Monday, November 25, 2024
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सेंगोल हमारे स्वर्णिम अतीत का ही नहीं उज्ज्वल भविष्य का भी प्रतीक है

वे पूछते हैं कि किसका राज्याभिषेक होने जा रहा है, कौन-सा सत्तांतरण हुआ है कि संगोल स्थापित किया जा रहा है। लेकिन सत्तांतरण तो 1947 में हो चुका था और सेंगोल तो तभी भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जी ने ग्रहण किया था। यह बात अलग है कि बाद में वह संग्रहालय की चीज़ बना दिया गया। तो सत्तांतरण के प्रतीक को उसी के गौरवास्पद पर अधिष्ठित किया जा रहा है। सेंगोल बताता है कि दुनिया फ्लैट नहीं है, गोल है और अंततः वहीं लौटती है जहां उसे लौटना चाहिये था। सेंगोल यह भी बताता है कि सत्ता का चक्र परिवर्तन होता रहता है। वह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रहती है। जैसे गीता के ज्ञानांतरण की एक परंपरा है, वैसे ही सत्तांतरण की भी। आज मैं हूँ जहां कल कोई और था। ये भी इक दौर है वह भी एक दौर था। महाभारत के शांतिपर्व के राजधर्मानुशासनपर्व में सबसे पहले शिव इसे विष्णु को देते हैं।
महादेवस्ततस्तस्मिन् वृत्ते यज्ञे यथाविधि । जा दण्डं धर्मस्य गोप्तारं विष्णवे सत्कृतं ददौ॥
तदनन्तर ब्रह्माजीका वह यज्ञ जब विधिपूर्वक सम्पन्नहो गया, तब महादेवजीने धर्मरक्षक भगवान् विष्णुका सत्कार करके उन्हें वह दण्ड समर्पित किया
॥विष्णुरङ्गिरसे प्रादादङ्गिरा मुनिसत्तमः ।प्रादादिन्द्रमरीचिभ्यां मरीचिर्भृगवे ददौ ॥ भगवान् विष्णुने उसे अंगिराको दे दिया । मुनिवर अंगिराने इन्द्र और मरीचिको दिया और मरीचिने भृगु को  सौंप दिया ॥
 भृगुर्ददावृषिभ्यस्तु दण्डं धर्मसमाहितम्। ऋषयो लोकपालेभ्यो लोकपालाः क्षुपाय च ॥ क्षुपस्तु मनवे प्रादादादित्यतनयाय च। पुत्रेभ्यः श्राद्धदेवस्तु सूक्ष्मधर्मार्थकारणात् ॥
भृगुने वह धर्मसमाहित दण्ड ऋषियोंको दिया । ऋषियोंने लोकपालोंको, लोकपालोंने क्षुपको, क्षुपने सूर्यपुत्र मनु (श्राद्धदेव) को और श्राद्धदेवने सूक्ष्म धर्म तथा अर्थकी रक्षाके लिये उसे अपने पुत्रोंको सौंप दिया ॥ विभज्य दण्डः कर्तव्यो धर्मेण न यदृच्छया । दुष्टानां निग्रहो दण्डो हिरण्यं बाह्यतः क्रिया ॥ अतः धर्मके अनुसार न्याय-अन्यायका विचार करके ही दण्डका विधान करना चाहिये, मनमानी नहीं करनी चाहिये । दुष्टोंका दमन करना ही दण्डका मुख्य उद्देश्य है, स्वर्णमुद्राएँ लेकर खजाना भरना नहीं। दण्डके तौरपर सुवर्ण (धन) लेना तो बाह्यंग – गौण कर्म है ॥ व्यङ्गत्वं व शरीरस्य वधो नाल्पस्य कारणात् । शरीरपीडास्तास्ताश्च देहत्यागो विवासनम् ॥
