हे परम आदरणीय पूर्वजों !!!
सात सौ साल के इस्लामिक राज और दो सौ साल के ईसाई शासन के बाद भी आज हम अपने त्योहार मना पाते हैं, अपने देवी देवताओं की पूजा कर पाते हैं और अपने देश मे गर्व से रह पाते हैं, ये सब इसीलिए सम्भव हो पाया क्योंकि आपने तलवार के डर अथवा पैसों के मोह में अपना धर्म नहीं बदला ।
हम सदैव आपके ऋणी रहेंगे, ये पितृपक्ष आपके अदम्य शौर्य और आपके निःस्वार्थ भक्ति को समर्पित ।
आपके गौरवशाली वंशज
” उदित होती हुई उषा, बहती हुई नदियाँ, सुस्थिर पर्वत और पितृगण सदैव हमारी रक्षा करें ।” -ऋग्वेद की यह प्रार्थना हमारी संस्कृति में पितरों की भूमिका को रेखांकित करती है । अपनी परम्परा में पितरों की उपस्थिति को अनुभव करना ही सच्ची पितृपूजा है। यह न कोई अशुभ कर्मकांड है, न ही रूढ़िगत मानसिकता का द्योतक। प्रत्येक संस्कारशील प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करे। पितृपूजा हमें अपनी कुल-परम्परा का स्मरण कराती है। हमारे सामाजिक संस्कार, हमारा विचार- दर्शन, हमारी मर्यादाएँ और हमारे भौतिक, आध्यात्मिक उत्तराधिकार पितरों पर ही अवलम्बित हैं । इसलिये प्रातःकाल पितरों का स्मरण कर हम अपनी विरासत के प्रति जागृत होते हैं ।
यह सच्चाई है कि कर्मकांड की उलझनों में दबा हुआ और कभी- कभी देवी-देवताओं से जड़ सम्बंध रखने वाला हमारा मन पितरों को सम्मान देते समय भाव विभोर ही नहीं हो उठता, गम्भीर भी हो जाता है। शास्त्रकारों ने साल का पूरा एक पखवाड़ा ही पितृपूजा के लिये सुरक्षित रख छोड़ा है, जो सम्भवतः सबसे लम्बा जनसुलभ धार्मिक अनुष्ठान है। हम इसे पितृपूजा या श्राद्धपक्ष के रूप में जानते हैं ।
पितरों के प्रति प्रकट की जाने वाली श्रध्दा को पितृयज्ञ कहा गया , जिसके विवरण ऋग्वेद से लेकर धर्मसूत्रों तक में भरे पड़े हैं। सूत्रकाल में पहली बार “श्राध्द ” शब्द का प्रयोग हुआ । “श्रध्दया दीयते यस्मात् श्राध्दं येन निगद्यते” कहकर श्राध्द की सर्वमान्य परिभाषा की गई। श्राध्दविधि का जन्मदाता मनु है। उसने भी श्राध्द का अर्थ पितृयज्ञ ही किया। पुरातनकाल से ही पितरों की दो श्रेणियाँ मिलती हैं । पहली श्रेणी में वे पितर आते हैं, जो अत्यंत प्राचीनकाल के हैं, और अपनी चरितार्थता के कारण अब देवताओं की कोटि में हैं । दूसरी श्रेणी में वे पितर आते हैं, जो निकटवर्ती तीन पीढ़ियों के हैं । सामान्यतः श्राध्द दूसरी श्रेणी के पितरों का किया जाता है। इस श्राध्द में पिता, पितामह, प्रपितामह को उनकी सदाशयता के साथ स्मरण करते हुए आह्वान किया जाता है। उनके स्वागत में बर्हि बिछाई जाती है, जिस पर आकर वे बैठते हैं, और उन्हें “कव्य” प्रदान किया जाता है।
