प्रेम पुष्प (साझा संकलन) कृति देश के 18 राज्यों के 64 रचनाकारों की 100 से ज्यादा कविताओं, गीतों, गजलों और मुक्तकों से सजा मन के भावों के रंगबिरंगे पुष्पों से महकता गुलदस्ता है। समरस संस्थान साहित्य सृजन भारत, गांधीनगर, गुजरात की ओर से प्रकाशित कृति की काव्य धारा से राष्ट्रीय अस्मिता, सामाजिक समरसता, प्राकृतिक श्रृंगार, सामाजिक परिवेश,मानवीय संवेदनाओं के स्वर प्रसफुट्टित हो रहे हैं।
तेजी से क्षीण हो रही मानवीय संवेदनाओं पर पृष्ठ 33 पर कवि अक्षय बंसल की कविता “परिवर्तन” की ये पंक्तियां “आंखों के नूर थे, बुढ़ापे की लाठी,वसीयत में लिख डाली,जमा पूंजी सारी, नसीब खोटा था ,या सिक्कों में खोट थी,चश्में के नंबर थे, बदल गये देखते देखते” आइना हैं हमारे समाज का।
“तुम धृतराष्ट्र भले बन जाना, मैं गांधारी नहीं बनूंगी, वृत लो तुम वतनवाद का,पतिवृतधारी तभी बनूगी।” कविता में प्रेम समर्पण को उद्यत नारी अवसर पड़ने पर अदम्य साहस के साथ कहने की हिम्मत भी रखती है। कवियित्री अनुराग बाला पाराशर पृष्ठ 37 पर प्रभावी संदेश देते नज़र आती हैं। समाज में गिरते रिश्तों के स्तर पर चिंता व्यक्त कर कवि नर सिंगाराम पृष्ठ 81 पर कहते हैं, “अपने पराए होने लगे, अर्थ जो रिश्ते खोने लगे, मानव मूल्य हैं बौने लगे,सदगुरु निरर्थक कोने लगे।”
देशगान में डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट पृष्ठ 67 पर देश के प्रति अभिमान की भावना जागते हुए कहते हैं, “छिन्न भिन्न हो ना अपनी, संस्कृति एक पहचान रहे, याद दिलाता रहे हमेशा हम को यह अभिमान रहे। नभ-जल-थल पर आन है, अपनी ध्वज निर्भय गणमान्य रहे, वेदों से अभिमंत्रित मेरा भारत वर्ष महान रहे।” गांधी जी की वर्तमान समय में प्रासंगिकता पर फूलचंद विश्वकर्मा ने पृष्ठ 89 पर अपनी गज़ल में क्या खूब कहा है। “सौंप गए थे तुम जिनके हाथों में भारत की तकदीरें,सामाजिक ताने बाने का आज दिवाकर अस्त हो गया।”
हिंदी दिवस के महत्व को प्रतिपादित कर पृष्ठ 140 पर कवियित्री शिखा अग्रवाल की पंक्तियां, “बोल भारत तूने क्या देखा….!” कालजयी रचनाओं में मेरा सरल रूप देखा,कबीर, रैदास को लेखनी में छलका मेरा सौम्य रूप देखा, कविताओं में मेरा सम्मान देखा, दिनकर,सूरदास के सुरों में सजा मेरा गहना देखा, देश देश के कोने में मेरा डेरा देखा, बोल भारत तूने क्या देखा” प्रभावशीलता की कसोटी पर खरी उतरती हैं।
रेणु सिंह “राधे” की आखिरी विदाई, मंजुलता शर्मा की मुग्ध नायिका, डॉ. शशि जैन की मेरे जीवन साथी, अनिल कुमार मिश्रा की क्या गांव चलोगे…! अलका महेश्वरी की जीवन संदेश, डॉ. आलोक यादव की हे भारत के वीर जवानों…! उषा लाल अंजु की नई पहचान दिलानी होगी। ओम छीपा की क्षणभंगुर जीवन, विनिता निर्झर की पायल की रुनझुन, वासदेव किशनाना का देश भक्ति गीत लड़ते लड़ते घायल हो गर, रक्त मेरा ये ले लेना, आराध्या शर्मा की बाल रचनाएं बहुत याद आती होगी दीदी भी इस काव्य पुष्पगुच्छ के सुंदर सुमन हैं।
हरे रंग की ज़मीन के साथ प्रकृति के बीच मुस्कराते गुलाबी प्रसूनों से सजा आवरण पृष्ठ एक दृष्टि में मन को भाता है। पृष्ठ आवरण पर कृति में सहभागी रचनाकारों के अवाक्ष चित्र दे कर सम्मान दिया गया है। सज्जा और प्रिंटिंग उच्चकोटि की है। कृति के आंतरिक फ्लैप एक पर संस्थान की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और अंतर्राष्ट्रीय इकाई तथा फ्लैप दो पर प्रांतीय कार्यकारिणी का विवरण है।
माँ शारदे की वंदना के साथ शुरू यह कृति स्व.पुष्पा देवी व्यास को समर्पित है। प्राक्कथन में डॉ.गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’ कहते हैं साहित्य, संगीत और कला मनुष्य को श्रेष्ठता की और अग्रसर करती हैं। संक्रमण काल से गुजर रहे साहित्य के समय में चिंतन की आवश्यकता है और साझा संकलन वक्त की जरूरत है।
संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष और संयोजक डॉ.मुकेश कुमार व्यास ‘स्नेहिल’ ने संस्थान के परिचय में बताया की 8 सदस्यों के साथ गांधीनगर में 14 सितंबर 2014 को स्थापित संस्थान में आज 18 राज्यों एवं तीन अंतर्राष्ट्रीय इकाइयों के 38 हज़ार से ज्यादा सदस्य देश के साहित्यिक अवदान में योगदान कर रहे हैं। श्रेष्ठ सृजन के लिए 1100 से ज्यादा रचनाकारों को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है। कृति की सफलता के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने अपने संदेश में शुभकामनाएं दी हैं। देश के प्रतिष्ठित व्यक्तियों, रचनाकारों के शुभकामना संदेश भी कृति का मान बढ़ाते हैं।
पुस्तक का संपादन डॉ. मुकेश कुमार व्यास, डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट और संस्थान की राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी डॉ. शशि जैन ने संयुक्त रूप से किया है। अनुष्टुप प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित कृति का मूल्य 345 रुपए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ऐतिहासिक, साहित्यिक व सासंक्-तिक विषयों पर निरंतर लेखन करते हैं।)