” उदित होती हुई उषा, बहती हुई नदियाँ, सुस्थिर पर्वत और पितृगण सदैव हमारी रक्षा करें ।” -ऋग्वेद की यह प्रार्थना हमारी संस्कृति में पितरों की भूमिका को रेखांकित करती है । अपनी परम्परा में पितरों की उपस्थिति को अनुभव करना ही सच्ची पितृपूजा है। यह न कोई अशुभ कर्मकांड है, न ही रूढ़िगत मानसिकता का द्योतक। प्रत्येक संस्कारशील प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करे। पितृपूजा हमें अपनी कुल-परम्परा का स्मरण कराती है। हमारे सामाजिक संस्कार, हमारा विचार- दर्शन, हमारी मर्यादाएँ और हमारे भौतिक, आध्यात्मिक उत्तराधिकार पितरों पर ही अवलम्बित हैं । इसलिये प्रातःकाल पितरों का स्मरण कर हम अपनी विरासत के प्रति जागृत होते हैं ।
यह सच्चाई है कि कर्मकांड की उलझनों में दबा हुआ और कभी- कभी देवी-देवताओं से जड़ सम्बंध रखने वाला हमारा मन पितरों को सम्मान देते समय भाव विभोर ही नहीं हो उठता, गम्भीर भी हो जाता है। शास्त्रकारों ने साल का पूरा एक पखवाड़ा ही पितृपूजा के लिये सुरक्षित रख छोड़ा है, जो सम्भवतः सबसे लम्बा जनसुलभ धार्मिक अनुष्ठान है। हम इसे पितृपूजा या श्राद्धपक्ष के रूप में जानते हैं ।
वेदों में “श्राद्ध” शब्द का उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु श्राद्ध की महिमा हमें वेदों से ही ज्ञात हुई । वैदिककाल में ही यज्ञ और दान को श्राद्ध कहा जाने लगा था। पितरों के प्रति प्रकट की जाने वाली श्रद्धा को पितृयज्ञ कहा गया , जिसके विवरण ऋग्वेद से लेकर धर्मसूत्रों तक में भरे पड़े हैं। सूत्रकाल में पहली बार “श्राद्ध ” शब्द का प्रयोग हुआ । “श्रद्धया दीयते यस्मात् श्राद्धं येन निगद्यते” कहकर श्राद्ध की सर्वमान्य परिभाषा की गई। श्राद्धविधि का जन्मदाता मनु है। उसने भी श्राद्ध का अर्थ पितृयज्ञ ही किया। पुरातनकाल से ही पितरों की दो श्रेणियाँ मिलती हैं । पहली श्रेणी में वे पितर आते हैं, जो अत्यंत प्राचीनकाल के हैं, और अपनी चरितार्थता के कारण अब देवताओं की कोटि में हैं । दूसरी श्रेणी में वे पितर आते हैं, जो निकटवर्ती तीन पीढ़ियों के हैं । सामान्यतः श्राद्ध दूसरी श्रेणी के पितरों का किया जाता है। इस श्राद्ध में पिता, पितामह, प्रपितामह को उनकी सदाशयता के साथ स्मरण करते हुए आह्वान किया जाता है। उनके स्वागत में बर्हि बिछाई जाती है, जिस पर आकर वे बैठते हैं, और उन्हें “कव्य” प्रदान किया जाता है।
दूसरे देशों की तुलना में हमारे यहाँ पितृपूजा का साहित्य और प्रयोगविज्ञान इतना समृद्ध है कि शास्त्रचर्चा के बिना ही सामान्य जन की इसमें गहरी पैठ हो जाती है । यह बात अलग है कि हमारा पितृ विषयक ज्ञान
आज भी अधूरा और अस्पष्ट है । पितरों को तिलांजलि देकर , पिंडदान कर और ब्राह्मणों को भोजन खिलाकर श्राद्ध की पूर्णता मानने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। और तो और ,भोजन को ही श्राद्ध मान लेने का रिवाज चल पड़ा है। श्राद्ध के दिन अपने मतलब के लोगों को बुलाकर उन्हें “लंच” या “डिनर” देना पितृपूजा नहीं, यह बात कम लोगों को समझ में आती है । ऐसे बुलाये गए लोगों को “श्राद्धमित्र” कहा गया है।
