तय समीकरणों पर और निश्चित गणित पर ही जब पूरी राजनीति चलनी है तो सोनिया गांधी से बढ़िया अध्यक्ष कांग्रेस को नहीं मिल सकता था। कांग्रेस लगातार हारती जा रही है और भाजपा उसका सफाया करती जा रही है। ऐसे में राहुल गांधी अध्यक्ष कैसे बन सकते थे। फिर प्रियंका गांधी भी कुछ राज्यों में आनेवाले चुनावों की आसन्न हार का ताज क्यों पहने। सो, भले ही कामकाज राहुल और प्रियंका देखते रहें, जैसा कि पहले भी संभालते रहे हैं। मगर, साल भर तक तो अब सोनिया गांधी ही फिर कुर्सी पर रहेंगी। इसमें बुरा भी क्या है।
सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व। आलाकमान भी वे ही और फैसलों की फसल के फलसफे भी यही बताते हैं। किसी और के लिए आलाकमान में कोई जगह नहीं। इसीलिए सोनिया गांधी कांग्रेस पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनी रहेंगी। फिलहाल एक बार फिर यह फैसला ले लिया गया है। वैसे भी कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पूरे पांच घंटे तो चिट्ठी पर ही विवाद चलता रहा। कांग्रेस के 23 नेताओं द्वारा किसी कार्यक्षम नेता को अध्यक्ष बनाने वाली चिट्ठी को लेकर राहुल गांधी बिफरे, तो प्रियंका गांधी ने भी गुलाम नबी आजाद के प्रति खुलकर नाराजगी जताई। मामला बिगड़ता देख डरे हुए मुकुल वासनिक लगभग माफी की मुद्रा में नतमस्तक नजर आए। बैठक एक बहुत ही सुरक्षित माने जानेवाले वैबएप्प पर चली, लेकिन फिर भी बैठक में विवाद की बातें बाहर की बयार में बहती रहीं। यह कांग्रेस के भविष्य के लिए सुखद संकेत नहीं हैं। राजनीति के जानकारों की राय में जब फिर से सोनिया गांधी को ही अध्यक्ष पद संभालना था, तो इतना सीन क्रिएट करने की जरूरत ही नहीं थी।
देश जानता है कि कांग्रेस में वैसे भी इन्हीं तीनों गांधियों के अलावा अध्यक्ष अगर कोई और बन भी जाए, तो पार्टी में उसकी कितनी चलेगी, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। फिर भी कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जंग छिड़ी रही। दिन भर हल्ला मचता रहा। बदलाव को लेकर बातें चलती रहीं। सोनिया गांधी ने कहा कि पार्टी किसी और को अध्यक्ष बनाने के फैसला ले ले। लेकिन मान मनव्वल के बाद राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस के 23 नेताओं की चिट्ठी को बीजेपी से मिलिभगत बताया गया।
गुलाम नबी आजाद ने प्रतिरोध दर्ज किया। कपिल सिब्बल ने आपत्ति जताई। कईयों ने कोलाहल मचाया। तो, कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में लगभग पांच घंटे से तक राहुल गांधी के सवाल से मचे बवाल को समेटने की सियासत सांसें फुलाती रहीं। अंततः मामला सुलटाने की कोशिश में पहले सिब्बल और आजाद से कहलवाया गया, फिर पार्टी ने भी अधिकारिक रूप से कहा कि राहुल गांधी ने ऐसा तो कुछ कहा ही नहीं था। जबकि सच्चाई यही है कि संभावित नुकसान की आशंका से यह तात्कालिक लीपापोती थी। फिर, सवाल खड़ा हुआ कि बिना कुछ कहे बात कैसे बाहर निकली। तो जैसा कि खाल बचाने के लिए कहना बहुत आसान था, गुलाम नबी आजाद ने कहा डाला कि मीडिया का एक धड़ा इस तरह की खबरें फैला रहा है। कांग्रेस मानती हैं कि ऐसा कहने से दुनिया भी मान लेगी। क्योंकि मीडिया चा चरित्र भी कोई बहुत ईमानदार नहीं रह गया है। लेकिन कांग्रेस यह बता नहीं पा रही है कि आखिर देश की सबसे पुरानी पार्टी अपनी ऐसी फजीहत होने रोक क्यों नहीं पा रही है। इस सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि आखिर देश के एक सबसे बड़े राजनीतिक दल की अंदरूनी राजनीति ऐसी क्यूं है कि अंततः उसी के जूते से उसकी बार बार पिटाई होती रहती है। संकट गंभीर है, इसे सुधारना जरूरी है।
