प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि का पर्व फाल्गुण मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। महाशिवरात्रि शिवत्व का जन्म दिवस है। शिव से मिलन की रात्रि का यह सुअवसर है। इसी दिन निशीथ अर्धरात्रि में शिवलिंग का प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये यह पुनीत पर्व सम्पूर्ण देश एवं दुनिया में उल्लास और उमंग के साथ मनाया जाता है। यह पर्व सांस्कृतिक एवं धार्मिक चेतना की ज्योति किरण है। इससे हमारी चेतना जाग्रत होती है, जीवन एवं जगत में प्रसन्नता, गति, संगति, सौहार्द, ऊर्जा, आत्मशुद्धि एवं नवप्रेरणा का प्रकाश परिव्याप्त होता है। यह पर्व जीवन के श्रेष्ठ एवं मंगलकारी व्रतों, संकल्पों तथा विचारों को अपनाने की प्रेरणा देता है।
भौतिक एवं भोगवादी भागदौड़ की दुनिया में यों तो शिवरात्रि का व्रत बहुत जटिल माना गया है, लेकिन भोलेनाथ भाव के भूखे हैं, कोई भी उन्हें सच्ची श्रद्धा, आस्था और प्रेम के पुष्प अर्पित कर सकता है। दिखावे, ढोंग एवं आडम्बर से मुक्त विद्वान-अनपढ़, धनी-निर्धन कोई भी अपनी सुविधा तथा सामथ्र्य से उनकी पूजा और अर्चना कर सकता है। शिव न काठ में रहता है, न पत्थर में, न मिट्टी की मूर्ति में, न मन्दिर की भव्यता में, वे तो भावों में निवास करते हैं।
यह पर्व महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन पूजा एवं अभिषेक करने पर उपासक को समस्त तीर्थों के स्नान का फल प्राप्त होता है। शिवरात्रि का व्रत करने वाले इस लोक के समस्त भोगों को भोगकर अंत में शिवलोक में जाते हैं। शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए। शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प तथा प्रसाद में भांग अति प्रिय हैं। लौकिक दृष्टि से दूध, दही, घी, शकर, शहद- इन पाँच अमृतों (पंचामृत) का पूजन में उपयोग करने का विधान है।
महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है। शिवरात्रि वह समय है जो पारलौकिक, मानसिक एवं भौतिक तीनों प्रकार की व्यथाओं, संतापों, पाशों से मुक्त कर देता है। शिव की रात शरीर, मन और वाणी को विश्राम प्रदान करती है। शरीर, मन और आत्मा को ऐसी शान्ति प्रदान करती है जिससे शिव तत्व की प्राप्ति सम्भव हो पाती है। शिव और शक्ति का मिलन गतिशील ऊर्जा का अन्तर्जगत से एकात्म होना है। लौकिक जगत में लिंग का सामान्य अर्थ चिह्न होता है जिससे पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग की पहचान होती है। शिव लिंग लौकिक के परे है। इस कारण एक लिंगी है। आत्मा है। शिव संहारक हैं। वे पापों के संहारक हैं। शिव की गोद में पहुंचकर हर व्यक्ति भय-ताप से मुक्त हो जाता है।
शिवरात्रि जागृति का पर्व है। जिसमें आत्मा का मंगलकारी शिव से मिलना होता है। यह आत्म स्वरूप को जानने की रात्रि है। यह स्वयं के भीतर जाकर अथवा अंतश्चेतना की गहराइयों में उतरकर आत्म साक्षात्कार करने का दुर्लभ प्रयोग है। यह आत्मयुद्ध की प्रेरणा है, क्योंकि स्वयं को जीत लेना ही जीवन की सच्ची जीत है, शिवत्व की प्राप्ति है। काल के इस क्षण की सार्थकता शिवमय हो जाने में है। शक्ति माया नहीं है, मिथ्या नहीं है, प्रपंच नहीं है। इसके विपरीत शक्ति सत्य है। जीव और जगत भी सत्य है। सभी तत्वतः सत्य हैं। सभी शिवमय हैं।
शिव शक्ति के प्रतीक ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की निशीथ काल में हुआ था। शिव पुराण के अनुसार सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा ने इसी दिन रुद्र रूपी शिव को उत्पन्न किया था। शिव एवं हिमालय पुत्री पार्वती का विवाह भी इसी दिन हुआ था। अतः यह शिव एवं शक्ति के पूर्ण समरस होने की रात्रि भी है। वे सृष्टि के सर्जक हैंै। वे मनुष्य जीवन के ही नहीं, सृष्टि के निर्माता, पालनहार एवं पोषक हैं। उन्होंने मनुष्य जाति को नया जीवन दर्शन दिया। जीने की शैली सिखलाई।
