हिंदी सिनेमा में यूं तो गायकों की लंबी फेहरिस्त है, लेकिन आशा भोंसले किसी परिचय की मोहताज नहीं है। आशा भोंसले आज अपना 83वां जन्मदिन मना रही हैं। आशा भोंसले के जन्मदिन पर वरिष्ठ पत्रकार व हिंदी दैनिक हिन्दुस्तान की सीनियर फीचर संपादक जयंती रंगनाथन ने लाइव हिन्दुस्तान डॉट कॉम पर एक विशेष लेख लिखा है, जिसके जरिए वे उनकी जिंदगी के कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में बता रही हैं। यहां पढ़िए उनका ये लेख-
जन्म दिन की असीम शुभकामनाएं आशा भोंसले जी। आशा भोंसले यानी सबकी प्यारी आशा ताई आज 84 बरस की हो गई हैं। यह तो सभी जानते हैं कि आशा ताई ने 22 भाषाओं में 11000 से अधिक गाने गा कर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड में अपना नाम दर्ज किया है। पर क्या आपको यह पता है कि एक समय था जब आशा ताई जिंदगी से आजिज आ गई थीं और वे जिंदगी तजने के बारे में सोचने लगी थीं?
बचपन और गाने-खाने की खुशबुएं
आशा भोसले के पिता दीनानाथ मंगेशकर चलती-फिरती थियेटर कंपनी चलाते थे। इस सिलसिले में अपनी 200 लोगों की टीम के साथ वे गांव-कूचे-शहरों में अपना टेंट ले कर घूमते रहते थे। आशा ताई बहुत छोटी उम्र में अपनी बड़ी बहन लता मंगेशकर के साथ अपने बाबा से संगीत सीखने लगी थी। पर गाने से ज्यादा उनका मन खाने में लगता था।
आशा ने कुछ साल पहले मुंबई में उनके घर प्रभु कुंज में एक बातचीत में मुझे बताया था, ‘मैं दसेक साल की रही होंगी। मुझे अच्छी तरह याद है दो चीजें, गाने और खाने की खुशबू। रात को नाटक खत्म होने के बाद सब लोग खाना खाने बड़े कमरे में इकट्टा होते थे। बाबा सीधे रसोई में पहुंचते जहां बड़ी हांडियों में सबके लिए खाना पक रहा होता। बाबा कड़छी ले कर बस पकवान का स्वाद लेते और बता देते कि किसमें क्या कमी है? मैं आश्चर्य से उनको देखती रहती और खुद भी पकवान की खुशबू सूंघ कर अंदाज लगाने की कोशिश करती। इस खुशबू और खानपान से जल्द ही मेरी दोस्ती हो गई। मेरा अधिकांश वक्त रसोइयों के साथ बीतता। धीरे-धीरे मैं भी समझने लगी कि मसालों का प्रयोग कब और कैसे करना चाहिए।’
आशा ताई 16 साल की थीं, जब अपने बाबा से लड़ कर उन्होंने अपने से उम्र में 15 साल बड़े गणपत राव भोंसले से शादी कर ली। उनके तीन बच्चे हुए, हेमंत, वर्षा और आनंद। अपने ससुराल में आशा खुद खाना बनाया करती थीं। उन्होंने पाया कि खाना बनाना उनके लिए स्ट्रेस बस्टर है। एक वक्त था, जब उन्हें गरीबी में दिन गुजारना पड़ा। फिल्मों में गाने से ससुराल वाले उन्हें रोकते थे। ऐसे में उन्हें लगा था कि बच्चे पालने के लिए क्यों ना कुछ घरों में खाना बनाने का काम कर लें।
1960 में आशा जी अपने पति के घर से निकल कर अपने बच्चों के साथ मुंबई अपने मायके लौट आईं और फिल्मों में प्ले बैक सिंगर बनने के लिए हाथ-पांव मारने लगी।