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किसी छोटे-से अपराधपर प्रजाका अंग-भंग करना, उसे मार डालना, उसे तरह-तरहकी यातनाएँ देना तथा उसको देहत्यागके लिये विवश करना अथवा देशसे निकाल देना कदापि उचित नहीं है ॥ तं ददौ सूर्यपुत्रस्तु मनुर्वै रक्षणार्थकम् आनुपूर्व्याच्च दण्डोऽयं प्रजा जागर्ति पालयन् ॥ सूर्यपुत्र मनुने प्रजाकी रक्षाके लिये ही अपने पुत्रोंके हाथोंमें दण्ड सौंपा था, वही क्रमशः उत्तरोत्तर अधिकारियोंके हाथमें आकर प्रजाका पालन करता हुआ जागता रहता है॥इन्द्रो जागर्ति भगवानिन्द्रादग्निर्विभावसुः । अग्नेर्जागर्ति वरुणो वरुणाच्च प्रजापतिः ॥ भगवान् इन्द्र दण्ड-विधान करनेमें सदा जागरूक रहते हैंइन्द्रसे प्रकाशमान अग्नि, अग्निसे वरुण और वरुणसे प्रजापति उस दण्डको प्राप्त करके उसके यथोचित प्रयोगके लिये सदा जाग्रत् रहते हैं ॥ प्रजापतेस्ततो धर्मो जागर्ति विनयात्मकः ।
धर्माच्च ब्रह्मणः पुत्रो व्यवसायः सनातनः॥ जो सम्पूर्ण जगत्को शिक्षा देनेवाले हैं, वे धर्म प्रजापतिसे दण्डको ग्रहण करके प्रजाकी रक्षाके लिये सदा जागरूक रहते हैं । ब्रह्मपुत्र सनातन व्यवसाय वह दण्ड धर्मसे लेकर लोकरक्षाके लिये जागते रहते हैं |
 व्यवसायात् ततस्तेजो जागर्ति परिपालयत् । ओषध्यस्तेजसस्तस्मादोषधीभ्यश्च पर्वताः ॥
पर्वतेभ्यश्च जागर्ति रसो रसगुणात् तथा । जागर्ति निरृतिर्देवी ज्योतींषि निर्ऋतेरपि ॥
व्यवसायसे दण्ड लेकर तेज जगत्की रक्षा करता हुआ सजग रहता हैतेजसे ओषधियाँ, ओषधियोंसे पर्वत, पर्वतोंसे रस, रससे निर्ऋति और निर्ऋतिसे ज्योतियाँ क्रमशः उस दण्डको हस्तगत करके लोक- रक्षा के लिये जागरूक बनी रहती हैं ॥
वेदा: प्रतिष्ठा ज्योतिर्थ्यस्ततो हयशिराः प्रभुः ।ब्रह्मा पितामहस्तस्माज्जागर्ति प्रभुरव्ययः ॥ज्योतियोंसे दण्ड ग्रहण करके वेद प्रतिष्ठित हुए हैं। वेदोंसे भगवान् हयग्रीव और हयग्रीवसे अविनाशी प्रभु ब्रह्मा वह दण्ड पाकर लोक-रक्षाके लिये जागते रहते हैं॥ पितामहान्महादेवो जागर्ति भगवान् शिवः । | विश्वेदेवाः शिवाच्चापि विश्वेभ्यश्च तथर्षयः ॥ ॥ ऋषिभ्यो भगवान् सोमः सोमाद् देवाः सनातनाः । | देवेभ्यो ब्राह्मणा लोके जाग्रतीत्युपधारय ॥ पितामह ब्रह्मासे दण्ड और रक्षाका अधिकार पाकर महान् देव भगवान् शिव जागते हैं। शिवसे विश्वेदेव, विश्वेदेवोंसे ऋषि, ऋषियोंसे भगवान् सोम, सोमसे सनातन देवगण और देवताओंसे ब्राह्मण वह अधिकार लेकर लोक-रक्षाके लिये सदा जाग्रत् रहते हैं। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो ॥
प्रजा जागर्ति लोकेऽस्मिन् दण्डो जागर्ति तासु च ।सर्वं संक्षिपते दण्डः पितामहसमप्रभः ॥ इस लोकमें प्रजा जागती है और प्रजाओंमें दण्ड जागता है। वह ब्रह्माजीके समान तेजस्वी दण्ड सबको मर्यादाके भीतर रखता है ॥ जागर्ति कालः पूर्वं च मध्ये चान्ते च भारत ।
ईश्वरः सर्वलोकस्य महादेवः प्रजापतिः ॥ भारत ! यह कालरूप दण्ड सृष्टिके आदिमें, मध्यमें और अन्तमें भी जागता रहता है। यह सर्व- लोकेश्वर महादेवका स्वरूप है। यही समस्त प्रजाओंका पालक है ॥
तो दंड की ट्रांसफेरिबिलिटी- अंतरणीयता ही तो लोकतंत्र की खूबी है। यह भान रहना कि – तुझसे पहले भी जो यहाँ तख़्ते-नशीं था। उसको भी ख़ुदा होने का इतना ही यक़ीं था।
लेकिन उसी के साथ साथ इस बात का लगातार अनुस्मरण कि वह एक महान परंपरा का अंग है और उसके निर्वाह की भी एक प्रतिश्रुति है।
जो बात महाभारत के इस दंड प्रसंग में खींचती है वह है जागरूकता की…सजगता की। उस पर इतना बल कोई लक्ष्य किये बिना नहीं रह सकता। या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