शिवरात्रि भोगवादी मनोवृत्ति के विरुद्ध एक प्रेरणा है, संयम की, त्याग की, भक्ति की, संतुलन की। सुविधाओं के बीच रहने वालों के लिये सोचने का अवसर है कि वे आवश्यक जरूरतों के साथ जीते हैं या जरूरतों से ज्यादा आवश्यकताओं की मांग करते हैं। इस शिवभक्ति एवं उपवास की यात्रा में हर व्यक्ति में अहंकार नहीं, बल्कि शिशुभाव जागता है। क्रोध नहीं, क्षमा शोभती है। कष्टों में मन का विचलन नहीं, सहने का धैर्य रहता है। यह तपस्या स्वयं के बदलाव की एक प्रक्रिया है। यह प्रदर्शन नहीं, आत्मा के अभ्युदय की प्रेरणा है। इसमें भौतिक परिणाम पाने की महत्वाकांक्षा नहीं, सभी चाहों का संन्यास है।
शिव ने संसार और संन्यास दोनों को जीया है। उन्होंने जीवन को नई और परिपूर्ण शैली दी। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति की जीवन में आवश्यकता और उपयोगिता का प्रशिक्षण दिया। कला, साहित्य, शिल्प, मनोविज्ञान, विज्ञान, पराविज्ञान और शिक्षा के साथ साधना के मानक निश्चित किए। सबको काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष की पुरुषार्थ चतुष्टयी की सार्थकता सिखलाई। वे भारतीय जीवन-दर्शन के पुरोधा हैं। आज उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सृष्टि के इतिहास का एक अमिट आलेख बन चुका है। उनका सम्पूर्ण जीवन प्रेरणास्रोत है। लेकिन हम इतने भोले हैं कि अपने शंकर को नहीं समझ पाए, उनको समझना, जानना एवं आत्मसात करना हमारे लिये स्वाभिमान और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाला अनुभव सिद्ध हो सकता है। मानवीय जीवन के सभी आयाम शिव से ही पूर्णत्व को पाते हैं।
आज चारों ओर अनैतिकता, आतंक, अराजकता और अनुशासनहीनता का बोलबाला है। व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र- हर कहीं दरारे ही दरारे हैं, हर कहीं टूटन एवं बिखराव है। मानवीय दृष्टि एवं जीवन मूल्य खोजने पर भी नहीं मिल रहे हैं। मनुष्य आकृति से मनुष्य रह गया है, उसकी प्रकृति तो राक्षसी हो चली है। मानवता क्षत-विक्षत होकर कराह रही है। इन सबका कारण है कि हमने आत्म पक्ष को भुला दिया है। इन विकट स्थितियों में महादेव ही हमें बचा सकते हैं, क्योंकि शिव ने जगत की रक्षा हेतु बार-बार और अनेक बार उपक्रम किये। जगत की रक्षा का सबसे बड़ा उदाहरण है सागर मंथन के समय निकले विष का पान करना और नीलकंठ कहलाना। संसार में रहते हुए जीवन चक्र में भी विविध प्रकार का संघर्ष होता रहता है जिससे अनेक तत्व रत्नों की प्राप्ति होती है। किन्तु उसी में से अपमान, कष्ट, संकट रूपी कालकूट की भी प्राप्ति होती है। ये चीजें विष से भी अधिक बुरी मानी जाती हैं। जो व्यक्ति समभाव रखते हुए धैर्यपूर्वक इनका पान करता है वह भी शिव के समान नीलकंठ कहलाता है।
वस्तुतः अपने विरोधियों एवं शत्रुओं को मित्रवत बना लेना ही सच्ची शिव भक्ति है। जिन्हें समाज तिरस्कृत करता है उन्हें शिव गले लगाते हैं। तभी तो अछूत सर्प उनके गले का हार है, अधम रूपी भूत-पिशाच शिव के साथी एवं गण हैं। समाज जिनकी उपेक्षा करता है, शंकर उन्हें आमंत्रित करते हैं। शिव की बरात में आए नंग-धडं़ग, अंग-भंग, भूत-पिशाच इसी तथ्य को दृढ़ करते हैं। इस लिहाज से शिव सच्चे पतित पावन हैं। उनके इसी स्वभाव के कारण देवताआंे के अलावा दानव भी शिव का आदर करते हैं। सचमुच! धन्य है उनकी तितिक्षा, कष्ट-सहिष्णुता, दृढ़-संकल्पशक्ति, धैर्यशीलता, आत्मनिष्ठा और अखण्ड साधनाशीलता।
भारतीय संस्कृति की भांति शिव परिवार में भी समन्वयकारी गुण दृष्टिगोचर होते हैं। वहां जन्मजात विरोधी स्वभाव के प्राणी भी शिव के प्रताप से परस्पर प्रेमपूर्वक निवास करते हैं। शंकर का वाहन बैल है तो पार्वती का वाहन सिंह, गणेश का वाहन चूहा है तो शिव के गले का हार सर्प एवं कार्तिकेय का वाहन मयूर है। ये सभी परस्पर वैर भाव को छोड़कर सहयोग एवं सद्भाव से रहते हैं। शिव परिवार का यह आदर्श रूप प्रत्येक परिवार एवं समाज के लिए ग्राह्य है।