आशा ताई ने अपने कुक बनने की कहानी कुछ यों बताई थी, ‘मैं जब भी खुश होती हूं या दुखी होती हूं, फौरन रसोई में पहुंच जाती हूं। खाना बनाना मेरे लिए प्रार्थना सरीखा है। मैं जितने प्यार से और श्रद्धा से गाना गाती हूं, उतनी ही शिद्दत से खाना बनाती हूं। मुझे दोनों में कंप्रोमाइज करना नहीं पसंद। खाना मेरी कमजोरी है। मेरे साथ जो भी रहता है, मैं उन्हें बहुत अच्छा, कुछ नया और उम्दा खाना खिलाती हूं। खाना बनाते समय ध्यान रखती हूं कि अच्छी क्वालिटी का मसाला हो। मैं किसी भी रेसिपी को बनाने में शार्ट कट का इस्तेमाल नहीं करती। मेरी डिक्शनरी में शार्ट कट है ही नहीं। जिसमें जितना वक्त लगना है, उतना लगेगा ही।’
खाने ने जोड़ा पंचम से तार
राहुल देव बर्मन आशा ताई से छह साल छोटे थे। राहुल देव यानी पंचम ने जबसे गाना कंपोज करना शुरू किया आशा ताई को एक से एक गाने का मौका मिला। आशा ताई मानती थीं कि ओ पी नय्यर और राहुल देव बर्मन ने ही उनकी आवाज के साथ सबसे अधिक प्रयोग किया है और न्याय भी। पंचम को वे छोटा होने की वजह से हक से धकिया भी देती थीं। यादों की बारात फिल्म का फेमस गाना चुरा लिया है तुमने, हरे कृष्ण हरे राम का दम मारो दम, द ग्रेट गैंबलर का दो लफ्जों की है दिल की कहानी और इजाजत का मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, पंचम जी को बेहद पसंद थे। वे कहते थे, आशा तुम्हारी आवाज में एक सोलह साल की लड़की की आवाज की खनक है तो एक साठ साल की औरत की आवाज की परिपक्वता भी है।
पहले उन दोनों में दोस्ती हुई। पंचम हर संडे को आशा ताई के घर खाना खाने आते थे। खाना खाने के बाद वे हमेशा कहते—जो भी तुम्हारा लाइफ पार्टनर होगा, बहुत लकी होगा। पंचम खुद भी बहुत बढ़िया खाना बनाते थे। उन्होंने 1980 में शादी करने का निर्णय लिया।
1994 में पंचम जी के गुजर जाने के बाद अचानक आशा ताई की जिंदगी में सूनापन आ गया। वे बहुत निराश हो गईं। ना गाने का मन करता, ना खाने का। इस फ्रस्ट्रेशन में उन्हें लगा कि पंचम के बिना वे जी कर क्या करेंगी।
बहुत मुश्किलों वाले दिन थे। आशा ताई को इस बुरे दौर में बाहर निकलने में उनके दोस्तों ने काफी मदद की। वे आकर उनसे कुछ खाना बनाने की फरमाइश करते। आशा ताई मन मसोस कर रसोई में पहुंच जाती। धीरे-धीरे उन्होंने महसूस किया कि खाना बनाते समय वे अपनी सारी चिंताएं भूल जाती हैं। उनका पूरा ध्यान इस बात पर ही रहता है कि खाना लजीज बनना चाहिए, जिसे खा कर लोग खुश हों। यहीं से उन्हें आयडिया आया कि वे रेस्तरां खोल सकती हैं।
आशा जी बताती हैं, मैं जब भी किसी रेस्तरां में खाना खाने जाती हूं, वहां की रसोई जरूर देखती हूं और शेफ से भी जरूर मिलती हूं। खाना सूंघ कर अपने बाबा की तरह अब मैं भी जान लेती हूं कि डिश में क्या कमी है।
आशा रेस्तरां दुनिया के कई शहरों दुबई, अबू धाबी, मस्कट, मैनचेस्टर, बर्मिंघम, सौदी, बहरीन, कुवैत, कतार आदि शहरों में है।
साभार-http://samachar4media.com/ से