श्रीकृष्ण का जीवन जिस प्रकार भारत की सभी भाषाओं और जातियां भी उनके जीवन से प्रभावित हैं। उनको मानने वाले उन्हें चौबीस कला पूर्ण भगवान की संज्ञा देते हैं तो कुछ लोग उन्हें योगीराज और कुछ महापुरुष, श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ तथा सम्पूर्ण मानवीय गुणों से सर्वसम्पन्न अपना आदर्श मानते हैं।
रसखान की भावपूर्ण पंक्तियां
श्रीकृष्ण की जन्मभूमि कर्म-भूमि के कण-कण पर सर्वस्व निछावर करने का संकल्प लेने वाले महान मुस्लिम रचनाकार ‘रसखान’ की निम्न पंक्तियां उनकी आराधना का स्पष्ट दिग्दर्शन कराती हैं-
या लकुटि अरू कामरिया पर, राज तिहुंपर को तजि डारौ/
आठहूं सिध्द नवी निधि को सुख नन्द की गाइ चराई बिसारौ/
रसखान कबौ इन आंखिन सौ, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारी
महाकवि ‘रसखान’ ने भगवान श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करने की कामना करते हुए जीवन को उत्कट आकांक्षा निम्न पंक्तियों में व्यक्त करते हैं-
‘मानुष हों तो वही रसखानि,
बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पशु हों तो कहा वश मेरौ,
चरों नित नन्द की धेनु मंझारन।
पाहन हों तो वही गिरि को जो धरयो,
कर छत्र पुरन्दर धारन।
जो खग हो तो बसेरों करौं मिलि,
कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन।’
रसखान की ऐसी भावपूर्ण पंक्तियों पर निछावर होकर जर्मन हिन्दी विद्वान डा. लोठार लुत्से ने सूरदास पंचशती वर्ष पर एक लेख में रसखान के संदर्भ में लिखा-
‘… भक्ति आन्दोलन, सूरदास जिसका एक अंग थे, प्रारंभ से ही एक लोकतांत्रिक आन्दोलन रहा यद्यपि इसके आराध्य हिन्दू ईश्वर के अवतार थे किन्तु वह कभी-भी संकीर्ण साम्प्रदायिकता की ओर नहीं झुके वरना सन् 1558 के करीब पैदा हुए एक मुस्लिम रसखान के लिए ब्रजभाषा की कुछ उत्कृष्टतम वैष्णव कविताएं लिख पाना शायद ही संभव हो पाता।…’
कृष्ण दीवानी मुगलानी!
रामकाव्य के अमर रचयिता गोस्वामी तुलसीदास के अनन्य मित्र अब्दुल रहीम खानखाना का हिन्दी साहित्य में स्थान अग्रिम पंक्ति में है। रहीम अनेक भाषाओं के विद्वान् तथा मुगल शासन में वजीरे आजम एवं सेनापति के पद पर रहते हुये भी उनकी लेखनी सदैव चलती रही। श्रीकृष्ण के प्रति उनकी अर्चना की ये पंक्तियां कितनी आत्मविभोर करने वाली हैं-
‘जिहि रहीम मन आपुनों, कीन्हों चतुर चकोर
निसि बासर लाग्यो रहे, कृष्ण चन्द्र की ओर’
महाकवि रहीम को श्रीकृष्ण की मनभावनी सुन्दर छवि उनके हृदय में रस ब सगई जिसका प्रस्तुत पंक्तियों में अवलोकन करें-
ललित कलित माला का जवाहर जड़ा था
चपल चखन वाला चांदनी में खड़ा था।
कटितर निच मेला पीत सेला नवेला
अलिबिन अलबेला ‘श्याम’ मेरा अकेला।’
ब्रज के मंदिर के बाहर चबूतरे पर अपनी केशराशि छितराये मुगलानी ‘ताज’ की बहुचर्चित यह कविता ठेठ हिन्दी में ही हैं-