दूसरे देशों की तुलना में हमारे यहाँ पितृपूजा का साहित्य और प्रयोगविज्ञान इतना समृद्ध है कि शास्त्रचर्चा के बिना ही सामान्य जन की इसमें गहरी पैठ हो जाती है । यह बात अलग है कि हमारा पितृ विषयक ज्ञान आज भी अधूरा और अस्पष्ट है । पितरों को तिलांजलि देकर , पिंडदान कर और ब्राह्मणों को भोजन खिलाकर श्राध्द की पूर्णता मानने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। और तो और ,भोजन को ही श्राध्द मान लेने का रिवाज चल पड़ा है। श्राध्द के दिन अपने मतलब के लोगों को बुलाकर उन्हें “लंच” या “डिनर” देना पितृपूजा नहीं, यह बात कम लोगों को समझ में आती है । ऐसे बुलाये गए लोगों को “श्राध्दमित्र” कहा गया है।
आपस्तम्ब ने तो यहाँ तक लिखा है कि श्राध्द करने वाला यदि अपने सगे-सम्बंधियों और मिलने वालों को भोजन कराता है, तो वह भोजन भूत-प्रेतों के हिस्से में चला जाता है। इसलिए अदृश्य और अज्ञात प्राणियों के लिये चारों दिशाओं में हव्य डालने को श्राध्द का अनिवार्य अंग बनाया गया। श्राध्द कर्म पितृपक्ष में ही नहीं किया जाता , अपितु विवाह आदि शुभप्रसंगों पर भी किया जाता है। इस श्राध्द को “नांदी श्राध्द ” कहते हैं ।
ऋग्वेद के दशम मंडल में एक पितृसूक्त मिलता है, जिसमें सुंदर प्रार्थना के द्वारा पितरों का आह्वान किया गया है। सूक्त की एक ऋचा का भाव इस प्रकार है :
“वे सभी पितर जो हैं यहीं या नहीं हैं कहीं ,
जानते हैं हम या जिन्हें जानते ही नहीं ,
हे अग्नि ! जानते हो तुम निश्चय ही उन सभी को ,
आओ । उन सभी के संग स्वीकार करो
यज्ञ का यह श्रध्दा- प्रसंग।”
सामान्यतः माता-पिता की दिवंगत पीढ़ी को संयुक्त रूप से पितर कहा जाता है। माता-पिता हमारी वंश-परम्परा के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि हैं ।कालिदास ने “जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ” कहकर जगत के माता-पिता की वंदना की है। प्राचीन वैदिक परम्परा में तो ऋतु, मास, रात्रि, वनस्पति और प्राणिक जगत को पितर कहकर सम्बोधित किया गया है। इस तरह जो पर्यावरण हमारी रक्षा करता है , वह पितर ही है। इसलिये पितरों की स्मृति में वृक्ष लगना, प्याऊ बनवाया, औषधालय खुलवाना महत्व का कार्य समझा जाता है।
लोग अपने घरों के नाम पितृस्मृति, मातृस्मृति रखकर भी पितरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।
प्राचीन पितरों का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने आने वाली पीढ़ी के लिये सत्य, प्रकाश और अमृत का मार्ग प्रशस्त किया। इन पितरों के कई नाम बताये गये हैं, जिनमें आंगिरस, अथर्वण, वशिष्ठ, भृगु और नवग्वा प्रमुख हैं । फिर भी हमारी परम्परा वैवस्वत यम को पहला व्यक्ति मानती है, जिसने पितृलोक की दुनिया बसाई। प्राचीन ऋषि पितृलोक को अत्यंत उज्ज्वल और अमृतमय आकाश के रूप में देखते थे। उन्होंने इस लोक को पितरों की आध्यात्मिक विजय के रूप में भी देखा। यह लोक आनंद, उल्लास और राग-रागिनियो से सदैव भरा-पूरा है।
