंसा की। इसे उन्होंने उनके जीवन का सबसे बड़ा सहारा बताया। इससे सहमति जताते हुए शिवकार्तिकेयन ने कहा, “मुझे हमेशा से लाखों लोगों के बीच अलग दिखने की इच्छा रही है, जबकि मैं अब भी आम आदमी से जुड़ा हुआ महसूस करता हूँ। जीवन बाधाओं से भरा है, लेकिन अपने जुनून से उन्हें दूर करने में मदद मिलती है। एक समय ऐसा भी था जब मुझे लगा कि हार मान लेनी चाहिए लेकिन मेरे दर्शकों के प्यार ने मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।”

मिमिक्री कलाकार से लेकर टेलीविज़न पर मेजबानी करने और आखिरकार तमिल सिनेमा के सबसे मशहूर अभिनेताओं में से एक शिवकार्तिकेयन ने कई भूमिकाएँ निभाई हैं। उन्होंने पार्श्व गायक, गीतकार और निर्माता के रूप में भी प्रशंसा अर्जित की है। अपने करियर विकल्पों के बारे में बात करते हुए उन्होंने बताया, “अपने करियर की शुरुआत में, मैंने अपने सामने आने वाले हर प्रोजेक्ट को स्वीकार किया। लेकिन अब, मुझे लगता है कि कहानियाँ मुझे चुन रही हैं।” उन्होंने डॉक्टर, डॉन और हाल ही में आई अमरन जैसी फ़िल्मों का उल्लेख किया जिसमें उन्होंने वास्तविक जीवन के युद्ध नायक मुकुंद वरदराजन का किरदार निभाया था जो इस बात का उदाहरण है कि वे हाल ही में किस तरह से सार्थक भूमिकाएँ चुन रहे हैं।

हास्य को एक माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने पर चर्चा करते हुए शिवकार्तिकेयन ने कहा, “टेलीविज़न से सिनेमा में जाना कठिन था। मैंने हास्य को अपने कवच बनाया और यह महसूस किया कि यह दर्शकों को खुशी देता है, चाहे वह छोटे पर्दे पर हो या बड़े पर्दे पर।”

युवा पीढ़ी के लिए, उन्होंने बस इतना ही कहा: “एक उन्मुक्त पक्षी की तरह उड़ो, लेकिन हमेशा अपने नीड़ में लौट आओ। मेरे लिए, मेरा परिवार मेरा नीड़ है और मेरा मानना है कि जड़ों से जुड़े रहना बहुत ज़रूरी है। हमारे माता-पिता हमारे लिए केवल सर्वश्रेष्ठ चाहते हैं।” यह सत्र एक असाधारण प्रतिभा का मंगलगान था जिनकी कहानी लाखों लोगों के दिलों में गूंजती है। मध्यम वर्गीय परवरिश से लेकर तमिल सिनेमा के शिखर तक शिवकार्तिकेयन की यात्रा जुनून, लचीलापन और सपनों की शक्ति की एक प्रेरक कहानी है।

स्नो फ्लावर’: दो देशों की संस्कृति, परिवार और पहचान की कहानी

समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में फलती-फूलती एक कहानी, ‘स्नो फ्लावर’ परिवार, प्रेम और अपनेपन के विषयों का पता लगाती है

भारत के 55वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में, स्नो फ्लावर ने भव्य प्रीमियर के दौरान अपनी छाप छोड़ी और फिल्म के कलाकार और तकनीकी और व्‍यावहारिक पहलुओं पर काम करने वाले सदस्य जिनमें प्रशंसित निर्देशक गजेंद्र विट्ठल अहिरे, छाया कदम, वैभव मांगले और सरफराज आलम सफू शामिल थे, इन लोगों ने कल गोवा में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मीडिया को संबोधित किया।

मराठी भाषा की यह फिल्म दो देशों के बीच की एक मार्मिक कहानी है जो दो अलग-अलग संस्कृतियों – रूस और कोंकण को जोड़ती है। बर्फीले साइबेरिया और हरे-भरे कोंकण की विपरीत पृष्ठभूमि पर आधारित यह फिल्म भारत में रहने वाली दादी और रूस में रहने वाली पोती के बीच की ‘दूरी’ को दर्शाती है।

निर्देशक गजेंद्र विट्ठल अहिरे ने स्नो फ्लावर के पीछे की रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में भी जानकारी साझा की। अहिरे ने इन खराब परिस्थितियों में फिल्मांकन की चुनौतियों पर भी प्रकाश डाला। साइबेरिया के खांटी-मानसिस्क में तापमान -14 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाने के कारण, छोटे दल को कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ा। इन चुनौतियों के बावजूद, दल के समर्पण और मजबूत टीमवर्क ने उन्हें एक ऐसी फिल्म बनाने की अनुमति दी जो कहानी की भावनात्मक गहराई को पकड़ती है।

अहीरे ने कहा, “जब हम रूस पहुंचे, तो तापमान माइनस 14 डिग्री था।” “उन्होंने हमारा ख्याल रखा- हमें जूते, कपड़े, जैकेट, यहाँ तक कि साबुन और शैम्पू भी मुहैया कराया। उनके सहयोग से, हम अच्छी तरह से काम करने और कहानी के साथ न्याय करने में सक्षम हुए।” उन्होंने यह भी कहा कि भाषा की बाधा के बावजूद- क्रू में से कोई भी अंग्रेजी नहीं बोलता था, और रूसी क्रू को हिंदी नहीं आती थी- टीम फिल्म निर्माण की सार्वभौमिक भाषा और आपसी सम्मान पर भरोसा करते हुए प्रभावी ढंग से संवाद करने में कामयाब रही। “अपनी संस्कृति का पालन करते हुए हम पहले शॉट से पहले हर सुबह गणपति आरती करते हैं। रूस से आए क्रू ने पहले दो दिन तक इसका पालन किया और आपको यकीन नहीं होगा कि उन्होंने तीसरे दिन से ही आरती करना शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि हमें समझ में नहीं आता लेकिन ऐसा करना अच्छा लगता है,” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा।