‘देव पूजा ठानी, मैं नमाज हूं भुलानी
तजे कलमा-कुरान, साडे गुनन गहूंगी मैं,
नंद के कुमार! कुर्बन तेरी सूरते पै
हूं तो मुगलानी, हिन्दुवानी है रहूंगी मैं’
कृष्ण दीवानी ‘ताज’ को मुल्लाओं ने ‘बावली’, ‘पगली’ कहा। मुगल वंशी ‘ताज’ आजीवन श्रीकृष्ण की भक्ति में ही डूबी रहीं। वह सुधिजनों को भी सदा चेतना के स्वरों में कहती रहीं-
‘निहचै करि सोधि लेहु, ज्ञानी गुनवंत बेगि
जग में अनूप मित्र, कृष्ण का मिलाप है।’
एकमात्र श्रीकृष्ण जी जैसे अनुपम मित्र’ का मिलन ही सब दुखों का विनाशक है। इसी विश्वास से ‘ताज’ ने मुस्लिम वाला होकर भी डंके की चोट पर घोषणा की-
‘नन्द जू का प्यारा, जिन कंस को पछारा
वह वृन्दावनवारा कृष्ण साहिब हमारा है।’
‘गीता शरीफ’ नामकरण
प्रसिध्द लेखक डा. शिव कुमार गोयल ने एक प्रेरक प्रसंग में श्रीकृष्ण की गीता विषयक चर्चा में लिखा-
गांधीजी की सुप्रसिध्द शिप्या एवं विख्यात देशभक्त अब्बास तय्यबजी की सुपुत्री स्व. कुमारी रेहाना बहन को गीता के प्रति अटूट श्रध्दा थी। गीता को वे महान एवं अद्वितीय ग्रंथ मानती थीं। वे अपनी आत्मकथा ‘सुनिये काका साहब’ में लिखती हैं कि ‘सन् 1923 ई. में मेरे जीवन में गीता जी प्रकट हुई। गीता पढ़ते-पढ़ते मेरे दिल दिमाग पर मानों बिजलियां गिरती चली गयीं। मैं पागल हो गयी, विव्हल हो गयी और व्याकुल हो गई। मैंने लगातार उसे बीस बार पढ़ लिया फिर मैं उसे हाथ से अलग न रख सकी। रात को तकिये- तले रखकर सोती। मेरी आंखों के सामने एक अद्भुत सुन्दर, तेजोमय और आनन्दमय दुनिया मानो खुल गयी। गीता के सात सौ श्लोकों में मुझे चौदह ब्रह्माण्डों के रहस्य नजर आने लगे। मेरे सभी सवालों के एकदम से जवाब मिल गये। हर उलझन का सुझाव मिल गया। हर अंधेरे का दीपक मिल गया। हर गुमराही को रहनुमा (मार्गदर्शक) मिल गया। गीता से मैंने सब कुछ पा लिया।’
रेहाना बहन नियमित गीता का पाठ किया करती थीं। गीता के सभी श्लोक उन्हें कण्ठस्थ थे। वे गीता को सम्मानपूर्वक ‘गीता शरीफ’ कह कर पुकारा करती थीं।
रेहाना जी ने अपनी पुस्तक ‘गोपी हृदय’ में श्रीकृष्ण भक्ति की अनोखी कहानी लिखी है।’ ‘कृपा किरण’ श्रीकृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत, ‘भजनों’ का संग्रह है। हिन्दू-धर्म, हिन्दू-दर्शन एवं हिन्दू आचार विचारों के प्रति उनकी श्रध्दा भक्ति एवं दृढ़ विश्वास वस्तुत: प्रशंसनीय है।
‘दरवेश गीता’
मुस्लिम संत साईदीन दरवेश का सन् 1712 में गुजरात के महेसाणा जनपद में जन्म हुआ था। उन्होंने एक सूफी पंथ चलाया जिसका नाम- ‘दरवेश ग्रंथ’ रखा गया। संत ज्ञानेश्वर गीता’ का हिन्दी में अनुवाद किया जो ‘दरवेश गीता’ के नाम से चर्चित हुआ। गीता के प्रति असीम प्रेम उनकी इन रचनाओं से प्रकट है।
धन्य भाग्य मंगल घड़ी, ‘गीता’ जगे अनुराग
