हिंदू पंचांग (कैलेंडर) में आश्विन मास के संपूर्ण कृष्णपक्ष में पितरों को संतुष्ट करने के लिए समर्पित किया गया है। इसी कारण इसे ‘पितृपक्ष’ कहा जाता है। भारतीय काल-गणना के अनुसार, इस समय सूर्य कन्या राशि में होता है। इसलिए ‘कन्या’ राशि में सूर्य की स्थिति में पड़ने वाले पितृपक्ष को जनसाधारण में ‘कनागत’ के नाम से भी जाना जाता है। 28 सितंबर से शुरु हुआ श्राध्द पक्ष सर्वपितृ अमावस्या 12 अक्टूबर तक रहेगा। 13 अक्टूबर से घट स्थापना के साथ नौ दिन की नवरात्रि का पर्व शुरु हो जाएगा।
शास्त्रों में आश्विन मास कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक की सब तिथियाँ श्राध्द पक्ष में शामिल की गई हैं। कभी-कभी किसी एक तिथि का क्षय होने से दो श्राध्द एक दिन भी आ जाते हैं। आनादिकाल में आश्विन मास के श्राध्द पक्ष में भाद्रपद मास की पूर्णिमा का दिन श्राध्द शामिल नहीं था। चूंकि माह के एक पक्ष में अमावस्या व दूसरे पक्ष में पूर्णिमाआती है। इसलिए आश्विन मास कृष्ण पक्ष के पहले की भाद्रपद की पूर्णिमा को श्राध्द पक्ष में जोड़ा गया है। इसके पीछे भावना यह है कि जो जिन पूर्वजों का निधन पूर्णिमा को हुआ है। उनका श्राध्द कब किया जाए। सर्वपितृ अमावस्या में सभी पितरों के श्राध्द की व्यवस्था है। इसलिए भाद्रपद मास की पूर्णिमा को भी श्राध्द पक्ष में शामिल कर लिया गया।
शास्त्रों में पितृपक्ष में पूर्वजों की आत्मिक तृप्ति के लिए श्राद्ध और तर्पण की बात कही गई है। पितरों की संतुष्टि के लिए उनके निमित्त श्रद्धापूर्वक किया जाने वाला कार्य ‘श्राद्ध’ कहलाता है। श्राद्ध और तर्पण वंशज द्वारा पूर्वजों की दी गई श्रद्धांजलि है। हमें किसी भी स्थिति में अपने इस आध्यात्मिक कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए। पितृपक्ष को हमें पूर्वजों के स्मृति-पर्व के रूप में मनाना चाहिए। पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का इससे अच्छा और कोई अवसर नहीं हो सकता। यह हमारा दायित्व भी है और धर्म भी। विष्णुपुराण में कहा गया है कि श्राद्ध और तर्पण से तृप्त होकर पितृगण श्राद्ध करने वालों की सभी कामनाओं को पूर्ण कर देते है। व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राद्ध-कर्म अवश्य करना चाहिए। यदि कोई आदमी ब्राह्मणों को भोजन कराने में असमर्थ है, तो वह यथाशक्ति कच्चा अनाज, सब्जी, फल आदि दे सकता है।
शास्त्रों के अनुसार श्राध्द का अधिकार केवल पुत्र को ही हो सकता हैं। पुत्र की कामना के पीछे यह परंपरा भी एक वजह रही है। पुत्र के अभाव में विधवा स्त्री को अपने पति का श्राध्द करने का अधिकार दिया गया है। पुत्री के पुत्र यानी नाती को भी श्राध्द करने योग्य माना गया है। व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए गोत्र भाई या किसी भी सगोत्री को श्राध्द का अधिकार दिया गया है। श्राध्द करने की प्रथा पूर्वजों की पूजा का ही एक विशिष्ट रूप है और दिवंगत प्रियजनों की आत्मा की शांति हेतु ही श्राध्द व तर्पण किया जाता है।
जिसकी आर्थिक स्थिति कमजोर है, वह चारा और घास लाकर गौ को खिला सकता है। यदि किसी के लिए यह भी संभव न हो, तो वह केवल आठ तिलों से जलांजलि दे दें। जिस व्यक्ति के लिए यह भी मुश्किल हो, तो वे सूर्यनारायण के सामने हाथ उठाकर निवेदन करे- ‘मेरे पास श्राद्ध करने के लिए न तो पैसा है और न ही कोई सामग्री। मैं आपको साक्षी मानकर अपने पितरों को नमस्कार करता हूँ , वे मेरी इस प्रार्थना से ही तृप्त हो जाएँ।’
श्राध्द की शास्त्रीय मान्यता
मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है कि