वैभव मंगले ने बताया कि रूस को स्थान के रूप में जानबूझकर चुना गया था, न केवल इसकी आकर्षक भौगोलिक स्थिति बल्कि कोंकण के साथ इसके सांस्कृतिक विरोधाभास के कारण। साइबेरिया के बर्फ से ढके परिदृश्य कहानी में भावनात्मक और भौगोलिक विभाजन के लिए एक आदर्श पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं, जो हरे-भरे, उष्णकटिबंधीय कोंकण क्षेत्र की विपरीत विषय वस्‍तु को दर्शाता है।

फिल्म की एक प्रमुख अभिनेत्री छाया कदम ने दोनों देशों के बीच के अंतर को चित्रित करने के अपने अनुभव को साझा किया। उन्होंने बताया, “मैं गजेंद्र की बहुत बड़ी प्रशंसक हूं और उनके साथ काम करके मुझे रूस और भारत के बीच के सांस्कृतिक अंतर को चित्रित करने का अवसर मिला।”

फिल्म के मुख्य अभिनेता सरफराज आलम सफू ने सेट पर अनुभव की गई सहयोगी भावना पर और जोर दिया। मॉस्को में रहने वाले सफू ने कम से कम उपकरणों और बुनियादी ढांचे के साथ काम करने की छोटी सी टीम की क्षमता की प्रशंसा की। “सीमित संसाधनों के साथ भी, हम शूटिंग को सफलतापूर्वक पूरा करने में सफल रहे। निर्देशक गजेंद्र ने मुझे खुद को अभिव्यक्त करने का मौका दिया और मैंने कलाकारों और क्रू से बहुत कुछ सीखा,” सफू ने कहा। उन्होंने दर्शकों पर फिल्म के भावनात्मक प्रभाव पर भी प्रकाश डाला, कई रूसी दर्शक, जो आईएफएफआई प्रतिनिधियों के रूप में यहां आए थे, स्क्रीनिंग के दौरान भावुक हो गए। उन्होंने कहा, “दोनों देशों के बीच संबंध बढ़ रहे हैं।” सफू ने कहा, “मुझे उम्मीद है कि यह फिल्म रूसी और भारतीय फिल्म निर्माताओं के बीच और अधिक सहयोग को प्रेरित करेगी।”

कोंकण के शानदार समुद्र तट से लेकर साइबेरिया के बर्फ से ढके ठंडे परिदृश्यों तक, फिल्म में एक ऐसा विरोधाभासी दृश्य प्रस्तुत किया गया है जो पात्रों की भावनात्मक उथल-पुथल को दर्शाता है।

प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान फिल्म निर्माताओं ने मीडिया और दर्शकों से क्षेत्रीय सिनेमा का सहयोग करने का आग्रह किया। अहीरे ने कहा, “यह एक क्षेत्रीय फिल्म है जिसे हर भारतीय को देखना चाहिए।” “यह सिर्फ़ दो संस्कृतियों के बीच फंसी एक लड़की की कहानी नहीं है, यह परिवार, प्यार और अपनेपन के सार्वभौमिक विषयों के बारे में है।”

सुश्री निकिता जोशी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस का संचालन किया।

आप प्रेस कॉन्फ्रेंस यहां देख सकते हैं:

फिल्म के बारे में

‘स्नो फ्लावर’ पूरे भारत के सिनेमाघरों में नवम्बर 2024 में रिलीज होगी।

स्नो फ्लावर की कहानी एक युवा लड़की परी की भावनात्मक यात्रा पर आधारित है, जो खुद को दो अलग-अलग दुनियाओं के बीच फंसी हुई पाती है। कहानी दो देशों में सामने आती है: भारत के कोंकण में, सपने देखने वाले एक युवा बबल्या, की रूस जाकर दशावतार थिएटर समूह में शामिल होने की प्रबल इच्‍छा होती है, जिसके कारण उसके अपने माता-पिता, दिग्या और नंदा के साथ  रिश्ते खराब हो जाते हैं। रूस में, बबल्या जीवन बनाता है, शादी करता है, और उसकी एक बेटी, परी होती है। हालाँकि, उस वक्‍त त्रासदी हो जाती है जब पब में झगड़े के दौरान बबल्या की मौत हो जाती है, और उसके माता-पिता अनाथ परी को वापस कोंकण लाने के लिए रूस जाते हैं। उनके प्यार और उसे पालने के प्रयासों के बावजूद, उन्हें जल्द ही अहसास होता है कि लड़की की असली जगह रूस में है, जहाँ उसे पूर्णता और खुशी मिल सकती है। एक पीड़ादायक फैसला लेकर, लड़की और उसकी मातृभूमि के बीच गहरे संबंध को स्वीकार करते हुए नंदा परी को रूस वापस भेज देती है।

#आईएफएफआई वुड

‘हनु-मान’: भारतीय पैनारोमा मंच पर एक पौराणिक सुपरहीरो का उदय

सार्थक कथा की प्रस्तुति न केवल एक लक्ष्य बल्कि उत्तरदायित्व भी है: तेजा सज्जा

हमारा सिनेमा दर्शकों के प्रेम और गाथा वर्णन के उत्साह से सफलता प्राप्त करता है: तेजा सज्जा

हनुमान जैसे व्यक्तित्वों को पहले से ही विश्व स्तर पर सराहा जाता है; अब समय आ गया है कि भारत इस कथा का नेतृत्व करे: तेजा सज्जा

हनु-मान केवल एक फिल्म नहीं है; यह हमारी सांस्कृतिक जड़ों और परंपराओं के प्रति श्रद्धांजलि है: तेजा सज्जा