कहा जाता है कि नचिकेता ने सशरीर इस लोक की यात्रा की थी। वह वहाँ तीन दिन रह कर आया था, और यम से भी मिला था। प्रार्थना साहित्य में देवताओं के बाद पितरों का ही क्रम आता है। देवताओं को पाने के लिए भी पितरों का ही सहारा लेना पड़ता है। इसीलिए हम देवपूजा से पहले गोत्रोच्चारण के द्वारा अपनी पितृ-परम्परा का ध्यान करते हैं ।पितृपूजा का शुद्ध सात्विक रूप केवल इतना ही है कि हम आत्मा की अमरता में अपनी गहरी आस्था व्यक्त करें । हमारी पितृ-परम्परा आत्मा का ही रूप है ,और वही एकमात्र गंतव्य है। इसीलिए मनु ने कहा था – अमृत पथ पर चलते रहे पिता ,पितामह हमारे।रास्ता निर्द्वन्द्व अब वही है, बस वही है।।
मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों। साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों।’ – वायु पुराण
हिंदू पंचांग (कैलेंडर) में आश्विन मास के संपूर्ण कृष्णपक्ष में पितरों को संतुष्ट करने के लिए समर्पित किया गया है। इसी कारण इसे ‘पितृपक्ष’ कहा जाता है। भारतीय काल-गणना के अनुसार, इस समय सूर्य कन्या राशि में होता है। इसलिए ‘कन्या’ राशि में सूर्य की स्थिति में पड़ने वाले पितृपक्ष को जनसाधारण में ‘कनागत’ के नाम से भी जाना जाता है। भारत में सोमवार 20 सितंबर से पितृ पक्ष की शुरूआत हो रही है. हिन्दू कैलेंडर के अनुसार इस बार पितृ पक्ष की अवधि 15 दिनों तक रहेगी, इस दौरान ज्यादातर हिन्दू अपने पितरों को श्रध्दाजंलि देते हैं. जिसमें मुख्य रूप से अपने पितरों को याद करते हुए खाना अर्पित किया जाता है. पितृ पक्ष को श्राध्द और कनागत भी कहा जाता है जो अक्सर भद्रापद महीने में अनंत चतुर्दशी के बाद आते हैं.वसु, रुद्र और आदित्य श्राध्द के देवता माने जाते हैं।
इस वर्ष श्राध्द के दिन
पूर्णिमा श्राध्द – 20 सितंबर 2021-
प्रतिपदा श्राध्द – 21 सितंबर 2021
द्वितीया श्राध्द – 22 सितंबर 2021
तृतीया श्राध्द – 23 सितंबर 2021
चतुर्थी श्राध्द – 24 सितंबर 2021,
पंचमी श्राध्द – 25 सितंबर 2021
षष्ठी श्राध्द – 27 सितंबर 2021
सप्तमी श्राध्द – 28 सितंबर 2021
अष्टमी श्राध्द- 29 सितंबर 2021
नवमी श्राध्द – 30 सितंबर 2021
दशमी श्राध्द – 1 अक्तूबर 2021
एकादशी श्राध्द – 2 अक्तूबर 2021
द्वादशी श्राध्द- 3 अक्तूबर 2021
त्रयोदशी श्राध्द – 4 अक्तूबर 2021
चतुर्दशी श्राध्द- 5 अक्तूबर 2021
अमावस्या श्राध्द- 6 अक्तूबर 2021
आमतौर पर बड़े बेटे या परिवार के बड़े पुरूष सदस्य द्वारा ही श्राध्द का अनुष्ठान किया जाता है. श्राध्द करते वक्त तीन चीजों का हमेशा ख्याल रखें- जिसमें धार्मिकता, चिड़चिड़ापन और गुस्सा शामिल हैं. पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए की जा रही प्रार्थना के बीच कुछ भी अशुभ नहीं होना चाहिए. दो ब्राह्मणों को भोजन, नए कपड़े, फल, मिठाई सहित दक्षिणा दान करनी चाहिए, ऐसा माना जाता है कि उन्हें जो कुछ दिया गया है वो हमारे पूर्वजों तक पहुंचता है. ब्राह्मणों को दान देने के बाद गरीबों को खाना खिलाना भी जरूरी है ऐसा कहा जाता है जितना दान दोंगे वह उतना आपके पूर्वजों तक पहुंचता है. इसके अलावा श्राध्द करना इसलिए भी महत्वपूर्ण माना है इससे आपको अपने पूर्वजों का आशीर्वाद मिलता है जिससे आपके घर में खुशहाली रहती है.