संपूर्ण संस्कृत वांग्मय में शिव साधु रूप में हैं। माया मोह से लगभग निर्लिप्त हैं। शिव अपने शरीर पर जो वस्तुएं धारण किए हुए हैं, उनमें भी वैभव के प्रतीक नहीं झलकते। उनके शरीर पर राख मली हुई है। जटा-जूट धारी हैं। कई सर्प उनके गले और हाथों में गहनों की तरह शोभायमान हैं। बर्फ की सघनता से आच्छादित हिमालय में उनकी आश्रयस्थली है। साधनालीन शिव की आंखें सदैव बंद रहती हैं। हालांकि वे त्रिनेत्र धारी हैं। लेकिन उनका तीसरा नेत्र अपवादस्वरूप आपातस्थिति में ही खुलता है। इस समय शिव रौद्र, यानी गुस्से में होते हैं। शिव को पुराणों में दस भुजाओं वाला भी दर्शाया गया है। ये भुजाएं, दस दिशाओं की प्रतीक हैं। उनके हाथों में जो दस प्रकार के आयुध हैं, वे दस कारणों के अधिष्ठता होने के साथ, दस देवताओं की प्रतीकात्मक शक्ति के प्रतीक हैं। शिव अपने मस्तक पर पंचमी को प्रकट करने वाले चंद्रमा का आकार रूप धारण किए हुए हैं। पंचमी के इस चंद्रमा का जो कला रूप शिव के भाल पर प्रस्तुत है, उसका संबंध चंद्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं से भी है, जो शिव के अंतर्मन में आलोड़ित होने वाले संकल्प व विकल्प की असमंजस रूपी मनस्थिति का प्रतीक है।
शिव त्रिनेत्रधारी हैं। अर्थात उनकी तीन आंखें हैं। शिव की ये तीन आंखें सूर्य, चंद्रमा तथा अग्नि की द्योतक हैं। इन तीन चक्षुओं को अंहकार के तीन गुण, सत्व, रज तथा तम का भी प्रतीक भी माना गया है। शिव का प्रमुख अस्त्र त्रिशूल है। इसी से शिव अनाचारी व अत्याचारियों को दण्ड देते हैं। पुराणों में शिव के आठ रूप भी दर्शाए गए हैं। ये रूप हैं रुद्र, भव, शर्व, ईशान, उग्र, पशुपति, भीम तथा महादेव। पुराणों में शिव की कल्पना एक ऐसे विशिष्ट व्यक्ति के रूप में की गई है, जिसका आधा शरीर स्त्री का तथा आधा शरीर पुरुष का है। शिव का यह स्त्री व पुरुष मिश्रित शरीर अर्धनारीश्वर के नाम से जाना जाता है। अर्धनारीश्वर की तरह एकाकार हुए बिना हम अपने जीवन अर्थात काल को आनंद या सुख की अनंत अनुभूति के साथ जी ही नहीं सकते हैं। मनुष्य जीवन में सुख अनंत काल तक बना रहे, इस हेतु स्त्री-पुरूष का एकालाप भी युग-युगांतरों में बने रहना जरूरी है।
शिव-लिंग का रहस्य जाने बिना, शिव-महिमा का बखान अधूरा है। इसलिए लिंग के प्रकृति से जुड़े महत्व और इसकी पूजा के कारण भी जान लेते हैं। वैसे आम प्रचलन में तो यही मान्यता है कि शिव और शक्ति दोनों का संयोगात्मक प्रतीक ही शिव-लिंग है। शिवपुराण में शिव-ंिलंग को चैतन्यमय और लिंगपीठ को अंबामय बताया गया है। किंतु लिंग पुराण में लिंग को शिव और उसके आधार को शिव-पत्नी बताया गया है। यहीं से यह मान्यता लोक प्रचलन में आई कि शिव-लिंग उमा-महेश के प्रतीक स्वरूप हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने प्रकृति के रहस्यों की गवेषणा की आरंभिक अवस्था में ही समझ लिया था कि प्रकृति के अन्य जीव-जगत के साथ ही मनुष्य का सह-अस्तित्व संभव व सुरक्षित है। इसी कारण सभ्यता और संस्कृति का विकास क्रम आगे बढ़ा, वैसे-वैसे अलौकिक शक्तियों में प्रकृति के रूपों को प्रक्षेपित करने के साथ, पशु-पक्षियों को भी देवत्व से जोड़ते गए। नंदी को विरक्ति का द्योतक माना जाता है, इसलिए साधनारत शिव के लिए नंदी शक्ति के भी प्रतीक हैं। शिव को नंदी पर आरूढ़ भी दिखाया गया है। इसका आशय है, एक शिव ही हैं, जो कामियों की वासनाओं को नियंत्रित करने में या उन पर विजय प्राप्त करने में सक्षम हैं। स्पष्ट है, काम के रूप में वृषभ का प्रतीक शिव को विश्व की सृष्टि के लिए अभिप्रेरणा का द्योतक भी है।
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(ललित गर्ग)
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