Sunday, November 24, 2024
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गौरैया हमारी परम्पराओं में रची बसी है बेटी की तरह …

होली का तीसरा दिन था साल 2010 का, मैं जयपुर से लौट रहा था, तभी छत्तीसगढ़ से मेरे एक परिचित का फोन आया की एक अखबार में रवीश कुमार ने आपके दुधवा लाइव पर गौरैया से सम्बंधित लेख पर संपादकीय लिखा है, फिर क्या मेरे जनपद खीरी से तमाम फोन आने लगे की क्या तैयारी है इस नन्ही चिड़िया की घर वापसी के लिए। मेरे पक्षियों पर किए गए शोध व् वन्यजीवन के प्रति प्रेम पर लोगों की यह अपेक्षा एक उत्साह भर गयी नतीजतन मैंने निर्णय लिया की पक्षी सरंक्षण की मुहिम हम अपने जनपद से शुरू करेंगे, और ऐसा ही हुआ लोगों का साथ मिलता गया और इस कारवाँ ने खीरी से निकल कर आसपास के जनपदों से गुजरता हुआ पूरे भारत की फेरी लगा ली।

अखबार, पत्रिकाओं, आल इण्डिया रेडियो और टेलीविजन में दुधवा लाइव द्वारा आयोजित की गयी गोष्ठियों, सेमीनार और गाँवों में गौरैया सरंक्षण के लिए जनसम्पर्क को प्रकाशित व् प्रसारित किया गया, आखिरकार लोग अपने घरों की छतों पर पानी दाना रखने लगे और गौरैया लोगों के घरों और दिलों में फिर से वापसी करने लगी। बस यही सफलता थी हम सब की जिन्होंने इस नन्ही चिड़िया को सरंक्षित करने के संकल्प में हमारा साथ दिया। पत्रकारिता जगत के लोग, स्वयंसेवी संस्थाएं और जिन सभी साथियों का सहयोग मिला उन सभी को साधुवाद।

सन 2010 को हम सबने गौरैया वर्ष घोषित किया। और जनपद में गौरैया ग्राम व् गौरैया मित्र बनाये गए, गौरैया के लिए कौन सी माकूल परिस्थितियों को बनाया जाए ताकि वह फिर हमारें घर आँगन में लौट सके इसके उपाय जनमानस में बतलाए गए और अंतत: गौरैया लौट आई…

इन विगत 6 वर्षों में लोगों का ध्यान इस चिड़िया की तरफ खींचने में हम सफल हुए। गर्मियों की शुरुवात है और इस नन्ही चिड़िया का घरौंदे बनाने का वक्त आ रहा है, बस इसे हम इसका घर बनाने की थोड़ी जगह दे दे, सुरक्षा दें, और यह अपने चूजों को पाल सके इसलिए वह विषहीन हरियाली दे जहाँ तमाम कीड़ें और उनके लार्वा भी अपना जीवन चक्र सफलता से चला सकें, क्योंकि यह चिड़िया अपने नन्हे चूजों को कठोर अनाज नही खिला सकती। जाहिर है हम अपने घरों के पास देशी प्रजातियों के पौधे, बेले लगाएं और ज्यादातर कुकरबिटेशी फैमिली की बेलें जिन पर तमाम कीड़ों की प्रजातियां भी फल फूल सकें जो इन परिंदों का भोजन है। कुल मिलाकर एक समृद्ध जैवविविधिता जहाँ एक अखंडित भोजन चक्र अनवरत चलता रहे।

इस वर्ष भी विगत वर्षों की तरह हम गौरैया सरंक्षण के लिए जागरूकता अभियान चला रहे हैं, ये प्रयास होगा की हम प्रकृति और इसमें बसने वाली सभी सहचर प्रजातियों के प्रति संवेदनशील व् सहिष्णु बने। ताकि धरती पर वाकई वसुधैव कुटुम्बकम् की परिकल्पना को स्थापित किया जा सके।

गौरैया जो हमारे घरों की मेहमान हुआ करती थी बेटी की तरह, उसे फिर से बुला ले, ताकि वो मिठास भरी चहक, वो उसका फड़फड़ा कर उड़ना, और बच्चों के लिए उनकी उड़ने वाली सहेली फिर से ज़ाहिर हो सके ये सब हमारे बीच। गौरैया सिर्फ एक चिड़िया नही है, वो हमारी मानव सभ्यता का एक अंग है, और प्रकृति में हमारे गाँव व् शहरों में स्वस्थ्य वातावरण की सूचक भी है। चलो उसे फिर से उसी आदर से बुलाते हैं अपने घरों में ताकि प्रकृति की यह खूबसूरत कृति हमारे साथ साथ रह सके।

सन 2010 में हमने शुरुवात की थी लखीमपुर खीरी जनपद से, तराई का यह हरा भरा भूभाग जहाँ नदी, जंगल, मैदान, गाँव और शहर सभी कुछ सरोबार है प्रकृति की सुंदरता से, फिर भी कुछ घट रहा है, सम्पूर्णता में तमाम दाग लग रहे है, जाहिर है प्रकृति का दोहन अनवरत जारी है, नतीजतन तमाम जंगल नष्ट हुए, प्रजातियां प्रभावित हुई, नदियां सिकुड़ गयी और मैदान ख़त्म हो गए, बाग़ बगीचे उजड़ गए, गाँव शहर हर जगह कंक्रीट का बोलबाला हो गया, नतीजतन इस बदले हुए परिवेश में न जाने कितने साथी जो मानव सभ्यता में उसके साथ रहते आये वो या तो नष्ट हो गए या पलायन कर गए और जो बचे वह मानव के इस कथित विकास की बलिबेदी पर दम तोड़ रहे हैं।

