खूबसूरत शीश महल का दरवाजा बंद कर जब गाइड माचिस की तीली जलता है तो दीवारों पर जड़े रंग बिरंगे कांचों से झिलमिलाते असंख्य अक्षों की आभा महल को रोशन कर सैलानियों को जादुई सम्मोहन की दुनिया में लेता है। सैलानियों के मुंह से बरबस निकल पड़ता है वन्डरफुल,अवेसम, मार्बल्स ! नज़ारा इतना जादुुई कि अपलक देखते रहें। आज हम आपको ऐसे ही महल के बारे में बताने जा रहे हैं जो आमेर किले की शान है। आप इस बार बरसात में किसी एतिहासिक स्थल देखने का कार्यक्रम बना रहे है तो अपने परिवार और मित्रों के साथ यहाँ जा सकते हैं।
पर्यटकों की खास पसंद बन रहा यह महल भारत का आइकॉनिक टूरिज्म केंद्र है जिसे हर वर्ष करीब 65 लाख देश – विदेश के पर्यटक देखने आते हैं। इस एतीहासिक एवं प्राकृतिक साइट को यूनेस्को ने विश्व विरासत घोषित किया है।
आइये ! हमारे साथ – साथ आप भी कीजिये इन महलों की सैर। हम सूरजपोल अथवा चांदपोल से प्रवेश कर आमेर महल के जलेब चौक के अन्दर पहुंच ते हैं, जहाँ सिंहपोल के निकट मानसिंह प्रथम द्वारा बंगाल से लाई गयी श्री शिलादेवी की प्रतिमा मंदिर में स्थापित है। यह मंदिर दर्शनार्थियों के लिये प्रातः 6 से 12 तथा सायं 4 से 8 बजे तक खुला रहता है। शिलादेवी के मंदिर के बांयी ओर दोहरी सुरक्षा प्रणाली युक्त विशाल सिंहपोल है। सिंहपोल के दाहिने भाग में बने हुए भित्ति चित्रों में 19वीं शताब्दी के मुगल प्रभाव को देखा जा सकता है।
सिंह पोल के अन्दर से प्रवेश कर हम दीवाने आम परिसर में पहुँचते हैं। यहाँ राजा का आम दरबार लगता था। यह इस्लामी व हिन्दू स्थापत्य कला के सम्मिश्रण का बेहतरीन नमूना है। ऊपर से समतल लेकिन अन्दर से अर्द्ध.गुम्बदाकर छत वाले दीवाने आम का निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह प्रथम द्वारा (1622-1667) कराया गया था। दीवाने आम के पीछे भारतीय- ब्रिटिश स्थापत्य शैली का बना मजलिस विलास है। इसे सवाई रामसिंह ने (1835-1880) करवाया था, जहाँ विभिन्न प्रकार के मनोरंजन के कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे।
दीवाने आम की दक्षिणी दिशा में भव्य भित्ति चित्रों से सजा हुआ बड़ा दरवाजा गणेशपोल कहलाता है। गणेशपोल राजमहल के आवासीय भाग का मुख्य प्रवेश द्वार है। द्वार के बाहरी भाग में ललाट बिन्दु में अंकित गणेश और फारसी- मुगल शैली के चित्रों से सुसज्जित द्वार की भित्तियां अलंकृत हैं। स्थापत्य एवं चित्रकला की दृष्टि से आमेर का गणेशपोल आज विश्व प्रसिद्ध प्रवेश द्वार है तथा राजस्थान की कलात्मक धरोहर भी। यह लगभग 50 फीट ऊंचा व 50 फीट चौड़ा है। इसका निर्माण मिर्जा राजा जयसिंह ने (1700.1743) करवाया। पहले यह द्वार बहुत सादगी लिए था परन्तु राजा जयसिंह द्वारा इसे भव्य एवं कलात्मक स्वरूप दिया गया। संगमरमर की सीढि़यों पर चढ़कर ही इस द्वार तक पहुँचा जा सकता है। इस द्वार पर पाँच मेहराबें बनी हुई हैं। इन पांचों मेहराबों के खण्डों में चारों ओर फूल-पत्तियों का चित्रण