गोवा में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) के भारतीय पैनोरमा खंड में प्रशांत वर्मा द्वारा निर्देशित एक उत्कृष्ट सिनेमा कृति हनु-मान का प्रदर्शन किया गया। अंजनाद्री के काल्पनिक गांव में फिल्माई गई यह फिल्म हनुमन्थु की यात्रा का वर्णन करती है, जो एक छोटा चोर है और फिर भगवान हनुमान के रक्त की एक जीवाश्म बूंद से दिव्य शक्तियां प्राप्त करता है। यह परिवर्तन एक स्वघोषित सुपरहीरो के साथ एक महाकाव्य संघर्ष के लिए मंच तैयार करता है, जिसमें पौराणिक कथाओं, साहस और मानवीय उदारता का शानदार सामंजस्य किया गया है।

हनुमन्थु की मुख्य भूमिका निभाने वाले अभिनेता तेजा सज्जा ने भारतीय पौराणिक कथाओं पर आधारित इस कथा पर आगे काम करने पर विचार किया। प्रोडक्शन के दायरे पर विचार व्यक्त करते हुए, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कैसे टीम ने बड़े स्तर पर भारतीय सिनेमा के समान स्तर पर दृश्य लाने के लिए बजटीय सीमाओं को भी लांघा। अंजनाद्री के सुरम्य लेकिन काल्पनिक गांव को पूरी तरह से हैदराबाद में एक सेट पर फिर से बनाया गया, यह फिल्म निर्माताओं की सरलता को दर्शाता है।

तेजा सज्जा ने फिल्म के पीछे के रचनात्मक दृष्टिकोण पर भी बात की और निर्देशक प्रशांत वर्मा की तीन वर्ष की लंबी निर्माण यात्रा के दौरान दृढ़ता और लगन को इसका श्रेय दिया। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे यह फिल्म न केवल भारत की पौराणिक जड़ों को फिर से सामने लाती है बल्कि भारतीय सिनेमा को वैश्विक मंच पर भी स्थापित करती है।

सज्जा ने भारतीय संस्कृति में पूरी तरह से समाहित एक ऐसे किरदार को निभाने पर गर्व व्यक्त किया, जो समान पौराणिक पात्रों से परिचित अंतरराष्ट्रीय दर्शकों के साथ जुड़ता है। उन्होंने हनु-मान को एक बड़ी फ्रैंचाइज़ में विस्तारित करने की योजना की भी जानकारी दी गयी जिसमें तेजा ने एक सीक्वल पर काम करने की पुष्टि की, जो इससे भी बड़ी कथा देने का वादा करती है। उन्होंने फिल्म में बेहतर तरीके से रचे गए महिला पात्रों के महत्व पर जोर दिया, कहानी को आगे बढ़ाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका पर ध्यान दिया गया है।

अभिनेता ने भारतीय सिनेमा के भविष्य के प्रति भी अपनी आशा व्यक्त की, उन्होंने इसके विकास का श्रेय दर्शकों के गाथा वर्णन के प्रति होने वाले अटूट प्रेम को दिया। उन्होंने कहा कि संपन्न तेलुगु फिल्म उद्योग अभिनव कथाओं और मन को मोह लेने वाले प्रदर्शनों के साथ निरंतर बंधनों से आगे बढ़ता रहा है, एक ऐसा भाव जिससे उन्हें उम्मीद है कि यह अधिक अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाने की दिशा में प्रोत्साहन देगी।

हनु-मान सांस्कृतिक विरासत और आधुनिक कहानी का एक सशक्त मिश्रण है, जिसका उद्देश्य भारत और विदेश दोनों ही जगह दर्शकों के मन में अपना स्थान बनाना है। भारतीय पैनोरमा खंड में इसका समावेश फिल्म के कलात्मक और सांस्कृतिक महत्व की भी पुष्टि करता है।

मंच से सिनेमा तक: “पुणे हाईवे” जीवन की भावपूर्ण कहानी प्रस्तुत करती है

“दोस्ती, विश्वासघात और मुक्ति ‘पुणे हाईवे’ हमें अनुभव का महत्व बताने वाले विकल्प सोचने के लिए मजबूर करती है” – अमित साध

“मंच से स्क्रीन तक का सफ़र चुनौतीपूर्ण रहा, लेकिन परिणाम वास्तव में संतोषजनक है” – बग्स भार्गव, निर्देशक और लेखक

“ फ़िल्म इस बात का सबूत है कि सच्चाई से कही गई एक साधारण कहानी किसी भी बाधा को पार कर सकती है” – राहुल दाकुन्हा, निर्देशक और लेखक

गोआ। फिल्म ‘पुणे हाईवे’ के कलाकार और दल के अन्य सदस्‍य आज गोवा में 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में एक दिलचस्प प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए एकत्र हुए। फिल्म निर्माताओं ने अपनी रचनात्मक प्रक्रियाओं, निर्माण के दौरान आने वाली चुनौतियों और सिनेमा के भविष्य की अपनी कल्पना पर चर्चा की।

राहुल दाकुन्हा और बग्स भार्गव द्वारा निर्देशित और लिखित, पुणे हाईवे एक भावनात्मक थ्रिलर है जो एक रोमांचक कथानक प्रस्तुत करती है जो अप्रत्याशित परिस्थितियों से प्रभावित होकर नाजुक दोस्ती की तह खोलती है। पुरानी यादों, रहस्य और तकलीफदेह ड्रामा के बेहतरीन मिश्रण के साथ, फिल्म गहरे मानवीय संबंधों और उनकी जटिलताओं का सार प्रस्तुत करती है। फिल्म के भयावह दृश्य एक ऐसा सिनेमाई अनुभव प्रस्तुत करते हैं जो इसके समाप्त होने के बाद भी लंबे समय तक दिलो-दिमाग पर छाए रहते हैं।

मूल रूप से नौ देशों में दिखाए गए एक कमरे के नाटक के रूप में कल्पना की गई, पुणे हाईवे ने सिनेमाई प्रारूप में फिट होने के लिए रचनात्मक विकास किया। राहुल दाकुन्हा, जिन्होंने नाटक और फिल्म लिखी और निर्देशित की, ने बड़े पर्दे के लिए इसके दायरे का विस्तार करने के बारे में जानकारी साझा की।