कहते हैं बदलती चीजों को एकाएक नही रोका जा सकता किन्तु इस बदलाव की रफ़्तार में भी हम उन्हें भी अपने साथ लेकर ज़रूर चलने की कोशिश कर सकते हैं जो सदियों से हमारे साथ हैं और मानव सभ्यता उनसे लाभ लेती आई हैं आज वो प्रासंगिक नही रहे तो हम उन्हें उनके हाल पर छोड़ चुके है, यकीनन यह अत्याचार है और मानवीय मूल्यों के विपरीत भी। घोड़ा हाथी कुत्ता कबूतर गौरैया गाय न जाने कितने जीव हैं जिन्हें सदियों पहले जंगल से निकलते वक्त इंसान अपने साथ लेकर चला, गाँव तक, क़स्बे तक, शहर तक, पर तकनीकी दौर में अनियोजित विकास की पगडंडी पर इन्हें वह पीछे छोड़ आया है, यह कहना कितना मुनासिब होगा की इंसान इसकी कितनी कीमत चुकाएगा पर यह निश्चित है की मानव इसकी कीमत चूका रहा है और भविष्य में चुकाएगा भी, प्रकृति से दूर होने के मानसिक अवसाद और गंभीर बीमारियों के तौर पर, छिन्न भिन्न होती जैवविविधिता एक गहरा लाल प्रभाव छोड़ रही है मानवता पर, फिर भी हम प्रकृति का हिस्सा होकर खुद को प्रकृति से अलाहिदा कर रहे है।

चिड़िया जंगल लगाती हैं, बीजों के प्रकीर्णन द्वारा, किसी फल को खाकर जब अपनी पाचन प्रक्रिया के पूर्ण होने के बाद बीट में वे बीज इधर उधर छोड़ती हैं तो वे बीज अंकुरित होते है और फिर वृक्ष बनते हैं, पीपल बरगद इसके बेहतर उदाहरण हैं।

ये गौरैया हमारे घरो से दूर हुई तो इसने यह बताने की कोशिश जरूर की होगी की अब यह जगह रहने लायक नही, लेकिन हमने उसकी आवाज नही सूनी, उसने कहा होगा की अब इस घर या गाँव या शहर में जहरीले रासायनिक तत्वों की तादाद बढ़ चुकी, कैंसर जैसी बीमारी पैदा करने वाले तत्व लेड आर्सेनिक जैसे तत्व बढ़ गए हैं, इसने कहा होगा की यहाँ पानी अशुद्ध हो गया है डिटर्जेंट, रासायनिक उर्वरक, डीडीटी, और जहरीले कीटनाशकों से, इसने ये भी बताया होगा की हमारे मित्र कीट भी नष्ट हो गए है हमारी फसलों से रसायन के इस्तेमाल से, और एक बड़ी कायदे की बात कही होगी इसने की तुम इंसान सामुदायिक स्नेह खो चुके हो, तुमने घर के बीच मौजूद बड़े से आँगन के कई टुकड़े कर दिए दीवारें उठाकर, तुमने चौकठे भी बाँट ली, और अब तुम छोटी छोटी कोठरियों में रहने लगे जहाँ रोशनी भी ठीक से नही आती, तंग गलियों और बड़े से दालान के बजाए सड़क पर आ गए, इसने जरूर ये बातें भरे मन से कही होंगी की जब तुम इंसानों ने दहलीजों को बाँट डाला, दालानों, आँगन के टुकड़े कर दिए तो फिर कैसे रखोगे हमारे जैसे मेहमान को जिसमें खुले आसमान में उड़ने की कशिश है, संकरे आशियाने और संकरे दिलों में मेहमान नही बसा करते—-

इस नन्ही चिड़िया की इस व्यथा को हम भांप लेते तो यह जरूर हमारे घरों में आज भी आती। अभी भी वक्त हैं प्रकृति के इस हरकारे का सन्देश अगर हम सुन समझ ले तो मानव सभ्यता की तमाम दुश्वारियां ख़त्म हो जाए।

प्रकृति हमेशा हमें सन्देश देती है पर हम अपनी बेजा ख्वाइशों की चीख चिल्लहाट में उसे नजरअंदाज कर देते हैं।

बस इसी कोशिश में हम हैं की हम इस नन्ही चिड़िया को दुबारा अपने घरों में बुलाए। और इसके लिए हमें उसे वो माहौल देना होगा जो हमारे लिए भी उतना ही मुफीद है जितना उस परिंदे के लिए।

कृष्ण कुमार मिश्र,

लेखक दुधवा लाइव इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरनमेंट एंड एग्रीकल्चर के संस्थापक सम्पादक व् दुधवा लाइव सामुदायिक संगठन के प्रमुख हैं।
www.dudhwalive.com

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