है। हरे रंग के आराइश पद्धति के इजारे बने हैं तथा इन पर चारों ओर पीली पट्टियां बनी हुई हैं। यह चित्र आला गीला,फ्रेस्कोद्ध पद्धति से बने हैं। द्वार के ऊपर चतुर्भुज गणेश चौकी पर पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। गणेशपोल के बांयी ओर एक अन्य दीवार पर गणेश के साथ रिद्धि -सिद्धि का अंकन है। आज यह पोल अपने उत्कृष्ट स्थापत्य, चित्रों के भव्य संयोजनए, मेहराबों के उचित अनुपात के कारण पर्यटकों के विशेष आर्कषण का केन्द्र बना हुआ है।
गणेशपोल से प्रवेश कर महल परिसर के मध्य में फव्वारों से युक्त मुगल शैली का उद्यान नज़र आता है। उद्यान के पूर्व में आमेर महल का सबसे सुन्दर और महत्वपूर्ण खण्ड जय मंदिर है, जिसे दीवाने खास व शीशमहल भी कहा जाता है। चूने और गज मिट्टी से बनी दीवारों और छतों पर जामिया कांच या शीशे के टुकड़ों से की गयी सजावट के कारण इसे शीशमहल कहा जाता है। सफेद पत्थर से बने इसके स्तम्भों और दीवारों पर भैसलाना के काले पत्थर की पट्टिकाओं तथा फूल पौधों तितलियों की बारीक विशिष्ट कलाकारी और एक ही आकृति में दो या दो से अधिक आकृतियों का समावेश शिल्पकला का अनूठा नमूना है। शीशमहल के दोनों ओर के बरामदों में भी रोशनदानों में धातु की जालियां काटकर बनाये हुए राधा- कृष्ण, कृष्ण- गोपिकाएं और पुष्प सज्जा में भी रंगीन कांच के छोटे टुकड़े लगाकर कलात्मक सज्जा की गयी है।
शीशमहल के बरामदे के उत्तरी कोने से जा रही सीढि़यों और खुर्रा मार्ग से हम गणेशपोल के ऊपर बने सुहाग मंदिर में पहुँचते हैं। सुहाग मंदिर से पूर्व में उतर कर छतरी के नीचे बांये हाथ की ओर गलियारे के अन्त में जो खुली छत हैए उसे चांदनी कहा जाता है। इस चांदनी पर राजाओं के समय में नृत्य एवं संगीत के आयोजन किये जाते थे। चांदनी से वापस लौटकर सीढि़यों से ऊपर चढ़कर शीशमहल की छत पर बना सुन्दर जसमंदिर है। शीश महल की तरह जस मंदिर की सजावट भी मुगल फारसी शैली के प्रतीकों तथा कांच के टुकड़ों से की गयी है। इसमें ग्रीष्म काल में शीतल वायु की व्यवस्था की हुई है।
जस मंदिर से आगे छोटे दरवाजे से एक कक्ष में होते हुए हम लम्बे गलियारे में पहुंच जाते हैं। इस गलियारे की ऊंची दीवार महल को दो भागों में विभाजित करती है। गलियारे से होते हुए हम मानसिंह महल में प्रवेश करते हैं जो पत्थरों के सुन्दर झरोंखों से सुसज्जित है। इसमें महाराजा मानसिंह प्रथम का निजी आवासीय कक्ष व पूजा गृह है। इसके दरवाजों व दीवारों पर धार्मिक चित्र बने हुए हैं। मानसिंह महल के नीचे उतरने वाले किसी भी सीढ़ी या खुर्रा मार्ग से मानसिंह महल के चौक में पहुँचते हैं। महल के भूतल पर रानियों के 12 आवासीय कमरे बने हैं। मानसिंह महल के चौंक के बीच में सवाई रामसिंह के समय की बनी खुली बारादरी है। चौक के उत्तरी- पूर्वी भाग में जो वृताकार दिखाई देते हैं इसके नीचे एक बड़ा जल भण्डार भूमिगत टांका बना है।