पितृनिःश्वास विध्वस्तं सप्तजन्मार्जित धनम्।
त्रिजन्म प्रभवं देवो निःश्वासो हन्त्यसंशयम्।।
यतस्ते विमुखायान्ति निःस्वस्य गृहमेधिनः।
तस्मादिष्टश्च पूर्तश्च धर्मो दावपिनश्यतः।।
पितरों के असंतुष्ट हो जाने से सात जन्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है और देवताओं के रुष्ट हो जाने से तीन जन्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है। देवता और पितर जिससे रुष्ट हो जाते हैं उसके यज्ञ और पूर्त दोनों धर्मो का नाश हो जाता है।
अपि स्यात्सकुलेस्माकं यो नो दघाद्ज्जलांजलिम्।
नदीषु बहुतोयाषु शीतलाषु विशेषतः।
अपि स्यात्सकुलेस्माकं यः श्राध्दनित्यमाचरेत्।।
पयोमूलफलैर्भक्ष्यैस्तिल तोयेन वा पुनः।।
पितृगण कहते है कि क्या हमारे वंश में कोई ऐसा भाग्यशाली जन्म लेगा, जो शीतल जल वाली नदी के जल से हमें जलांजलि देकर तथा दुग्ध, मूल, फल, खाघान सहित तिल मिश्रित जल से श्राध्द कर्म करेगा।
याज्ञवल्क्यस्मृति में श्राद्ध-कर्म को लेकर कहा गया है कि श्राद्धकर्ता पितरों के आशीर्वाद से धन-धान्य, सुख-समृद्धि, संतान और स्वर्ग प्राप्त करता है। मत्स्यपुराण और वायुपुराण में श्राद्ध के विधान और इसके पर विस्तार से चर्चा की गई है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण में पितृगण को देवताओं से भी अधिक दयालु और कृपालु बताया गया है। पितृपक्ष में श्राद्ध और तर्पण पाकर वे वर्ष भर तृप्त बने रहते है। जिस घर में पूर्वजों का श्राद्ध होता है, वह घर पितरों द्वारा सदैव सुरक्षित रहता है। शास्त्रों के अनुसार, पितृपक्ष में श्राद्ध न किए जाने पर पितर अतृप्त होकर कुपित हो जाते है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को अनेक दुख और कष्ट भोगना पड़ता है।
धर्मग्रंथों में कहा गया है कि मृतक के लिए किए गए श्राद्ध का सूक्ष्मांश उस तक अवश्य पहुँचता है, चाहे वह किसी भी लोक में, किसी भी योनि में क्यों न हों। गरुड़पुराण में परलोक का जितना विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन है, उतना विश्व के किसी अन्य ग्रंथ में नहीं है। ‘अथर्ववेद’ और ‘शतपथ ब्राह्मण’ में भी पितृलोक का स्पष्ट उल्लेख है।
श्राध्द का समय
श्राध्द की प्रक्रिया पूरी करने के समय को शास्त्रों में कुतकाल कहा गया है। इसकी अवधि प्रायः दिन के 1 बजे से अपरान्ह 4 बजे तक की होती है। श्राध्द कर्म करने के लिए सर्वप्रथम अपने घर के द्वार को धोकर और लीपकर शुरु करना चाहिये। फिर ब्राह्मण को आमंत्रित कर उसकेअंदर अपने पुरखों का भाव स्मरण कर उसको सम्मानपूर्वक बोजन कराएँ।
श्राध्द के प्रारम्भ में और अंत में तीन-तीन बार निम्न श्लोक का उच्चारण करें।
देवताभ्य पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नमः स्वाहायै स्यधायै नित्मेव नमो नमः।।
श्राध्द के प्रकार
श्राध्द तीन प्रकार के होते हैं। नारायण बलि, नागबलि एवं त्रिपिंडी। पितरो को प्रसन्न करने के लिए किए जाने वाले श्राध्द को पितृयज्ञ कहा गया है।
और्ध्वदैहिक- यह मृतकों का श्राध्द है। जो व्याक्ति जिस तिथि को देह त्याग देता हैं, उस तिथि को हर वर्ष यह श्राध्द किया जाता है। इसी महालय श्राध्द को पार्वण श्राध्द भी कहा जाता है । तीर्थस्थल में किया जाने वाला श्राध्द तीर्थश्राध्द, कहलाता है। त्रिपिंडी श्राध्द को एकोदिष्ट श्राध्दा भी कहा जाता है। त्रिपिंडी श्राध्द – त्रिपिंडी काम्य श्राध्द है। लगातार तीन वर्ष तक जिनका श्राध्द न किया गया हो, उनको प्रेतत्व प्राप्त होता है। अमावस्या पितरों की तिथि है। इस दिन त्रिपिंडी श्राध्द किया जाता है।