पार्टी की अंदरूनी जानकारियां हवा में तत्काल तैरने के खतरे इतने ज्यादा है कि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक भी सोशल मीडिया के जूम ऐप पर न होकर किस्को वैबएप्प पर आयोजित हुई। कारण भले ही सुरक्षा का बताया गया, लेकिन असल बात यह है कि जूम में व्यक्ति सभी की चर्चा का वीडियो रिकॉर्ड कर सकता है, जबकि इस वैबएप्प पर मीटिंग में सहभागी केवल अपना ही रिकॉर्ड कर सकता हैं। लेकिन फिर भी बैठक के शुरू होते ही अंदर की सारी खबरें हवा में तैरने लगीं। ट्वीटर पर ट्रेंड करने लगी। और देश भर में चर्चा का विषय बन गई। पता नहीं, फिर भी कांग्रेस इस तथ्य को स्वीकारती क्यों नहीं कि उसके नेताओं पर उसका नियंत्रण नहीं होना ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। लेकिन उंगली नीयत पर नहीं बल्कि नियती पर उठाई जा रही है।
दरअसल, कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या उसके शीर्ष नेतृत्व के असमंजस में निहित है। पार्टी के शीर्ष के तीनों नेताओं को संगठन के सारे निर्णयों पर नियंत्रण तो अपने हाथ में चाहिए। लेकिन पार्टी में सर्वोच्च नेतृत्व के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी उनको नहीं लेनी। अजब दृश्य है। देश जानता था कि सोनिया गांधी को ही अध्यक्ष पद पर बने रहना होगा, या फिर गांधी परिवार में से किसी को। क्योंकि कांग्रेस के पास ऑप्शन बहुत ज्यादा नहीं है। लोग भले ही बहुत मांग कर रहे थे, लेकिन अपना मानना है कि राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से दूरी बनाकर ठीक किया। बिहार का विधानसभा चुनाव सर पर है। पीछे का पीछे पश्चिम बंगाल का चुनाव भी आ रहा है।
दोनों ही चुनावों में कांग्रेस की क्या हालत होनी है, किसी से कुछ भी छिपा नहीं है। राहुल गांधी के खाते में वैसे भी कोई कम हार दर्ज नहीं है। ऐसे में राहुल गांधी अगर फिर से अध्यक्ष पद पर आते, तो आते ही दोनों असफलताएं उनके माथे का ताज बनती। सो, सोनिया गांधी फिर अंतरिम अध्यक्ष घोषित हो गईं। हालांकि बदला कुछ भी नहीं है। सोनिया गांधी का नया कार्यकाल साल भर बाद खत्म होगा। तो कांग्रेस नेतृत्व के असमंजस का यही नजारा अगले साल भी दिखेगा। यह सत्य है कि कांग्रेस की सफलता का संसार उसके शीर्ष नेतृत्व में नीहित है और यह तथ्य भी कि वही नेतृत्व जिम्मेदारियां दूसरों को सौपना भी चाहता है। मगर ये दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती। नेतृत्व फिर भी इसे मानने को तैयार नहीं है, तो उसे अपने पथ का संधान करने के लिए नियती पर छोड़ देना चाहिए। वैसे भी साल भर कोई बहुत लंबा वक्त नहीं होता। मंच ऐसा ही फिर सजेगा, इंतजार कीजिए।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)