लोग मृत्यु के बाद कुंभ अर्थात कलश में समाकर अस्थियों के रूप में हरिद्वार पहुंचते हैं, लेकिन श्रवणजी तो जीते जी ही सशरीर कुंभ मेले में शामिल होने गए थे। वहां से मुंबई लौटे तो किसी को पता नहीं था कि मृत्यु भी उनके साथ साथ घर आई थी। कर्णप्रिय संगीत के सरताज श्रवण राठौड़ संसार को संगीत से सजाकर कोरोना में समा गए।
संसार में हर साकार नश्वर है, और शाश्वत सिर्फ वही है जो निराकार है। लेकिन यह भी अखंड सत्य है कि मनुष्य की साधना शाश्वत होती है, और साधना का स्वरूप यदि संगीत के रूप में हो, तो साधना अजर, अमर और अविनाशी हो जाती है, कभी न समाप्त होनेवाली। इसलिए संगीतकार श्रवण राठौड़ के शरीर ने भले ही हमसे विदाई ले ली हो, पर उनका संगीत सदा जिंदा रहेगा। साज भले ही ठहर गए हों, लेकिन उनकी स्वर लहरियों पर सबका अधिकार है। श्रवणजी जानते थे कि संगीत की न तो अपनी कोई भाषा होती है, और न ही उसका कोई निजी अर्थशास्त्र। वे जानते थे कि सुर तो सांसों से संवरते हैं, धुनों में धमकते हैं और कर्णप्रियता की कसौटी पर स्वयं को कसते हुआ सीधे दिलों में जा बसते हैं। इसीलिए कर्णप्रिय धुनों के धनी श्रवण राठौड़, अपने ही सुरों से नाता तोड़कर कैसे कहीं जा सकते हैं। हमने तो हर बार श्रवणजी को साकार स्वरूप में सुरीले सुरों से सजे हुए देखा है और यह भी कि वे जीते जी संगीत की स्वर लहरियों में शाश्वत स्वरूप में समा गए थे। इसीलिए भले ही उनके शरीर ने 23 अप्रैल 2022 की रात को आखरी सांस ले ली ली हो, लेकिन हमारी सांसों में सुरों की सरिता बहा कर कर धमनियों और धड़कनों में वे सदा धमकते रहेंगे।
संसार में बहुत कम लोग होते हैं, जो असंभव परिस्थितियों में भी उम्मीदों का आंचल नहीं छोड़ते। श्रवणजी भी इसी तासीर के थे, जो रणभूमि में टूटती तलवारों की टंकार में से भी अपने हिस्से की स्वर लहरियां सहेज लाने का मद्दा रखते थे। वे निष्कपट थे, निष्पाप थे और बहुत हद तक निरापद भी। इसीलिए निराकार संगीत के सुरों को सजाने के सबसे मुश्किल दौर में भी वे बहुत तेजी से सफलता के शिखर पर पहुंच गए थे। लेकिन उनके संकटों और कंटकों का का निबटारा भी शायद इसी दुनिया में लिखा था। इसीलिए, संसार के किसी भी मनुष्य के जीवन को यश और कलंक का जो मिला जुला हिस्सा मिलना होता है, वह श्रवणजी की झोली में भी एक साथ आया। यश की उन्हें स्थायी प्राप्ति हुई संगीत की साधना से, तो अल्पकालीन अपकीर्ति मिली अपने साथी नदीम की विश्वासघाती करतूत से। श्रवणजी भले थे, भोले थे और भलमनसाहत से भरे होने के साथ साथ निरपराध भी थे। इसीलिए नदीम तो खैर लगभग निर्वासित जीवन बिताता हुआ लंदन में गुलशन कुमार की हत्या करवाने के अपने कर्मों का फल भोग रहा है लेकिन जीवन मूल्यों के स्तर पर श्रवणजी ने नदीम के बिना भी जीना सीख लिया था। प्रसंगवश, 1981 में आई ‘मैने जीना सीख लिया’ बतौर संगीतकार नदीम-श्रवण की पहली हिंदी फिल्म थी।
श्रवण राठौड़ का जन्म भले ही 1954 में हुआ, लेकिन पुनर्जन्म हुआ 1990 में, जब अपनी धमाकेदार फिल्म ‘आशिकी’ के संगीत के जरिए उन्होंने सफलता का एक विशाल निजी आकाश रचा। अपने इस आकाश के सितारे भी वे हीथे, चंदा भी वे ही, चांदनी भी, सूरज भी और इन सबका उजाला भी वे ही थे। वास्तव में तो उनका जन्म ही संगीत का शिखर फतह करने के लिए हुआ था। इसीलिए 1990 में उनकी ‘आशिकी’ इतनी सफल हुई कि वे रातों रात सिनेमा के उस शिखर पर पहुंच गए, जहां बड़े से बड़ा कलाकार भी उनके साथ महज एक तस्वीर खिंचवाकर खुद को धन्य अनुभव करता। सिरोही राजघराने से उनके परिवार का संगीत का नाता रहा और संगीत की शिक्षा तो उन्होंने अपने