प्रेम कटोरा पीजिया, सांई ‘दीन’ बड़भाग।
रामायण, भारत पढ़े उपनिषद् पुरान
गीता ज्ञान नहिं पाइया, ‘दीन’ बड़ो अज्ञान॥
साई तेरी भगवद्गीता मोसे लिखी न जाय
मैं तो दीन फकीर हूं, तभी हो पाक पीराय॥
हिन्दू कहां इस्लाम कहां मत कोई भूलो यार
गीता ज्ञान में नाहिए, ‘दीन’ कहत पुकार॥
मनुज हित गीता कथे करीमा कृष्ण जमुरार
भव औगाह विजारिये दीन करत जुहार
गीता-अमीरस पीजिया, छक रहै आठों जाम
साई ‘दीन’ सोहि लिखे, ‘दरवेश-गीता’ नामा।
‘ज्ञानेश्वरीगीता’ सुने, हुआ ज्ञान उजियार
सो ही गीता – अभी से लिखे, सांई ‘दीन’ विचार॥
मैं तो दीन फकीर हूं तुम हो गरीब नवाज
दीनानाथ दयानिधि, रखो दीन की लाज॥
श्रीकृष्ण द्वारा महाभारत में कुरूक्षेत्र के युध्द के समय दिये गये उपदेश को आत्मसात कर मौलाना जफर अली ने गीता के प्रति अपनी श्रध्दा प्रस्तुत पंक्तियों में अर्पित की हैं-
दिलों पर डालती आई है, डोरे सहर के
गीता नहीं मिटने में आई है,
यह जादू की लकीर अब तक।
आज हमारे देश का राजनैतिक-सामाजिक वातावरण दिनों-दिन विषाक्त होता जा रहा है। जाति और धर्म के नाम पर एक दूसरे का खून का प्यासा इंसान हो रहा है। शायद इसी को आधार बनाकर सुप्रसिध्द शायर सरदार अली जाफरी ने देशवासियों से कहा हैं-
अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाए
तो फितनगरों का काम तमाम हो जाए।
मिटाएं बिरहमन शेख तफरूकात अपने
जमाना दोनों घर का गुलाम हो जाए।
इस प्रकार मुसलमान रचनाकारों की वाणी में सुंदर कल्पना के साथ श्रीकृष्ण दर्शन आकर्षित करता है। कबीर से लेकर आधुनिक रसखान अब्दुल रसीद खान ‘रसीद’ तक अनगिनत मुस्लिम रचनाकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने ‘राम’ और ‘कृष्ण’ की स्तुति करके उसी आनन्द का अनुभव किया है जो इनकी दृष्टि में इस्लाम के आध्यात्मिक पक्ष का सच्चा आनन्द है। अकबर के समय तक मुस्लिम गोष्ठियों में ध्रुपदों में कृष्ण की वन्दना करना और उसके माध्यम से इस्लामी चिन्तन को व्याख्यायित करना आम हो चुका था।
उत्तर प्रदेश के हरदोई जनपद के बिलग्राम कस्बे में बड़ी संख्या में हिन्दी के मुस्लिम कविगण विख्यात रहे हैं। अब्दुल वाहिद बिलग्रामी ने ‘हकाय के हिन्दी’ नामक ग्रंथ में लिखा है गोकुल और कृष्ण के माध्यम से इस्लामी अध्यात्म का सच्चा विकास कर सकता है और उसके इस कृत्य से उसकी मुस्लिम आस्थाएं किसी प्रकार भी खण्डित नहीं होतीं। लखनऊ के हिन्दी विद्वान एवं कविवर डा. मिर्जा हसन नासिर ने लिखा है- ‘हमारे धर्म विभिन्न हैं पर सब अभिन्न हैं। हमारी एक गंगा-जमुनी संस्कृति है वह हैं : भारतीय संस्कृति। इस संस्कृति में रामायण अर्थात् रामकथा और श्रीमद्भगवत यानी कृष्ण कथा कुछ ऐसा रमे हुए हैं कि यदि इन्हें अपने से विलग करने को घात सोची जाये तो संस्कृति के नाम पर हमारे पास शायद ही कुछ शेष रह पाये।’