दाकुन्हा ने बताया, “हमें सिनेमा के लिए नाटक की मूल भावनाओं को बरकरार रखते हुए भय, गुस्से और रोमांच के क्षणों की फिर से कल्पना करनी थी।” “यह दोस्ती के पीछे छिपे वास्तविक मुद्दों का विश्लेषण करने की कहानी है।”

सह-निर्देशक बग्स भार्गव ने फिल्म के निर्माण में किए गए सामूहिक प्रयास पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा, “यह फिल्म प्रेम की मेहनत है, जिसमें कहानी कहने के वर्षों का अनुभव और विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।”

जाने-माने अभिनेता अमित साध ने इस तरह के अनूठे प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने पर अपनी खुशी जाहिर की। उन्होंने कहा, “यह भूमिका निभाना मेरे करियर के सबसे चुनौतीपूर्ण और संतोषजनक अनुभवों में से एक रहा है। यह एक ऐसी कहानी है जो हर उस व्यक्ति से जुड़ी है जिसने कभी दोस्ती को महत्व दिया है।”

मंजरी फडनीस ने फिल्म के सार्वभौमिक विषयों पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने कहा, “पुणे हाईवे सिर्फ़ एक थ्रिलर नहीं है; यह मानवीय रिश्तों और जीवन को बदल देने वाली घटनाओं का सामना करने पर हमारे द्वारा चुने गए रास्ते की मार्मिक खोज है।

निर्माता सीमा महापात्रा ने कहा, “यह एक ऐसी फिल्म है जो हर किसी को पसंद आएगी – क्योंकि इसके मूल में, रिश्तों और उन विकल्पों की चर्चा है जो हमें किसी अनुभव का महत्व बताते हैं।”

पुणे हाईवे को इसके सार्वभौमिक विषयों के लिए सराहा गया है, जिससे यह विभिन्न संस्कृतियों के दर्शकों के लिए प्रासंगिक बन गया है। सस्पेंस और भावनात्मक गहराई के मिश्रण ने इसे इस साल के आईएफएफआई गोवा में एक बेहतरीन प्रविष्टि के रूप में स्थान दिया है। फिल्म निर्माता फिल्म समारोहों से हटकर फिल्म के बारे में आशावादी हैं, और ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुँचने के लिए इसे वैश्विक प्लेटफार्मों पर रिलीज़ करने की योजना बना रहे हैं। निर्देशकों ने एक सीक्वल का भी संकेत दिया, जिसमें पात्रों के जीवन और कहानी के अनसुलझे रहस्यों को गहराई से दिखाने का वादा किया गया।

सह-निर्माता जहाँआरा भार्गव ने कहा, “हम पुणे हाईवे को दुनिया के साथ साझा करने के लिए उत्साहित हैं। यह एक ऐसी कहानी है जिसे हर किसी को बताना और सुनना चाहिए।”

पुणे हाईवे दुनिया भर के दर्शकों पर एक अमिट छाप छोड़ने का वादा करती है, यह भारतीय सिनेमा में दोस्ती और उनकी जटिल गतिशीलता को फिर से परिभाषित करती है।

कैमरापर्सन के लिए कोई फॉर्मूला नहीं होता है; हर फिल्म एक नई फिल्म है

सिनेमैटोग्राफर्स को हर नई फिल्म को अपनी पहली फिल्म की तरह देखना चाहिए: जॉन सील

गोआ। गोवा में आयोजित 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में “इन-कन्वर्सेशन” सत्र में प्रसिद्ध छायाकार जॉन सील ने सिनेमैटोग्राफी की कला में अपने व्यापक करियर और अंतर्दृष्टि का अनुभव साझा किया। सील ने दृश्य माध्यम से कहानी कहने में प्रकाश की परिवर्तनकारी शक्ति पर चर्चा की और प्रत्येक फिल्म के लिए एक नया दृष्टिकोण बनाने के महत्व पर उल्लेख किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सिनेमैटोग्राफी के लिए कोई फॉर्मूला नहीं है – हर प्रोजेक्ट में अपने अनूठे कथानक, भूगोल और संदर्भ के साथ, नई सोच की आवश्यकता होती है।

सील की फिल्मी यात्रा 1960 के दशक में शुरू हुई, जब ऑस्ट्रेलियाई फिल्म उद्योग उभर रहा था और उन्होंने वृत्तचित्रों से लेकर नाटक तक कई तरह के मीडिया में कार्य किया तथा काम के दौरान कला की बारीकी सीखी। ऑस्ट्रेलियाई प्रसारण निगम (एबीसी) के साथ उनके काम ने उन्हें घोड़ों की दौड़ को कवर करने और टेलीविजन शॉर्ट्स को फिल्माने सहित अपने कौशल को विकसित करने का मौका दिया। उन्होंने कहा कि मैं घोड़ों की दौड़ को कवर करने के तरीके पर एक लंबा व्याख्यान दे सकता हूं।

सील ने कहा कि जैसे-जैसे ऑस्ट्रेलियाई सिनेमा उद्योग फल-फूल रहा था, तो उनके साथियों ने जुनून के साथ फिल्में बनायीं। उन्होंने बताया कि अमरीका की फार्मूलाबद्ध संरचना “वाइड-शॉट – मीडियम-शॉट और क्लोज-अप” के आधार पर काम नहीं किया गया है। इस दृष्टिकोण की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, विशेष रूप से अमरीका में सराहना की गई, जहां पर फिल्म निर्माताओं ने बजट और समय-सीमा के भीतर काम करने के ऑस्ट्रेलियाई तरीके की सराहना की। सील ने कहा कि सिनेमेटोग्राफी के लिए कोई फॉर्मूला नहीं है। आपको लगता होगा कि हमने एक फिल्म के लिए कोई स्टाइल बनाया होगा – मैं इसकी प्रशंसा कर सकता हूं और सोच सकता हूं कि मैं इसे अगली फिल्म में भी अपना सकता हूं। लेकिन नहीं! हर फिल्म अनोखी होती है। ऑस्ट्रेलिया में, हम ‘क्या होगा अगर’ प्रणाली का अभ्यास करते थे। ‘क्या होगा अगर ऐसा हुआ? क्या होगा अगर इसे यहां होना ही है?’