आपस्तम्ब ने तो यहाँ तक लिखा है कि श्राद्ध करने वाला यदि अपने सगे-सम्बंधियों और मिलने वालों को भोजन कराता है, तो वह भोजन भूत-प्रेतों के हिस्से में चला जाता है। इसलिए अदृश्य और अज्ञात प्राणियों के लिये चारों दिशाओं में हव्य डालने को श्राद्ध का अनिवार्य अंग बनाया गया। श्राद्ध कर्म पितृपक्ष में ही नहीं किया जाता , अपितु विवाह आदि शुभप्रसंगों पर भी किया जाता है। इस श्राद्ध को “नांदी श्राद्ध ” कहते हैं ।
ऋग्वेद के दशम मंडल में एक पितृसूक्त मिलता है, जिसमें सुंदर प्रार्थना के द्वारा पितरों का आह्वान किया गया है। सूक्त की एक ऋचा का भाव इस प्रकार है :
“वे सभी पितर जो हैं यहीं या नहीं हैं कहीं ,
जानते हैं हम या जिन्हें जानते ही नहीं ,
हे अग्नि ! जानते हो तुम निश्चय ही उन सभी को ,
आओ । उन सभी के संग स्वीकार करो
यज्ञ का यह श्रद्धा- प्रसंग।”
सामान्यतः माता-पिता की दिवंगत पीढ़ी को संयुक्त रूप से पितर कहा जाता है। माता-पिता हमारी वंश-परम्परा के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि हैं ।कालिदास ने “जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ” कहकर जगत के माता-पिता की वंदना की है। प्राचीन वैदिक परम्परा में तो ऋतु, मास, रात्रि, वनस्पति और प्राणिक जगत को पितर कहकर सम्बोधित किया गया है। इस तरह जो पर्यावरण हमारी रक्षा करता है , वह पितर ही है। इसलिये पितरों की स्मृति में वृक्ष लगना, प्याऊ बनवाया, औषधालय खुलवाना महत्व का कार्य समझा जाता है।
लोग अपने घरों के नाम पितृस्मृति, मातृस्मृति रखकर भी पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।
प्राचीन पितरों का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने आने वाली पीढ़ी के लिये सत्य, प्रकाश और अमृत का मार्ग प्रशस्त किया। इन पितरों के कई नाम बताये गये हैं, जिनमें आंगिरस, अथर्वण, वशिष्ठ, भृगु और नवग्वा प्रमुख हैं । फिर भी हमारी परम्परा वैवस्वत यम को पहला व्यक्ति मानती है, जिसने पितृलोक की दुनिया बसाई। प्राचीन ऋषि पितृलोक को अत्यंत उज्ज्वल और अमृतमय आकाश के रूप में देखते थे। उन्होंने इस लोक को पितरों की आध्यात्मिक विजय के रूप में भी देखा। यह लोक आनंद, उल्लास और राग-रागिनियो से सदैव भरा-पूरा है।
कहा जाता है कि नचिकेता ने सशरीर इस लोक की यात्रा की थी। वह वहाँ तीन दिन रह कर आया था, और यम से भी मिला था। प्रार्थना साहित्य में देवताओं के बाद पितरों का ही क्रम आता है। देवताओं को पाने के लिए भी पितरों का ही सहारा लेना पड़ता है। इसीलिए हम देवपूजा से पहले गोत्रोच्चारण के द्वारा अपनी पितृ-परम्परा का ध्यान करते हैं ।पितृपूजा का शुद्ध सात्विक रूप केवल इतना ही है कि हम आत्मा की अमरता में अपनी गहरी आस्था व्यक्त करें । हमारी पितृ-परम्परा आत्मा का ही रूप है ,और वही एकमात्र गंतव्य है। इसीलिए मनु ने कहा था – अमृत पथ पर चलते रहे पिता ,पितामह हमारे।रास्ता निर्द्वन्द्व अब वही है, बस वही है।।