मुस्लिम गोष्ठियों में कृष्ण वंदना
शाह बरकतुल्लाह जी की रचना में कृष्णकथा की कितनी आन्तरिक आध्यात्मिक गहराइयां हैं यह निम्न पंक्तियां दिग्दर्शन कराती हैं-
ऊधौ तुम यह मरम न जानो।
हम में श्याम, श्याम मय हम हैं,
तुम जाति अनत बखानों॥
मसि में अंक, अंक अस महियां,
दुविधा कियो पयानो।
जल में लहर लहर जल माहीं,
केहि विधि बिरहा ठानो।
मिलिबो जाय जोग कुब्जा कहं
जाप ताप अरु ध्यानों।
हम संग जोग भोग कुछ नाहीं,
बून्द समुन्द समानो।
श्रीकृष्ण की प्रिय ‘बांसुरी’ पर हिन्दू रचनाकारों से मुस्लिम कवियों ने कम नहीं लिखा है। इसके साथ कृष्ण ने संबंधित मथुरा, गोकुल, बरसाना, नंद गांव को भी कृष्ण भक्त मुस्लिम शायरों ने विस्मृ नहीं होने दिया। मौलाना हसरत मोहनी की रचना दृष्टव्य है-
मथुरा ही नगर है आशिकी का,
हम भारती हैं आरजू इसी का
हर जर्रा सरजमीने- गोकुल वारा
है जमालेढ दिलवारी का
बरसाना- ओ-नंद गांव में भी,
देख आये हैं हम जलवा किसी का
पैगामे-हयाते-जावदां था, हर
नगमा कृष्ण बांसुरी का
वो नूरे स्याय था कि ‘हसरत’,
सरचश्मा फरोगे- आगही का
मौलाना हसरत मोहानी जब कभी हज से वापस आते थे तो श्रीकृष्ण की पावन भूमि ‘वृंदावन’ जाया करते थे इनकी निम्न पंक्तियों में देखिए कृष्ण प्रेम की झलक
‘मथुरा से अहल-ए-दिल को वो आती है बु-ए-उन्स दुनिया-ए-जां में शोर है
उसके दवाम का मरव्लूक इस निगाह-ए-करम की उम्मीदवार मस्ताना कर रही हैं भजन राधे श्याम का।’
हज से लौटकर वृंदावन!
शायर हामिदउल्ला अफसर मेरठी एक बंद में कहते हैं-
हुस्न ने पैगाम्बरी का रूप धारा ब्रज में,
इश्क के बल रास्ता सीधा दिखाने आये हैं
ऐस सलोनी मोहिनी सूरत के मालिकाएं
कृष्ण दिन बिलावत कातिरी हम भी मानने आये हैं
बांसुरी तेरी फिर राग बरसाने लगे,
फिर फजाओं में वतन का प्रेम लहराने लगे।
बरसाने की होली अति प्रसिध्द है उसी होली के रंग में रंगे हुए कविवर रहमान अली ‘रहमान’ के मस्ती भरे स्वर-
गोकुल की गोरी, होरी खेले झक झोरि-झोरि-झोरि घूंघट को खेलि-खोलि रंग बरसावति हैं
गोरे-गोरे हांथन में कंगना खनक रहे, चंचल नयन से सबको रिझावतति है
नाचि रहे ‘नंदलाल’ संग लै ग्वाल-बाल, होरी में गोरी खूब ठुमका लगावति है।
ढोलक मृदंग संग, झूमि रहे पी के भंग, नाना भांति पोत रंग, खूब हर्षावत है।
कोयल-सी बोली बोली, घूंघट को खोलि-खोलि/हौरी में गोरी नाही, तनिको लजावति है
रंगन से भीगे आप, ‘राधा’ नाचे गोपी संग झूमि-झूमि रहमान वंशी बजावत है।
सुप्रसिध्द राष्ट्रीय शयार कैफी आजमी साहब ने देश के हर पहलू पर अपनी रचनाएं लिखी हैं। उनकी एक नज्म ‘फर्ज’ शीर्षक से इतनी आंतरिक दृष्टि से लिखी गयी है जिसमें भारतीय दर्शन के अनुसार व्यक्ति कभी मरता नहीं है क्योंकि ‘आत्मा’ अजर-अमर होती है। पुनरवि जन्मं-पुनरपि मरणं का श्रीकृष्ण के गीता उपदेश का यही सार है कि अपने (फर्ज) कर्तव्यों पर दृढ़ होकर कार्य करते रहें कैफी आजमी के शब्दों में-
