रोम एक दिन में नहीं बना था। हमें स्वतंत्रता एक दिन या एक साल या एक सदी में प्राप्त नहीं हुई थी। यह संघर्ष भी बहुत लम्बा है और कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती। 125 करोड़ देशवासियों की आत्मा को झकझोरना कोई आसान काम नहीं है। बिना समुचित साधनों के एक आश्चर्यजनक चेतना देश में जगा दी अरविन्द ने। वाह! बहुत खूब!! साधन सम्पन्न भ्रष्टाचरियों के हर चक्रव्यूह को तोड़ कर, इतने कम समय में, साधनो के नितान्त अभाव में, बाहर और अन्दर के विरोध के स्वरों में, "आप" को जिस स्थान पर आज खड़ा कर दिया है, क्या वह एक अचम्भा नहीं है? स्वराज हासिल करना एक अभूतपूर्व चमत्कार है वह अवश्य होगा।
अरविन्द की द्र्ढ़ और समझौता न करनेवाली रणनीति बहुत सफ़ल रही जिसका कारण है उनकी अन्तरात्मा द्वारा निरन्तर प्रेरणा और हर कठिन से कठिन चक्रव्यूह का द्रढ़ता से चुनौती समझ कर सामना करना। बहुत से विरोधियों ने यथा सम्भव बिघ्न डालने, एक से एक गन्दे आरोप लगाने, बदनाम करने के असफ़ल प्रयास किये। कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। आज वे वाध्य हैं स्वय अपनी रणनीति को बदलने के लिये। अरविन्द ने सिद्ध कर दिखाया कि पैसे के अभाव में भी एक आम आदमी चुनाव लड़ सकता है और जीत भी सकता है। कितना बड़ा परिवर्तन है यह आज की कुन्ठित व्यवस्था में!!!! देश में यह परीक्षण बहुत सीमा तक सफ़ल रहा। लोग समझ चुके हैं कि देश में भ्रष्टाचाररूपी कस का बध करने के लिये और सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के लिये कृष्ण ने जन्म ले लिया है। वह अपने राजनीतिक वात्सल्य के कारण यदि आज उनका बध नहीं कर सकता तो कल बिल्कुल निश्चितरूप से करेगा। आज बहुत डरे हुए, सहमे हुए और घबराए हुए है नूरा कुश्ती करने वाले भ्रष्ट सत्तापक्ष और विपक्ष। सत्तापक्ष तो जान गया है कि यह उनका अन्तिम कार्यकाल है और शायद राजकुमार का राज्याभिषेक भी न हो पाए। शायद कोई जनलोकपाल जैसा� चमत्कार ही उनके लिये एक आशा की किरण बन सकता है। शायद इसीलिये सत्तापक्ष ने इसी सत्र में लोकपाल बिल और महिला आरक्षण बिल पास करवाने का नाटक भी शुरू कर दिया है। अगर वह वास्तव में इस मामले में गम्भीर हैं तो हो सकता है कि जनता के क्रोधरूपी गुब्बारे के फ़ूटने से पूर्व उसकी कुछ हवा निकाल कर जनाक्रोश कम करने की कोशिश करें। आशा तो कम ही नज़र आती है।
जहां एक ओर देश के बिके और बिकाऊ� मीडिया ने चन्द पैसों के खातिर इस आन्दोलन को ध्वस्त करने में जयचन्द और मीर ज़ाफ़र की भूमिका निभाई, वहीं प्रसिद्ध पत्रकार रवीश कुमार सच्चाई का साथ देकर आज जनता के चहेते बन गये: “अरविंद का मूल्याँकन सीटों की संख्या से नहीं होना चाहिए । तब भी नहीं जब अरविंद की पार्टी धूल में मिल जाएगी और तब भी नहीं जब अरविंद की पार्टी आँधी बन जाएगी । इस बंदे ने दो दलों से लोहा लिया और राजनीति में कुछ नए सवाल उठा दिये जो कई सालों से उठने बंद हो गए थे । राजनीति में एक साल कम वक्त होता है मगर जब कोई नेता बन जाए तो उसे दूर से परखना चाहिए । अरविंद को हरा कर न कांग्रेस जीतेगी न बीजेपी । तब आप भी दबी ज़ुबान में कहेंगे कि राजनीति में सिर्फ ईमानदार होना काफी नहीं है । यही आपकी हार होगी । जनता के लिए ईमानदारी के कई पैमाने होते हैं ।
इस दिल्ली में जमकर शराब बंट गई मगर सुपर पावर इंडिया की चाहत रखने वाले मिडिल क्लास ने उफ्फ तक नहीं की । न नमो फ़ैन्स ने और न राहुल फ़ैन्स ने । क्या यह संकेत काफी नहीं है कि अरविंद की जीत का इंतज़ार कौन कर रहा है । हार का इंतज़ार करने वाले कौन लोग हैं ? वो जो जश्न मनाना चाहते हैं कि राजनीति तो ऐसे ही रहेगी । औकात है तो ट्राई कर लो । कम से कम अरविंद ने ट्राई तो किया । शाबाश अरविंद । यह शाबाशी परमानेंट नहीं है । अभी तक किए गए प्रयासों के लिए है । अच्छा किया आज मतदान के बाद अरविंद विपासना के लिए चले गए । मन के साथ रहेंगे तो मन का साथ देंगे ।“ —रवीश कुमार (कस्बा ब्लॉग से)
दिल्ली के चुनाव में “आप” के 12,000 समर्थक जिनमें 4,000 छात्र (400 IIT दिल्ली से) डेड़ लाख प्रभारी जो कि अपने निकट के 20 परिवारों से सम्पर्क बनाए रखे, कूद पड़े थे। हज़ारों उच्च शिक्षा प्राप्त युवा, इंजीनियर, डाक्टर, साफ़्टवेयर इंजीनियर, entrepreneurs तथा अन्य व्यवसायों से जुड़े व्यक्ति आम आदमी पार्टी से बिना अपेक्षा निस्वार्थ जुड़े हैं। उनका केवल एक ही बहुत बड़ा स्वार्थ है “सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन” ताकि देश में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना हो सके। इस आन्दोलन को चलाने वाली आम आदमी पार्टी और इससे जुड़े यह सभी लोग बधाई के पात्र हैं। डटे रहे और डट कर ज़ालिमों का मुकाबला किया। यही सबसे महत्व्पूर्ण है।
We shall have to fight many such battles before winning the war.
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साभार –नवभारत टाईम्स से