शास्त्रों में आश्विन मास कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक की सब तिथियाँ श्राध्द पक्ष में शामिल की गई हैं। कभी-कभी किसी एक तिथि का क्षय होने से दो श्राध्द एक दिन भी आ जाते हैं। आनादिकाल में आश्विन मास के श्राध्द पक्ष में भाद्रपद मास की पूर्णिमा का दिन श्राध्द शामिल नहीं था। चूंकि माह के एक पक्ष में अमावस्या व दूसरे पक्ष में पूर्णिमाआती है। इसलिए आश्विन मास कृष्ण पक्ष के पहले की भाद्रपद की पूर्णिमा को श्राध्द पक्ष में जोड़ा गया है। इसके पीछे भावना यह है कि जिन पूर्वजों का निधन पूर्णिमा को हुआ है। उनका श्राध्द कब किया जाए। सर्वपितृ अमावस्या में सभी पितरों के श्राध्द की व्यवस्था है। इसलिए भाद्रपद मास की पूर्णिमा को भी श्राध्द पक्ष में शामिल कर लिया गया।
शास्त्रों में पितृपक्ष में पूर्वजों की आत्मिक तृप्ति के लिए श्राध्द और तर्पण की बात कही गई है। पितरों की संतुष्टि के लिए उनके निमित्त श्रध्दापूर्वक किया जाने वाला कार्य ‘श्राध्द’ कहलाता है। श्राध्द और तर्पण वंशज द्वारा पूर्वजों की दी गई श्रद्धांजलि है। हमें किसी भी स्थिति में अपने इस आध्यात्मिक कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए। पितृपक्ष को हमें पूर्वजों के स्मृति-पर्व के रूप में मनाना चाहिए। पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का इससे अच्छा और कोई अवसर नहीं हो सकता। यह हमारा दायित्व भी है और धर्म भी। विष्णुपुराण में कहा गया है कि श्राध्द और तर्पण से तृप्त होकर पितृगण श्राध्द करने वालों की सभी कामनाओं को पूर्ण कर देते है। व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राध्द-कर्म अवश्य करना चाहिए। यदि कोई आदमी ब्राह्मणों को भोजन कराने में असमर्थ है, तो वह यथाशक्ति कच्चा अनाज, सब्जी, फल आदि दे सकता है।
हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राध्द के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे श्राध्द कराने वालों के शरीर में प्रवेश करके और ठीक ढ़ग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राध्द-कर्म से तृप्त होकर वे अपने वंशधर को सपरिवार सुख- समृध्दि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राध्द-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।
शास्त्रों के अनुसार श्राध्द का अधिकार केवल पुत्र को ही हो सकता हैं। पुत्र की कामना के पीछे यह परंपरा भी एक वजह रही है। पुत्र के अभाव में विधवा स्त्री को अपने पति का श्राध्द करने का अधिकार दिया गया है। पुत्री के पुत्र यानी नाती को भी श्राध्द करने योग्य माना गया है। व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए गोत्र भाई या किसी भी सगोत्री को श्राध्द का अधिकार दिया गया है। श्राध्द करने की प्रथा पूर्वजों की पूजा का ही एक विशिष्ट रूप है और दिवंगत प्रियजनों की आत्मा की शांति हेतु ही श्राध्द व तर्पण किया जाता है।
जिसकी आर्थिक स्थिति कमजोर है, वह चारा और घास लाकर गौ को खिला सकता है। यदि किसी के लिए यह भी संभव न हो, तो वह केवल आठ तिलों से जलांजलि दे दें। जिस व्यक्ति के लिए यह भी मुश्किल हो, तो वे सूर्यनारायण के सामने हाथ उठाकर निवेदन करे- ‘मेरे पास श्राध्द करने के लिए न तो पैसा है और न ही कोई सामग्री। मैं आपको साक्षी मानकर अपने पितरों को नमस्कार करता हूँ , वे मेरी इस प्रार्थना से ही तृप्त हो जाएँ।’
श्राध्द की शास्त्रीय मान्यता
मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है कि
पितृनिःश्वास विध्वस्तं सप्तजन्मार्जित धनम्।
त्रिजन्म प्रभवं देवो निःश्वासो हन्त्यसंशयम्।।
यतस्ते विमुखायान्ति निःस्वस्य गृहमेधिनः।
तस्मादिष्टश्च पूर्तश्च धर्मो दावपिनश्यतः।।
पितरों के असंतुष्ट हो जाने से सात जन्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है और देवताओं के रुष्ट हो जाने से तीन जन्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है। देवता और पितर जिससे रुष्ट हो जाते हैं उसके यज्ञ और पूर्त दोनों धर्मो का नाश हो जाता है।
अपि स्यात्सकुलेस्माकं यो नो दघाद्ज्जलांजलिम्।
नदीषु बहुतोयाषु शीतलाषु विशेषतः।
अपि स्यात्सकुलेस्माकं यः श्राध्दनित्यमाचरेत्।।
पयोमूलफलैर्भक्ष्यैस्तिल तोयेन वा पुनः।।
पितृगण कहते है कि क्या हमारे वंश में कोई ऐसा भाग्यशाली जन्म लेगा, जो शीतल जल वाली नदी के जल से हमें जलांजलि देकर तथा दुग्ध, मूल, फल, खाघान सहित तिल मिश्रित जल से श्राध्द कर्म करेगा।
याज्ञवल्क्यस्मृति में श्राध्द-कर्म को लेकर कहा गया है कि श्राध्दकर्ता पितरों के आशीर्वाद से धन-धान्य, सुख-समृद्धि, संतान और स्वर्ग प्राप्त करता है। मत्स्यपुराण और वायुपुराण में श्राध्द के विधान और इसके पर विस्तार से चर्चा की गई है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण में पितृगण को देवताओं से भी अधिक दयालु और कृपालु बताया गया है। पितृपक्ष में श्राध्द और तर्पण पाकर वे वर्ष भर तृप्त बने रहते है। जिस घर में पूर्वजों का श्राध्द होता है, वह घर पितरों द्वारा सदैव सुरक्षित रहता है। शास्त्रों के अनुसार, पितृपक्ष में श्राध्द न किए जाने पर पितर अतृप्त होकर कुपित हो जाते है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को अनेक दुख और कष्ट भोगना पड़ता है।
धर्मग्रंथों में कहा गया है कि मृतक के लिए किए गए श्राध्द का सूक्ष्मांश उस तक अवश्य पहुँचता है, चाहे वह किसी भी लोक में, किसी भी योनि में क्यों न हों। गरुड़पुराण में परलोक का जितना विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन है, उतना विश्व के किसी अन्य ग्रंथ में नहीं है। ‘अथर्ववेद’ और ‘शतपथ ब्राह्मण’ में भी पितृलोक का स्पष्ट उल्लेख है।
पितृ पक्ष का महत्व
हिंदू धर्म में पितृ पक्ष का विशेष महत्व माना जाता है. हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद मृत व्यक्ति का श्राध्द किया जाना बेहत जरूरी माना जाता है. माना जाता है कि यदि श्राध्द न किया जाए तो मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती है. वहीं ये भी कहा जाता है कि पितृ पक्ष के दौरान पितरों का श्राध्द करने से वो प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी आत्मा को शांति मिलती है. ये भी माना जाता है कि पितृ पक्ष में यमराज पितरो को अपने परिजनों से मिलने के लिए मुक्त कर देते हैं. इस दौरान अगर पितरों का श्राध्द न किया जाए तो उनकी आत्मा दुखी व नाराज हो जाती है.
पितृ पक्ष में किस दिन करें श्राध्द
दरअसल, दिवंगत परिजन की मृत्यु की तिथि में ही श्राध्द किया जाता है. उदाहरण के तौर पर यदि आपके किसी परिजन की मृत्यु प्रतिपदा के दिन हुई है तो प्रतिपदा के दिन ही उनका श्राध्द किया जाना चाहिए. आमतौर पर इसी तरह से पितृ पक्ष में श्राध्द की तिथियों का चयन किया जाता है:
– जिन परिजनों की अकाल मृत्यु या फिर किसी दुर्घटना या आत्महत्या का मामला है तो उनका श्राध्द चतुर्दशी के दिन किया जाता है.