और फिर ‘कृष्ण’ ने ‘अर्जुन’ से कहा, न कोई भाई न बेटा न भजीता न गुरु।
एक ही शक्ल उभरती है हर आइने में आत्मा मरती नहीं जिस्म बदल लेती है।
धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में जिस्म न लेते हैं जन्म जिस्म फना होते हैं।
और जो एक रोज फना होगा वह पैदा होगा इक कड़ी टुटती है दूसरी पैदा हो जाती है।
खत्म ये सिलसिला-ए-जीस्त भला क्या होगा रिश्ते, सौ, जज्बे सौ, चेहरे भी सौ होते हैं।
फर्ज सौ चेहरों में शक्ल अपनी ही पहचानता है वही महबूत वही दोस्त वही एक अजीज।
दिल जिसे इश्क और इक अमल मानता है जिन्दगी सिर्फ अमल-सिर्फ अमल सिर्फ अमल।
और ये बेदर्द अमल सुलह भी है जंग भी है आन को मोहिनी तस्वीर में हैं जितने रंग…
साथियों दोस्तों हम आज के ‘अर्जुन’ ही तो हैं।’
देश पर आतंकवादी समस्याओं के प्रति कविवर मिर्जा वहीद बेग ‘शाद’ महाभारत का उदारण देते हुए स्वदेश के लोगों को चेतावनी भरे शब्दों में आगाह करते हुए स्पष्ट कहते हैं-
ईमान की आंखों में आंसू हैं नदामत के
विश्वास के द्वारे पर अपराध के पहरे हैं॥
धोखे से कोई गौरी चढ़ आये न भारत पर
अब देश में जयचंदी औलाद के पहरे हैं॥
आये न वतन मेरे, नफरत को खबर कर दो।
धर्म से मुसलमान होते हुए भी रायबरेली के कृष्ण भक्त आशुकवि श्री अब्दुल रसीद खां ‘रसीद’ में धार्मिक संकीर्णता का नामोनिशान तक नहीं था। वस्तुत: गंगा भी अलग यमुना भी, किन्तु आपस में मिही हुई धारायें। संगम दोनों को प्रेम से प्रश्य देता है। कविवर श्री ‘रसीद’ जी को आधुनिक ‘रसखान’ क्यों कहा जाता है? क्योंकि इनका आराध्य का दृश्य आंखों के आगे नाच उठता है-
श्याम तन शीश पर मोर-पंख का मुकुट
कमल से सुंदर बड़े-बड़े नेत्र, दीर्घ भुजाएं
सिंह सी पतली लचकीली कमर,
पीतम्बर धारे,
कमल से ही पद, हरित बांस की
बांसुरी अधरों पर धरे स्वयं से भूले जब-जीवन भुलाए से।
कविवर रसीद जो चितचोर तथा अनेक नामों से ही अपने आराध्य देव का स्मरण करते थे किन्तु ‘कृष्ण’ नहीं कहते। वह इस्लाम धर्म की मर्यादा का निर्वहन करते हुए अंतर्मन से वैष्णव भक्ति- भावना से ओत प्रोत थे।
एक समर्पित भक्त अपने आराध्य के प्रति किस अकिंचन भाव से श्याम सुंदर से निवेदन करते हैं-
मन पापी कठोर है श्याम बड़ो केहि ठाम कहां तुम्हें पाऊं भला।
पवि सों पथरोय हैं लोचन हूं, पद-पंकज धोय अधाऊं भला॥
नजीर अकबरा वादी उर्दू के पहले बड़े शायर है, जिन्हें वर्तमान में कौमी एकता पर लिखने वाला शायर कहें तो गलत न होगा, हिन्दू पर्व-त्यौहारों को उनकी दृष्टि में-
है दशहरा में भी यूं तो फरहत व जीनत नजीर
पर दीवाली भी अजीब पाकीजा त्योहार॥
वस्तुत: मुस्लिम रचनाकारों ने श्रीकृष्ण पर अपार साहित्य सृजन किया है, यह उसकी बानगी मात्र है।