और इस प्रजातंत्र के लिए यह बात कितनी प्रेरक है कि- प्रजा जागर्ति लोकेऽस्मिन् दण्डो जागर्ति तासु च ।सर्वं संक्षिपते दण्डः पितामहसमप्रभः॥ कि इस लोकमें प्रजा जागती है और प्रजाओं में दण्ड जागता है। वह ब्रह्माजीके समान तेजस्वी दण्ड सबको मर्यादाके भीतर रखता है ॥
तो यह दंड राजधर्म को अनुशासन में रखने के लिए है। इसलिए पर्व का नाम राजधर्मानुशासन है। यहाँ दंडशक्ति प्रजा के पास भी है। तो यह परस्पर मर्यादाओं का, चेक एंड बैलेंस का खेल है। प्रजा की जागरूकता- eternal vigilance is the price of democracy, if not of liberty. यह लोकतांत्रिकता जो दंड की भारतीय अवधारणा में है वह उस मोनार्की से तत्वतः भिन्न है जो sceptre धारण करवाती है राजा को जैसे अभी किंग चार्ल्स को करवाया। उनका तो दंड ही बदलता रहता है। लेकिन वहाँ भी वह राजा की आध्यात्मिक भूमिका का प्रतीक है। तिरुक्कुरल में सेनकोनमाई अध्याय में इस सेंगोल को कवि तिरुवल्लुवर ने विज्ञान और धार्मिकता, वेदों और उसमें वर्णित गुणों का आधार कहा है।
वे कहते हैं सेंगोल के बारे में :
அந்தணர் நூற்கும் அறத்திற்கும் ஆதியாய்
நின்றது மன்னவன் கோல்.
कि विद्वान जो लिखते हैं और जिन गुणों को महत्त्व देते हैं, उन्हीं का मूल यह सेंगोल है। तिरुक्कुरल के अनुसार यह संसार जैसे बारिश के लिए आकाश की ओर देखता है, वैसे ही लोग न्याय के लिए सेंगोल को देखते हैं:
வானோக்கி வாழும் உலகெல்லாம் மன்னவன்
கோல்நோக்கி வாழுங் குடி.
सेंगोल राजा और धर्म के बीच एक संवाद का प्रतीक है।सेंगोल में सबसे ऊपर एक वृषभ है।वृषभ को धर्म का प्रतिनिधि कामायनी के आनंद सर्ग में जयशंकर प्रसाद जी ने कहा ही था तो वह उसी शास्त्रीय दृष्टि की आधारभूमि से कहा था। धर्म साक्षी है और निरन्तर शासक को सेंगोल देख रहा है।सेंगोल आग्रह है, संग्रह नहीं। यह शासन की शिवता की ओर धर्म-दृष्टि हैऔर यह किसी धर्म विशेष की बात नहीं है, जिनसेनाचार्य ने आदि पुराण में वृषभ को याद किया। उन्हें आदि नाथ भी कहा गया। ऋग्वेद में कहा गया : अनर्वाण वृषभमन्द्रजित बृहस्पति वर्ध या नव्यमर्के (1/19 (1यह भी कि : ‘एक देवे वृष भो युक्त आरती द‌वावची स्सारथिरस्व केशी:’ यह भी कि ‘दिवक्षा असि वृषभ सत्य शुष्मोऽस्मभ्यं सु मधवन्योधि गोदा :’, यह भी कि ‘ त्वं रथ प्रभरो यो धमृ‌ध्वभावो युध्यन्तं वृषभ दशयम्’, यह भी कि ‘एबारे वृषभासुर्तडसिन्सूर्या वयः, और यह भी कि ‘प्राग्नये वाचमीरय वृषभाय क्षितीनाम्’, यह भी कि ‘वृषभो युम्नवाँ असिसम्ध्वरेस्थिध्यसे’ और ‘मसत्ववन्तं वृषभ वाव धानमकवारि दिव्य शासमिन्द्रम्।
शिवपुराण वृषभ को एक जननेता बताता है, चौंसठ करोड़ का। यानी गणतंत्र का प्रतीक है, बौद्धधर्म में वृषभ सबसे बड़े क्रिया तंत्रों में माना जाता है।संस्कृत में वृषभ अपनी कक्षा का सर्वश्रेष्ठ या प्रतिष्ठित कुछ हो – नरवृषभ, द्विजवृषभ आदि कहलाता हैयानी वृषभ excellence का प्रतीक है – किं नास्ति त्वयि सत्यमात्य वृषभे यस्मिन् करोमि स्पृहाम्! शक्ति और स्थायित्व का प्रतीक तो वह है ही, सेंगोल का मंगलवृषभ कल्याणमूलक है, स्वस्तिमूलक है। किसी ने वृषभ के बारे में यह भी कहा कि वाहनं पशुनाथस्य