– दिवंगत पिता का श्राध्द अष्टमी और मां का श्राध्द नवमी के दिन किया जाता है.
– जिन पितरों के मरने की तिथि न मालूम हो, उनका श्राध्द अमावस्या के दिन करना चाहिए.
– यदि कोई महिला सुहागिन मृत्यु को प्राप्त हुई तो उनका श्राध्द नवमी को करना चाहिए.
– सन्यासी का श्राध्द द्वादशी के दिन किया जाता है.
श्राध्द के नियम
– पितृ पक्ष के दौरान हर दिन तर्पण किया जाना चाहिए. पानी में दूध, जौ, चावल और गंगाजल डालकर तर्पण किया जाता है.
– इस दौरान पिंड दान भी करना चाहिए. श्राध्द कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिलाकर पिंड बनाए जाते हैं. पिंड को शरीर के प्रतीक के रूप में देखा जाता है.
– पितृ पक्ष में कोई भी शुभ कार्य, विशेष पूजा-पाठ और अनुष्ठान नहीं करना चाहिए. हालांकि, देवताओं की नित्य पूजा को बंद नहीं करना चाहिए.
– श्राध्द के दौरान पाना खाने, तेल लगाने और संभोग की मनाही है.
– इस दौरान रंगीन फूलों का भी इस्तेमाल नहीं किया जाता है.
– पितृ पक्ष में चना, मसूर, बैंगन, हींग, शलजम, मांस, लहसुन, प्याज और काला नमक भी नहीं खाया जाता है.
– इस दौरान नए वस्त्र, नया भवन, गहने या कीमती सामान को खरीदने से भी कई लोग परहेज करते हैं.
श्राध्द कैसे करें?
– श्राध्द की तिथि का चयन ऊपर दी गई जानकारी के मुताबिक करें.
– श्राध्द करने के लिए आप अपने पुरोहित को बुला सकते हैं.
– श्राध्द के दिन अच्छा खाना या फिर पितरों की पसंद का खाना बनाएं.
– खाने में लहसुन और प्याज का इस्तेमाल न करें.
– मान्यता के मुताबिक श्राध्द के दिन स्मरण करने से पितर घर आते हैं और भोजन पाकर तृप्त हो जाते हैं.
– श्राध्द के दिन पांच तरह की बलि बताई गई है: गौ (गाय) बलि, श्वान (कुत्ता) बलि, काक (कौवा) बलि, देवादि बलि, पिपीलिका (चींटी) बलि.
– बता दें, यहां बलि का मतलब किसी पशु या जीव की हत्या नहीं है बल्कि श्राध्द के दिन इन सभी जानवरों को खाना खिलाया जाता है.
– तर्पण और पिंड दान के बाद पुरोहित या किसी ब्राह्मण को भोजन कराएं और दक्षिणा दें.
– ब्राह्मण को सीधा या सीदा भी दिया जाता है. सीधा में चावल, दाल, चीनी, नमक, मसाले, कच्ची सब्जियां, तेल और मौसमी फल शामिल है.
– ब्राह्मण भोज के बाद पितरों को धन्यवाद दें और जाने-अनजाने में हुई भूल के लिए माफी मांगे.
– इसके बाद अपने पूरे परिवार के साथ बैठ कर भोजन करें.
श्राध्द का समय
श्राध्द की प्रक्रिया पूरी करने के समय को शास्त्रों में कुतकाल कहा गया है। इसकी अवधि प्रायः दिन के 1 बजे से अपरान्ह 4 बजे तक की होती है। श्राध्द कर्म करने के लिए सर्वप्रथम अपने घर के द्वार को धोकर और लीपकर शुरु करना चाहिये। फिर ब्राह्मण को आमंत्रित कर उसकेअंदर अपने पुरखों का भाव स्मरण कर उसको सम्मानपूर्वक बोजन कराएँ।
श्राध्द के प्रारम्भ में और अंत में तीन-तीन बार निम्न श्लोक का उच्चारण करें।
देवताभ्य पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नमः स्वाहायै स्यधायै नित्मेव नमो नमः।।