सील ने अपने विश्वास को साझा करते हुए कहा कि कैमरा प्रोफेशनल को हर प्रोजेक्ट को हमेशा ऐसे देखना चाहिए जैसे कि यह उनकी पहली फिल्म हो। उन्होंने बताया कि कैसे समय के साथ उन्होंने एक कैमरे से कई कैमरों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, जिससे अभिनेताओं और तात्कालिक दृश्यों की अधिक गतिशील कवरेज की संख्या बढ़ी। उन्होंने बड़े प्रेम से याद करते हुए कहा कि कैसे एक दृश्य की शूटिंग के दौरान, अभिनेता ने एक टूथपिक गिरा दी जो स्क्रिप्ट में नहीं थी लेकिन खूबसूरती से उसमें सुधार किया गया था। उन्होंने बताया कि तभी मुझे एहसास हुआ कि हमें इसे एक साथ दो कैमरों से शूट करना चाहिए। उन्होंने बताया कि उन दिनों हम हमेशा एक अतिरिक्त कैमरा साथ रखते थे, ताकि अगर शूट किए जा रहे कैमरे में कोई तकनीकी समस्या आती तो हम आपातकालीन स्थिति में काम कर सकें। उन्होंने हंसते हुए कहा कि इसलिए, मैंने बस ‘इमरजेंसी’ चिल्लाया और निर्देशक को आंख मारी। इससे वह समझ गया और इस तरह हमने बाकी सीन को दो कैमरों के सेट अप के साथ शूट किया।

सील ने लाइटिंग कैमरामैन और ऑपरेटर दोनों के होने के महत्व को भी रेखांकित किया, क्योंकि इससे निर्देशक तथा अभिनेताओं के साथ एक करीबी रिश्ता बनता है, जो आकर्षक फिल्म बनाने के लिए आवश्यक होता है। उन्होंने कहा कि “जब मेरे कई दोस्त कैमरा प्रोफेशन में ऊंचे स्तर पर पहुंच गए, तो मैंने लाइटिंग कैमरामैन तथा ऑपरेटर बनना पसंद किया क्योंकि मुझे हमेशा लगा कि मैं निर्देशक के करीब रहता हूं और उसे वह दृश्य दिखाने में मदद करता हूं जो वह चाहता है।”

सील ने अभिनय में अभिनेता के पक्ष को समझने के लिए किए गए अपने प्रयासों को भी साझा किया और बताया कि कैसे कैमरा पर्सन के तकनीकी पहलू उन्हें प्रस्तुति देने में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं। उन्होंने बताया, मैंने हमेशा पाया है कि जब अभिनेता को सही फोकस या शॉट पाने के लिए फ्लोर पर बने ‘निशानों’ का पालन करना पड़ता है, तो वह यांत्रिक हो जाता है – जिसे आमतौर पर कैमरा क्रू या फोकस खींचने वाले द्वारा चिह्नित किया जाता है। उन्होंने बताया कि यह उनका काम नहीं है, बल्कि कैमरा पर्सन का काम है। इसलिए, उन्होंने कैमरे के लिए निशान बनाना पसंद किया – जहां पर क्रू को पता होगा कि सही फोकस कहां प्राप्त करना है और अभिनेता को इसके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है।

सील ने यह भी बताया कि कैसे उन्होंने क्लैप बोर्ड को बदल दिया जो शोर एवं ध्वनि के कारण अभिनेताओं को परेशान करता था, जहां पर उन्हें तैयार होना था और किरदार में आना होता था। उन्होंने बताया कि

“इसलिए, हमने बिना शोर के स्लाइड-इन बोर्ड लाए जिससे उन्हें तैयार होने और किरदार में आने का समय मिल गया।”

इस सत्र में दर्शकों को फिल्म में डूबाए रखने के उनके दर्शन पर प्रकाश डाला गया। सील ने उन क्षणों को कैप्चर करने की चुनौतियों का वर्णन किया, जो दर्शकों को बांधे रखते हैं, जैसे कि एक तूफानी दृश्य में अभिनेताओं की भावनात्मक तीव्रता को प्रबंधित करने का उदाहरण। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि प्रत्येक फिल्म को एक अनूठी परियोजना के रूप में देखा जाना चाहिए। सील ने कहा कि पिछले कामों की पुनरावृत्ति से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्री-प्रोडक्शन का महत्व और निर्देशक की दृष्टि को समझना उनकी प्रक्रिया में मुख्य बिंदु थे, विशेष रूप से कैमरा लेंस जैसे तकनीकी विकल्पों के संबंध में, जो अभिनेताओं तथा कहानी दोनों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकते हैं। सील ने कहा कि “आप प्री-प्रोडक्शन के दौरान जितना अधिक काम करते हैं, फिल्मांकन के दौरान उन्हें कैप्चर करना उतना ही आसान होता है।”

सील की बातचीत से सिनेमैटोग्राफी की कला के प्रति उनके अनुभव एवं प्रतिबद्धता की गहराई का पता चला और यह दर्शाया कि अभिनेताओं तथा दर्शकों के साथ गहरा संबंध बनाए रखते हुए प्रत्येक नई फिल्म के लिए अनुकूलन व नवाचार करना कितना महत्वपूर्ण है।

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कि क्या नए जमाने के डिजिटल कैमरे दिव्यांग लोगों को सिनेमैटोग्राफर बनने में मदद कर सकते हैं, क्योंकि एक आम सोच है कि दिव्यांग लोग अच्छे सिनेमैटोग्राफर नहीं बन सकते, उन्होंने अपनी धारणा व्यक्त की कि निश्चित रूप से कैमरे किसी भी व्यक्ति को क्रिएटर बनने में मदद कर सकते हैं। सील ने जोर देते हुए कहा कि “यह स्क्रिप्ट है!” और कहा कि शारीरिक दिव्यांगता किसी क्रिएटर को नहीं रोक सकती है।