कृषकस्य प्रिय: सखा।
निष्कामकर्मयोगी सः
क्षेत्रं कर्षति आजन्म॥
तो किसानों के इस संगी से बैर करने वाले कौन हैं? इसमें आया क्षेत्र शब्द तो गीता के संदर्भ में कुछ और बड़ी आस्तित्विक यादें कराता है, पर यहाँ खेत ही समझ लें।
तो दिक्कत जिन्हें इसके धार्मिक संदर्भों से है, उनकी बीमारी का इलाज तो क्या होगा, पर वे अपने देश की मिट्टी पर पसीना बहाने वाले किसान के चेहरे को ही याद कर लें, इसके बहाने। वैसे संविधान की मूल प्रति पर जब सारे धार्मिक चिन्ह और चित्र लगाये जा रहे थे तब ये सारी चिन्ताएँ कहाँ ग़ायब हो गईं थीं?
ओह वो भी नहीं, एक लोकतंत्र में राजदंड कैसे हो सकता है? अरे इसीलिए तो महाभारत का वह हिस्सा ऊपर उद्धृत किया मैंने। राज का मतलब शासन। राजा नहीं। राजदंड है यह। राजादंड नहीं।
लेकिन प्रयोग तो इसका चोल राजाओं के समय हुआ?
यों तो अशोक चक्र भी राजा का ही था। उस पर आपत्ति क्यों न हुई? अकबर बाबर औरंगजेब टीपू सुल्तान कर्जन कार्नवालिस डलहौज़ी पर क़सीदे पढ़ने वाले उनके राजा होने से तो विचलित नहीं हुए, चोलों से क्यों होना? और चोल राज्य तो प्रशासनिक विकेंद्रीकरण का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण था- यह बात तो इन आपत्तिकर्ताओं की परमपूज्या रोमिला थापर तक स्वीकारतीं हैं कि नहीं। उत्तरमेरूर पर उनका लिखा पढ़िये।
अब कुछ लोगों का कहना यह है कि सेंगोल से एक धर्म-विशेष की गंध आती है।
पर इस गंध का क्या करें। यह तो हमारे राष्ट्रीय पुष्प कमल से भी आती है। कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद में। श्वेत पद्मासना में। मणिपद्म में। पद्म पुराण में। जिस अशोक की लाट को सँभाले फिरते हैं, उसे ध्यान से देखिए तो अधोमुखी कमल वहाँ भी है। जैन सिद्धांतकोष कमलाकार द्वीपों से लोक की रचना बताते हैं।पद्मिनी नायिका तो है ही।
यह गंध कहाँ कहाँ से नहीं आती? राष्ट्रीय पक्षी मोर है। अब क्या करें कि मोरपंख कृष्ण का प्रतीक है और जा के सर मोरमुकुट पर वारी जाने वाली मीरा है। देवताओं के सेनापति कार्तिकेय का वाहन मोर है।तमिलनाडु में कई जगह वह ग्राम देवता माना जाता है। मोरपंख में नवग्रहों का वास माना जाता है। जैन धर्म में समवशरण की धर्मध्वजा में मोर अंकित होता है।
यह गंध क्या राष्ट्रीय पशु व्याघ्र से नहीं आती? क्या अथर्ववेद का व्याघ्र सूक्त(४.३) पढ़ा? वायुपुराण उसे वैश्वानर अग्नि का प्रतीक मानता है। यज्ञ में आहुति के रूप में जब मृदा खनन करके उत्तरवेदी का निर्माण किया जाता है, तब आज्य से व्याघारण कृत्य के रूप में आज्य की आहुतियां दी जाती हैं , वह किस व्याघ्र के प्रतीकार्थ को पुष्ट करतीं हैं? अथर्ववेद शौनक संहिता सिंह को सर्वा विश: का भक्षण करने वाला और व्याघ्र को शत्रुओं से रक्षा करने वाला बताती है।
ये सब चुनते समय इनकी धार्मिक गंध का सवाल नहीं आया तो सेंगोल के वक़्त क्यों आ रहा है?