विद्वान संगीतज्ञ पिता पंडित चतुर्भुज राठौड़ से ली थी, जो जामनगर घराने के संगीतज्ञ थे और ध्रुपद के प्रकांड ज्ञाता भी। सन 1975 में आई भोजपुरी की ‘दंगल’ नदीम और श्रवणजी की जोड़ी पहली फिल्म थी। लेकिन उसके बाद उन्होंने ‘आशिकी’, ‘साजन’, ‘सड़क’, ‘दिल है कि मानता नहीं’, ‘साथी’, ‘दीवाना’, ‘फूल और कांटे’, ‘हम हैं राही प्यार के’, ‘राजा हिंदुस्तानी’, ‘जान तेरे नाम’ ‘रंग’, ‘राजा’, ‘धड़कन’, ‘परदेस’, ‘दिलवाले’, ‘राज’, ‘अंदाज’, ‘बरसात’, ‘सिर्फ तुम’, ‘कसूर’, ‘बेवफा’ जैसी अनेक फिल्मों को अपने कर्णप्रिय संगीत से कामयाबी का ताज पहनाया और अपने दौर के सबसे महंगे संगीतकार बन गए थे।
सफलता के संसार का सबसे खूबसूरत पहलू यही है कि आप जब सफल होते हैं, तो आपके आस पास का हर मनुष्य आपके सान्निध्य की लालसा पाले रहता है। फिर, श्रवणजी के संगीत की सफलता सा आकाश अत्यंक व्यापक था, यही वजह थी कि सन 90 के दशक में सिनेमा के संसार का हर दूसरा निर्माता और निर्देशक उन्ही के संगीत की स्वर लहरियों के सहारे अपनी नैया पार लगने के सपने पालता था। लेकिन इसे आप विधि की विडंबना कह सकते हैं कि अपने साथी नदीम के कभी माफ न किए जानेवाले विश्वासघात की वजह से सिनेमा में श्रवण राठोड़ के सारे सजे सजाए साज रूठ गए, साथी भी छूट गए और संबंध भी लगभग टूट से गए। वरना श्रवणजी ने तो सिनेमा के लिए अपने संगीत सा पूरा का पूरा सागर ही खोल दिया था, पर काल की क्रूरता का कथानक ही ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण था कि बेचारा सिनेमा ही श्रवणजी के संगीत को अपनी अंजुरी में ठीक से बांध नहीं पाया। लिखनेवाले लिख रहे हैं कि 66 वर्ष के श्रवण राठौड़ अपने पीछे पत्नी विमला एवं दो बेटों संजीव और दर्शन को छोड़ गए हैं। लेकिन असल में श्रवण जी हम सबके लिए जो संगीत छोड़ गए हैं, वह इस संसार के रहने तक अमर रहेगा। उनका संगीत हमारे सुरों में सजता रहेगा, होठों पर संवरता रहेगा और हमारी गुनगुनाहट में घूमता रहेगा।
दरअसल, मन की वेदना जब विस्तार पाकर विदीर्ण करने लगती है, तो वह विशेषण या परिभाषा में तब्दील हो जाती है। इसीलिए अब, जब कोई प्रेयसी अपने घूंघट की आड़ से दिलबर के दीदार को अधूरा महसूस करेगी, तो उसमें श्रवणजी का अक्स दिखेगा। जब किसी दूल्हे का सेहरा सुहाना लगेगा और लोग जब सोचेंगे कि तुम्हें प्यार करें के नहीं, तो श्रवणजी याद आएंगे। कोई जब चने के खेत में जोरा जोरी करेंगा, जब कोई किसी आमंत्रण देगा कि चेहरा क्या देखते दो दिल में उतरकर देखो ना, और जब आपके ऐसी दीवानगी कही देखनो को नीं मिलेगी, तो श्रवणजी बहुत याद आएंगे। किसी की पायलियां गीत सुनाएगी, सरगम गाएगी, तो वे परदेसी मेरे यारा से लौट के आने की विरह वेदना में आंसू बनकर छलकेंगे। जब कोई आपकी नजर के सामने और जिगर के पास रहेगा, जब कोई किसी की चाहृत में दुनिया भुला देने को बेताब होगा और आशिकी के लिए किसी को बस एक सनम की उम्मीद जगेगी, तो श्रवणजी याद आएंगे। किसी का पागल जिया ना मानेगा और किसी को बेताबी कोई नहीं जानेगा, या फिर कोई बिन साजन झूला झूलने का मन बनाएगा, तो सबसे पहले श्रवण याद आएंगे। लोग भी न, यूं ही कह रहे हैं कि वे संसार से चले गए! देखिए न, श्रवण राठौड़ जिंदा तो है संगीत में, धुन में, दिलों में, दिमाग में और हमारी जुबां पर भी! ईश्वर ने श्रवण राठोड़ को अब हमें इसी नए रूप में सौंपा है। वे अब हमारे दिलों की धड़कनों में रहेंगे।
(लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक हैं और श्रवण राठोड़ से उनका पारिवारिक नाता रहा है)
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