#IFFIWood,

मैं अपनी फिल्म के माध्यम से अपने राष्ट्र की प्रामाणिकता के नुकसान को दर्शाना चाहता था: रस्तिस्लाव बोरोस, ‘द स्लगर्ड क्लान’ के निर्देशक

संस्था के अनुरूप न होने वाले विचारों और फिल्मों को धन जुटाना मुश्किल होता है: बेल्किस बायरक

स्वतंत्र और तटस्थ सिनेमा को धन नहीं मिलता: फेज अजीजखानी

गोआ। 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में प्रदर्शित फिल्म ‘द स्लगार्ड क्लान’ के निर्देशक रस्तिस्लाव बोरोस ने कहा कि स्लोवाकिया एक युवा राष्ट्र है जो बढ़ते पूंजीवाद और उपभोक्तावाद के कारण अपनी प्रामाणिकता खो रहा है।

मीडिया से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा, “मैं अपने देश की आत्मा को दिखाना चाहता था। यह एक बहुत ही युवा देश है। इसे आजाद हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है। मैं फिल्म के जरिए कुछ प्रामाणिक दिखाना चाहता था। इसलिए, मैंने वास्तविकता न दिखाने का फैसला किया, बल्कि एक रूपक या दृष्टांत प्रस्तुत करने की कोशिश की। यह मेरे देश के लिए एक सपना है। देश के युवाओं की सारी आकांक्षाएं उपभोक्तावाद पर आधारित हैं।”

बेल्किस बायरक ने अपनी फिल्म ‘गुलिजर’ के बारे में बात करते हुए बताया कि फिल्म बनाते समय उन्हें किस तरह के फंड की जरूरत थी। उन्होंने कहा, “ज्यादातर पूर्वाग्रह की वजह से फिल्म के लिए फंड मिलना मुश्किल होता है। मैन्सप्लेनिंग उद्योग से आती है, सांस्कृतिक संस्थानों से नहीं।” उन्होंने आगे कहा कि “अगर आप समाज के किसी वर्ग का विरोध करने वाले विचार रखते हैं तो इसमें चुनौतियां आएंगी।”

मनीजेह हेकमत और फेज अजीजखानी द्वारा निर्देशित ‘फियर एंड ट्रेम्बलिंग’ एक ऐसी महिला की कहानी है जिसका अटूट विश्वास उसे अकेलेपन की ओर ले जाता है, जिससे वह परिवार और सामाजिक संबंधों से कट जाती है। यह अत्यधिक दृढ़ विश्वास उसके गहरे अकेलेपन का मूल कारण बन जाता है। फेज अजीजखानी ने कहा कि फिल्म का नाम ही इस फिल्म को बनाने के अनुभव को दर्शाता है।

अपने समापन भाषण में, फिल्म के लिए धन जुटाने के बारे में बोलते हुए, अजीजखानी ने कहा कि जो सिनेमा सत्ता प्रतिष्ठान का समर्थन करता है, उसे धन मिलता है, हालांकि स्वतंत्र और तटस्थ सिनेमा को धन नहीं मिलता है और उसे मित्रों, परिवार और स्वयं के संसाधनों पर निर्भर रहना पड़ता है।

तीन फिल्मों ‘द स्लगर्ड क्लान’, ‘गुलिजर’ और ‘फियर एंड ट्रेम्बलिंग’ के निर्देशकों ने आज गोवा में आयोजित 55वें आईएफएफआई के अवसर पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया। प्रेस कॉन्फ्रेंस का संचालन श्रीयंका चटर्जी ने किया।

लोकल इज ग्लोबल! सार्वभौमिक अपील वाली कहानियां वैश्विक दर्शकों का दिल जीत लेंगी

गोआ। मानवीय भावनाएं सार्वभौमिक हैं और सिनेमा एक भाषा के लिहाज से अज्ञेय माध्यम होने के नाते, दुनिया भर के लोगों को जोड़ सकती है। क्या कहानियों और कहानी कहने की कला में सीमाओं, भाषाओं और संस्कृतियों को पार करने की शक्ति है? आज पणजी में कला अकादमी में 55वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में फिल्म स्क्रीनिंग के मौके पर ‘स्टोरीज दैट ट्रैवल’ शीर्षक के साथ इस विषय पर एक पैनल चर्चा आयोजित की गई।

प्रतिष्ठित पैनलिस्टों में भारतीय मूल के ब्रिटिश पारसी लेखक, नाटककार, पटकथा लेखक फारुख धोंडी, स्पेनिश निर्माता अन्ना सौरा, प्रख्यात अभिनेता तनिष्ठा चटर्जी, प्रसिद्ध अभिनेता और निर्माता वाणी त्रिपाठी टिक्को और अंग्रेजी वृत्तचित्र फिल्म निर्देशक लूसी वॉकर शामिल थे। भारतीय फिल्म निर्देशक और निर्माता बॉबी बेदी ने चर्चाओं का संचालन किया, जिसमें कहानी कहने की विभिन्न बारीकियों पर प्रकाश डाला गया, जो सार्वभौमिक तो हैं, लेकिन क्षेत्र, देश या संस्कृति विशिष्ट भी हो सकती हैं।

 

बॉबी बेदी ने सत्र की शुरुआत इस कथन के साथ की कि भारत विश्व स्तर पर लोकप्रिय और मजबूत फिल्म निर्माण उद्योग है; लेकिन भारतीय फिल्म निर्माता प्रवासी दर्शकों से परे दर्शकों के बारे में नहीं सोचते हैं और इसलिए, अक्सर अंतरराष्ट्रीय दर्शकों से जुड़ नहीं पाते हैं।

वृत्तचित्र फिल्म निर्माता लूसी वॉकर का मानना है कि “लोगों को उन लोगों और प्राणियों के बारे में फिल्में बनानी चाहिए जिनकी वे परवाह करते हैं।” उन्होंने कहा कि उन्हें दुनिया भर में घूमना पसंद है, लेकिन एक पर्यटक के रूप में नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों पर फिल्में बनाने के लिए। लूसी वॉकर की फिल्म ‘माउंटेन क्वीन: द समिट्स ऑफ लखपा शेरपा’ ने हाल ही में आईएफएफआई सहित फिल्म समारोहों में सराहना बटोरी है।