आप उस संस्कृति के देश में कर ही क्या सकते हो जहां प्रकृति के जीव जंतु वनवृक्ष सब के प्रति एक पूजाभाव है। किसे भी चुनिये निकल ही आयेगा श्रद्धा का भाव। क्या वे संस्कृतियाँ इन्हें इस बात के लिए दंडित करेंगी कि इनमें यह भाव क्यों है?
हम तो बैल को मारकर खा जाते हैं, ये जाहिल पूजा करते हैं- यही न। पर गंगो-जमुन कल्चर ऐसे नहीं चलती। यहाँ तो यह वैदिक निर्देश हैं कि जिस किसी के माता पिता होते हैं, या जो किसी के माता पिता हो सकते हैं-उन्हें मत मारो। वह इस सृष्टि के वात्सल्य-वातावरण का विनाश है।
और गंगोजमुन के नाम पर आप किसी देश या संस्कृति को उसकी pre-existence के लिए सजा देते नहीं रह सकते।
सेंगोल की संसद में स्थापना के मायने ये हैं कि जिसे पीपुल्स विल कहते हैं, उसका राज चलेगा। यह पार्लियामेंटरी सुप्रीमेसी- संसद् की सर्वोच्चता- का सिद्धांत ही नहीं है, उसमें वृषभ की शिखर उपस्थिति के भी मायने हैं। धर्म पुराने समय का संविधान या क़ानून था। संविधान या क़ानून नये समय का धर्म है। उसी का दंड चलता है।
समस्या उन्हें उत्पन्न होती है जो इसे योरोपीय दंडिका sceptre से कन्फ्यूज करते हैं। वहाँ वह एक तरह का राजशाही प्रतीकवाद ( regal symbolism) है, वहाँ वह राजा के प्राधिकार और दिव्याधिकार का प्रतीक है। इंग्लिश मोनार्की हो या जो फ्रेंच मोनार्की थी—सब जगह sceptre है, दंडिका है।वहाँ वह राज्याभिषेकोत्सवी महत्त्व का है।हमारे यहाँ उसकी एक शास्त्रीय पृष्ठभूमि है।
शायद पुरानी सभ्यताओं में भी रही हो। मसलन इंका सभ्यता में tupus और chunchus हुआ करते थे।पर यूरोपीय औपनिवेशिकों ने उनके शास्त्र नष्ट कर दिये। चिली-अर्जेंटीना की माप्चू सभ्यता में लोंको लोगों के पास भी kultrun नामक राजदंड थे।इथियोपिया में Sema नामक राजदंड था। जुलू लोगों के पास knobkierie नामक दंड था। योरोपीय साम्राज्यवादियों ने पुरानी सभ्यताओं के ज्ञान-ग्रंथ डेविल्स वर्क समझकर नष्ट कर दिये।
भारत में तो यह विनाश कार्य उनके आने के पहले ही से चल रहा था। फिर भी बहुत कुछ बचा रह गया। और यह बहुत विकसित संस्कृति थी। ज़बर्दस्त प्रतिरोध शक्ति वाली। यह दंड की जिस अवधारणा पर चलती थी, वह न्यायधर्म था और भारतीयों को अत्याचारी शासनों से लड़ते रहने की असमर्पित शक्ति वही देता था।
(लेखक मध्य प्रदेश के सेवा निवृत्त आईएएस अधिकारी हैं और धर्म व अध्यात्म से जुड़े विषयों पर कई पुस्तकें लिख चुके हैं, संप्रति भोपाल से प्रकाशित हिंदी मासिक अक्षरा के संपादक हैं) 
उसी जन-शक्ति की प्रतीक स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र संसद् में यह सेंगोल स्थापित हो रहा है।

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