यों यह उम्मीद करना ठीक नहीं है कि भाजपा सीखने-समझने की स्थिति में है। सत्तावान हमेशा हरा-हरा देखता है। तभी भाजपा के प्रवक्ता ने कहा हैं कि कांग्रेस को इंट्रोस्पेक्शन की जरूरत है! मतलब कांग्रेस को विचार और सीखने की जरूरत है न कि भाजपा को। संदेह नहीं कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी को इस बात पर सोचने की जरूरत है कि यदि उसके विधायक दल में भाजपा ने सैंध लगाई तो ऐसा क्या उसके बनाए लीडर की वजह से नहीं हुआ? हरीश रावत से गलतियां हुई तभी नौ बागी हुए। तभी भाजपा को सरकार बरखास्त कराने का मौका मिला। मगर फिर उसके बाद उठा लाख टके का सवाल है कि मौका मिला तो उसका फलूदा कैसे बना? कांग्रेस की गलतियां थी और है इसलिए तो नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने। भाजपा की सत्ता बनी। भाजपा को छप्पर फाड़ मौके ही मौके तो कांग्रेस की बदौलत है। इसलिए उसके बाद का यह बड़ा सवाल है कि उन मौको पर भाजपा क्या कर पा रही है? उत्तराखंड में हरीश रावत और कांग्रेस के कुप्रबंध ने भाजपा को मौका दिया। मगर उससे भाजपा का क्या बना? इस मौके से उसने पुण्यता पाई या बदनामी?
जाहिर है भाजपा की बदनामी अधिक हुई। इस पर सफाई हो सकती है कि राजनीति में जीत, हार चलती रहती है। पर जो पार्टी केंद्र की महाबली सत्ता में होती है उसकी ऐसे हार नहीं हुआ करती। कांग्रेस ने भी अपनी सत्ता के वक्त कई प्रदेशों में विरोधी की सरकार को अस्थिर करने के काम किए। मगर ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं आता है जिसमें वह सब हुआ जो पिछले कुछ सप्ताह में उत्तराखंड को ले कर देहरादून, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में देखने को मिला। घटनाक्रम की एक-एक घटना को जांचे तो निष्कर्ष निकलेगा कि मौका भले कांग्रेस से मिल रहा है मगर उसे भुना सकने, उसे अपने मकसद के अनुकुल अंतिम नतीजे तक पहुंचा सकने में मोदी सरकार और भाजपा की मशीनरी असमर्थ है। इसलिए कि मौका है मगर रणनीति नहीं है, लोग नहीं है और न ही प्रबंधन है!
इस बात को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस की लीडरशीप ने शायद बूझा है। तभी कांग्रेस नेताओं की झूमते हुए प्रतिक्रियाएं आई है। उत्तराखंड की राजनीति के अंत नतीजे ने कांग्रेस लीडरशीप के आत्मविश्वास में जान फूंक दी है। बाकि विरोधी नेताओं पर भी असर हुआ है। मायावती हो या अरविंद केजरीवाल या दूसरी भाजपा विरोधी पार्टियों के नेताओं में उत्तराखंड के घटनाक्रम का अनिवार्यतः असर हुआ होगा। अरविंद केजरीवाल ने उत्तराखंड में भाजपा की शिकस्त के हवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सवाल यों ही नहीं पूछा हैं।
हां, भाजपा विरोधियों को बोध हुआ है कि भाजपा सत्ता की जड़ अवस्था में फंस गई है। सत्ता से सबकुछ कर लेने का जो नैसर्गिक जड भरोसा बनता है उसी अनुसार वह अपने एजेंडे पर काम करने लगी है। मतलब यदि आगस्ता हेलिकॉप्टर रिश्वत, नेशनल हैराल्ड केस से ले कर चुनावों के प्रति वह आत्मविश्वास में है तो वह सत्ताजन्य है। इसलिए चिंता वाली बात नहीं है। अरविंद केजरीवाल को समझ आ गया है कि भाजपा से लड़ना आसान है। वहां कोई है ही नहीं। न नरेंद्र मोदी- अमित शाह किसी को दिल्ली में उतार सकते है जो उन्हे दिल्ली में घेरे रहे। या कोई और उनसे लडे। इसलिए उन्हें खुला मैदान मिला हुआ है।
सचमुच मामूली बात नहीं है जो अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ सीधे लगातार केंपैन चलाए हुए है। एक मुख्यमंत्री बात, बेबात और झूठ को सच बनाने की सीमा तक यदि आगे बढ़ा हुआ है तो मूल वजह भाजपा, मोदी सरकार की कमियों को उसके द्वारा बूझ लेना है। केजरीवाल एंड पार्टी को पता है कि मोदी सरकार बिना लीगल प्रबंधनों और बंदोबस्तों के है।
सो अरविंद केजरीवाल की मुहिम और हरीश रावत की जीत इस बात का प्रमाण है कि मोदी सरकार और भाजपा कितनी ही आक्रामकता बरते वह अंततः सत्ता निर्भर मिलेगी। इस मई में भाजपा और मोदी सरकार की आक्रामकता के दो छोर दिखलाई दिए। एक उत्तराखंड और दूसरा आगस्ता कांड। दोनों में लक्ष्य कांग्रेस और कांग्रेस मुक्त भारत है। पर भाजपा सबकुछ होते हुए भी उत्तराखंड को कांग्रेस मुक्त नहीं बना सकी तो सोचे आगस्ता हेलिकॉप्टर मामले का क्या हश्र होगा? कांग्रेस नेताओं को अहसास हो गया होगा कि मोदी सरकार भले आगस्ता हेलिकॉप्टर मामला उछाले, नेशनल हैराल्ड केस से उम्मीद करे या विरोधी पार्टी के नेताओं के खिलाफ सीबीआई जांच कराए अंततः ढाक के तीन पांत होंगे। इसलिए कि कुछ होने जाने के लिए जो चुस्त न्यायिक प्रबंधन होना चाहिए या शातिर नेताओं की टीम के जो प्रबंधन होने चाहिए उसका जुगाड़ कहां से, कैसे भाजपा कर लेगी? जो करेगी वह सिस्टम की बदौलत होगा और सिस्टम से खेलना, उससे पार पाना कांग्रेस नेताओं को बखूबी आता है। एक छोटे से उत्तराखंड के मामले में राजनैतिक, न्यायिक प्रबंधन नहीं हो सका तो बाकि में क्या हो सकेगा? आगस्ता मामले में मोदी सरकार जांच करा ले. गवाह और साक्ष्य भी निकाल ले तो अदालत में वे क्या टिक सकेगें?
इसलिए भाजपा के लिए अब सीखने वाली बात यह है कि इतने मोर्चे खोले है या खोलने है तो उनका प्रबंधन क्या है, कहां है? प्रबंधन की जो टीम है, क्या वह अरविंद केजरीवाल, हरीश रावत, नीतिश कुमार, मायावती आदि से मुकाबला करने में समर्थ है या सभी से मुकाबला अकेले नरेंद्र मोदी- अमित शाह को ही करना है?
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