वाणी त्रिपाठी टिक्कू ने कहा, “वसुधैव कुटुम्बकम” भारत का मंत्र है। यह हमेशा से कहानीकारों की भूमि रही है और “कथावाचन” हमेशा से हमारी परंपरा रही है। उन्होंने कहा कि भारत के बाहर से आई कहानियां भी देश में सुनाई जाती हैं। उन्होंने कहा, “आखिरकार यात्रा करने वाली कहानियों में सार्वभौमिकता और सांस्कृतिक जुड़ाव का तत्व होता है।”

फारुख धोंडी ने मानव जाति में कहानी कहने के इतिहास पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा, “हर जनजाति, हर संस्कृति की अपनी पौराणिक कथाएं होती हैं। यहीं से कहानी शुरू होती है! पौराणिक कथाएं हमें संस्कृति की नैतिकता के बारे में बताती हैं। कुछ यात्रा करती हैं, जबकि कुछ नहीं करतीं।” उन्होंने कहा कि सभी कहानियां दुनिया भर में दर्शकों से समान रूप से जुड़ती नहीं हैं। उन्होंने बताया कि राज कपूर की भारतीय किसानों और शहरी गरीबों से संबंधित कहानियां सोवियत दर्शकों से जुड़ी थीं और कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान और आस-पास के देशों में पुरस्कार जीते, हालांकि उन्हें अमेरिका या यूरोप में उस तरह से समर्थन नहीं मिला। लेकिन दूसरी ओर, सत्यजीत रे की उपन्यास संबंधी कहानियां यूरोप और अमेरिका के दर्शकों से जुड़ सकी थीं।

उन्होंने कहा कि अगले चरण में दुनिया भर में मौजूद आधुनिक वास्तविकता पर आधारित कहानियां आईं और स्लमडॉग मिलियनेयर और सलाम बॉम्बे जैसी फिल्मों ने दुनिया भर के कई लोगों को जोड़ा। मॉनसून वेडिंग जिसमें ‘प्यार सब कुछ जीत लेता है’ (लव कनक्वेर्स ऑल) का सार्वभौमिक संदेश है, पश्चिमी दर्शकों से जुड़ पाई। फारुख धोंडी ने कहा, इसी तरह बैंडिट क्वीन ने भी पश्चिमी दर्शकों को प्रभावित किया, जो एक अलग भाषा और एक अलग संस्कृति में होने के बावजूद अपने अधिकारों के लिए लड़ रही एक महिला की कहानी से पश्चिमी दर्शकों को चकित कर दिया।

प्रसिद्ध स्पेनिश फिल्म निर्माता कार्लोस सौरा की बेटी अन्ना सौरा ने कहा कि इंटरनेट के युग में लोगों के पास दुनिया भर के कंटेंट तक पहुंच है और इसलिए सभी कहानियों के वैश्विक दर्शक हैं। उन्होंने इस तथ्य पर जोर दिया कि “ऐसी कहानियां जो इंसानों के रूप में हमारी हैं, उनका दुनिया भर में जुड़ाव होगा”। उन्होंने कहा कि ये कहानियां दुनिया में कहीं से भी हो सकती हैं। अन्ना सौरा ने कहा कि फिल्म समारोहों और ओटीटी ने वृत्तचित्रों और लघु फिल्मों को भी एक मंच दिया है और इसलिए, सभी के लिए एक बड़ा बाजार खुल गया है। हालांकि, उन्होंने कहा कि निर्माताओं और फिल्म निर्माताओं की जिम्मेदारी है कि वे दुनिया भर में परियोजनाओं को बढ़ावा दें। इस संदर्भ में, उन्होंने कहा कि कुछ विषय ऐसे हैं जो पूरी दुनिया में यात्रा कर सकते हैं और समझे जा सकते हैं और भाषा इसके लिए कोई बाधा नहीं है।

मशहूर अभिनेत्री तनिष्ठा चटर्जी ने वैश्विक दर्शकों के लिए कहानियों की अपील पर चर्चा में एक कलाकार का दृष्टिकोण पेश किया। उन्होंने कहा कि भारतीय दर्शक टीवी के प्रति अधिक अनुकूल हैं और सिनेमा उनके लिए गौण है। अभिनेत्री ने बताया कि भारतीय सिनेमा संस्कृति की तरह ही जोरदार और उल्लासपूर्ण है, जबकि पश्चिम में भावनाओं को अधिक सूक्ष्म तरीके से व्यक्त किया जाता है। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक बारीकियां भी देश-दर-देश बदलती रहती हैं।

तनिष्ठा चटर्जी ने यह भी कहा कि भावनाएं सार्वभौमिक होती हैं। उन्होंने कहा, “लेकिन जब विषय स्थानीय होता है, तो वह फैलता है।” अभिनेत्री ने कहा कि हमें कुछ ऐसा बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए जो सार्वभौमिक हो, बल्कि स्थानीय कहानियां बताने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्होंने, “संस्कृति और भावनाओं की सार्वभौमिक भाषा हमेशा यात्रा करती है।”

बॉबी बेदी ने अवतार जैसी फिल्मों का जिक्र किया, जिसमें भारत की एक स्थानीय कहानी ने वैश्विक सुपर स्टोरी का रूप ले लिया था। फारुख धोंडी ने याद दिलाया कि अमेरिकी सुपर हीरो फिल्मों के भी वैश्विक दर्शक हैं। इस पर बोलते हुए लूसी वॉकर ने कहा कि सुपरहीरो भी स्थानीय लोग ही होते हैं जो मौके का फायदा उठाते हैं।

चर्चा इस बात पर समाप्त हुई कि सार्वभौमिक भावनात्मक अपील वाली स्थानीय कहानियां दुनिया भर के दर्शकों को जीत लेंगी।