मानसिंह महल के नीचे के हिस्से से पश्चिम- उत्त्तर की ओर बांयी तरफ खुर्रा मार्ग से लौटने पर शीशमहल के सामने उद्यान के पश्चिमी दिशा में बने रानियों के आवासीय खण्ड को सुख निवास कहा जाता है। यहाँ भी ग्रीष्म ऋतु में शीतल वायु की व्यवस्था है। यहाँ से वापस गणेशपोल और दीवाने आम होते हुए सिंहपोल की सीढि़यां उतर कर पुनः बाहर जलैब चौक में आ जाते हैं। जहाँ से हम आमेर के पूर्व वैभव के प्रतीक स्मारकों आदि का आनन्द ले सकते हैं। यहां हम हाथी की सवारी का आनन्द भी उठा सकते हैं। किले के पार्श्व में एक रास्ता हमें भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित जगत शिरोमणि वैष्णव मंदिर ले जाता है, जिसका तोरण सफ़ेद संगमरमर का बना है और उसके दोनों ओर हाथी की विशाल प्रतिमाएँ हैं।
जयपुर राज्य के कछवाहा राजवंश की प्राचीन राजधानी जयपुर में थी। कछवाहा राजपूतों के आगमन से पहले आमेर पर सूसावत मीणों का अधिकार था। ग्यारवीं शताब्दी में सोढ़देव कछवाहा के पुत्र दूलाराम ने ढूंढाड़ प्रदेश में कछवाह राजवंश की नींव रखी। उसके पुत्र काकील ने सूसावत मीणों से आमेर को अपने अधिकार में लिया। महत्वाकंक्षी मानसिंह प्रथम ने आमेर में पुराने महलों के स्थान पर अरावली पर्वत श्रंखला की पहाडि़यों के बीच 16वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में वर्तमान राजमहलों का निर्माण प्रारम्भ किया। मानसिंह प्रथम के बाद के शासकों मिर्जा राजा जयसिंह प्रथम तथा सवाई जयसिंह द्वितीय ने अपने स्थापत्य प्रेम और अपनी कल्पना के अनुरूप समय.समय पर आवश्यकतानुसार मानसिंह द्वारा बनवाये गये भवनों में संशोधन, संवर्धन, आन्तरिक सज्जा तथा अलंकरण के कार्य करवाये।
जयपुर से 12 किलोमीटर उत्तर में स्थित आमेर दुर्ग जाने के लिये जयपुर से किराये की टैक्सी, ऑटोरिक्शा, नगर बस सेवा या निजी कार अच्छे विकल्प हैं। महल तक पर्यटकों के लिये हाथी की सवारी उपलब्ध रहती है। निजी कारें, जीप व टैक्सियाँ किले के पिछले मार्ग से ऊपर जलेब चौक तक ले जाती हैं। यदि मौसम अच्छा हो तो पैदल मार्ग सबसे सस्ता व सरल विकल्प है व अधिकांश पर्यटक पैदल मार्ग का प्रयोग करते हैं व सूरज पोल द्वार से प्रवेश करते हैं। आमेर दुर्ग की तलहटी में मावठा झील स्थित है उसी के मध्य सुगंधित केसर की क्यारीयाँ बनी हुई थी ! जिससे हवा के साथ-साथ केसर की सुगंधित खुशबु दुर्ग में पहुँचती थी ।
इसका निर्माण 1664 ई. में मिर्जा राजा जयसिंह ने करवाया था। झील के मध्य के दिलाराम बाग भी मन मोह लेते हैं। आमेर से ही एक रास्ता जयगढ़ किले की और जाता है। यहां विश्व की सबसे बड़ी तोप जयबाण विषेश रूप से दर्शनीय है। पहाड़ों की हरियाली के बीच आमेर बने आमेर और जय गढ़ के किले और महल इतिहास की अनुपम धरोहर हैं जिन्हें कई फिल्मों में शूट किया गया है। जयपुर देश के सभी प्रमुख पर्यटन स्थलों से हवाई,रेल एवं बस सेवा से जुड़ा है। अंतररास्ट्रीय हवाई अड्डा जयपुर के सांगानेर में स्थित है। जयपुर में हर बजट के होटल और धर्मशालाओं की कोई कमी नहीं है।