गुजरात की लोककथाओं के आसपास गहराई से समाई ‘कारखानू

आईएफएफआई में प्रदर्शित होने के बाद गुजराती सिनेमा में धूम मचाने के लिए तैयार: रुषभ थांकी, निर्देशक
‘गूगल मैट्रिमोनी’ लोगों के जीवन पर प्रौद्योगिकी के प्रभाव की खोज करती है: अभिनव जी अत्रे, फिल्म निर्माता

एक सच्ची कहानी ‘राडोर पाखी’ में स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी से पीड़ित एक लड़की का संवेदनशील चित्रण; अपने सपने पूरा करने के लिए कठिन परिस्थितियों से निकलकर उसकी सशक्त बनने की भावना : डॉ. बॉबी शर्मा बरुआ, निर्देशक

भारत के 55वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में तीन बेहतरीन फिल्में दिखाई गईं: गुजराती फिल्म ‘कारखानू’, असमिया फिल्म ‘राडोर पाखी’ और ‘गूगल मैट्रिमोनी’। दूरदर्शी निर्देशकों और निर्माताओं द्वारा निर्मित ये सिनेमाई रत्न रहस्य, हास्य, डरावनी, प्रामाणिक मानवीय संबंधों की तलाश और जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने की ताकत जैसे गहरे विषयों का पता लगाते हैं।

मीडिया से बातचीत में ‘कारखानू’ के निर्देशक रुषभ थांकी ने बताया कि यह फिल्म गुजरात की लोककथाओं के आसपास गहराई से जुड़ी हुई है। शुरुआत में इसे एक लघु फिल्म के रूप में बनाया गया था, लेकिन बाद में इसे एक पूरी फीचर फिल्म में बदल दिया गया। अभिनेता पार्थ दवे ने फिल्म को दो साल की यात्रा, एक व्यंग्य और एक-कट प्रोजेक्ट बताया, जो स्व-वित्तपोषित था, जिसने आईएफएफआई में इसकी स्क्रीनिंग के साथ गुजराती फिल्म उद्योग के लिए एक नई उपलब्धि हासिल की।

फिल्म ‘गूगल मैट्रिमोनी’ के लिए निर्देशक श्रीकार्तिक एस एस ने बताया कि यह फिल्म एक एंथोलॉजी (विभिन्‍न लेखकों की एक ही विषय पर लिखी रचनाओं का संग्रह) का हिस्सा है। फिल्म निर्माता अभिनव जी अत्रे ने बताया कि कहानी बताती है कि प्रौद्योगिकी किस तरह से जीवन को प्रभावित करती है। अभिनेता देव ने कहा कि टीम आईएफएफआई में मिली सराहना को महत्व देती है, जो उभरते फिल्म निर्माताओं को प्रेरित करती है। जब उनसे फिल्म की व्यावसायिक व्यवहार्यता के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि उनका ध्यान पैसा कमाने के बजाय एक सार्थक फिल्म बनाने पर था।

फिल्म ‘राडोर पाखी’ के निर्देशक डॉ. बॉबी शर्मा बरुआ ने बताया कि यह फिल्म स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी से पीड़ित एक लड़की का संवेदनशील चित्रण है। जब उनसे फिल्म के संयमित स्वर के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने बताया कि यह एक सच्ची, दिल को छू लेने वाली कहानी पर आधारित है। अभिनेत्री सुलख्याना बरुआ ने बताया कि ‘राडोर पाखी’ का हिस्सा बनना मानसिक और शारीरिक रूप से चुनौतीपूर्ण था, लेकिन एक बड़ा सम्मान था, क्योंकि उन्होंने एक वास्तविक जीवन की प्रेरणादायी शख्सियत का किरदार निभाया था।

फ़िल्म के बारे में:

कारखानू – ‘कारखानू’, जिसे ‘भारतीय फीचर-फ़िल्म’ श्रेणी में दिखाया जा रहा है, गुजरात की पहली ‘स्मार्ट हॉरर कॉमेडी’ है, जो विचित्र और भयानक “हॉन्टेड फ़ैक्टरी” को जीवंत करती है। काली चौदस की रात को, तीन बढ़ई एक भूतिया कार्यशाला में फंस जाते हैं, जहाँ विचित्र घटनाएँ उन्हें देर होने से पहले इसके रहस्यों को उजागर करने के लिए मजबूर करती हैं। रहस्य, हास्य और डरावनी कहानियों का एक रोमांचक मिश्रण, यह फ़िल्म एक अविस्मरणीय अनुभव का वादा करती है।

गूगल मैट्रिमोनी – ‘गूगल मैट्रिमोनी’, जिसे ‘भारतीय गैर-फीचर फिल्म’ श्रेणी में दिखाया जा रहा है, अंधे अनंथु की कहानी है, जो एकांत जीवन जीता है, और दृष्टि और सहायता के लिए अपने गूगल ग्लास पर निर्भर रहता है। अपनी दृष्टिहीनता के कारण मैट्रिमोनी साइट्स पर अस्वीकृति से संघर्ष करते हुए, उसकी दुनिया तब बदल जाती है जब उसका गूगल ग्लास एक महिला को उसकी ओर मुस्कुराते हुए देखता है, उसे किसी के साथ मजबूत जुड़ाव का अहसास होता है। यह फिल्म तकनीक से प्रेरित दुनिया में सच्चे मानवीय संबंध की खोज को दर्शाती है, जहाँ वास्तविकता और भ्रम अक्सर आपस में जुड़े होते हैं, और प्यार और स्वीकृति अंतिम इच्छाएँ बनी रहती हैं।

राडोर पाखी – ‘राडोर पाखी’ असम की एक महत्वाकांक्षी लेखिका ज्योति की सच्ची कहानी है, जिसे स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी का पता चला है, जिसके कारण वह बिस्तर पर पड़ी रहती है। अपनी शारीरिक चुनौतियों के बावजूद, वह लेखिका बनने के अपने सपने को पूरा करने में लगी रहती है। फिल्म में उसकी यात्रा पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें मानवीय भावना का लचीलापन और अपने सपनों को पूरा करने के लिए बाधाओं को पार करने में पाई जाने वाली ताकत को दिखाया गया है।