चार महीने से आप, हम और सारा संसार एक अभिनेता के अकाल अवसान की जांच का तमाशा देखने को अभिशप्त हैं ही न। ये जो राजनीति के निहितार्थ होते हैं, वे इसी तरह के तत्वों में तलाशे जा सकते हैं। लेकिन राजनीति में जो दिखता है, वह होता नहीं। और जो कहा जाता है, वह तो बिल्कुल ही नहीं होता। यह एक सर्वमान्य तथ्य है। फिर, यह भी तो सत्य है कि हमारे राजनेताओं की इज्जत इतनी भी नहीं बची है कि कोई उनकी बात पर जस का तस भरोसा कर ले। इसीलिए बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस ने शिवसेना के संजय राऊत से चुपके चुपके मिलने के बाद यह भले ही कह दिया हो कि वे तो ‘सामना’ के लिए इंटरव्यू के लिए मिले थे। फिर राऊत ने भी इसी की पुष्टि में भले ही कह दिया कि देवेंद्र जो कहेंगे वही छपेगा, यह विश्वास दिलाने के लिए मिले थे। लेकिन दोनों की सुन कौन रहा है। लेकिन सुशांत सिंह राजपूत जब तक जिंदा थे, तब तक यह आभास कर पाना भी असंभव था कि उनके अस्तित्व का अर्थ उनके आसपास के समाज के लिए क्या है। पर, संसार सागर से सदा के लिए विदा होते ही सुशांत, समस्त संसार के लिए अजेय, अपराजेय और अपरिहार्य योद्धा के रूप में अपने अभिनेता होने के अस्तित्व के अर्थ जता रहे हैं।
राजनीति में धुर विरोधी दोनों दलों के इन दो नेताओं का यह मधुर मिलन राजनीति के रंगों से नई रेखाएं रच रहा है। क्योंकि बिहार में चुनाव की बहार है, और सुशांत सिंह राजपूत की मौत का रहस्य शिवसेना के सर पर साये की तरह मंडरा रहा है। इसी के संदर्भ में इस मुलाकात के जो मतलब निकल रहे हैं, वे सामान्य संसार की समझ से परे हैं। पर हैं, कुछ तो मतलब है। क्योंकि जिस राजनीति में कहीं भी, यूं ही कुछ भी नहीं होता और यूं ही कोई किसी की तरफ देखता तक नहीं, उस राजनीति में दो नेताओं के दो घंटे तक अघोषित अंदाज में अपनत्व के साथ मिलने के कुछ तो मतलब तो होते है। इसीलिए राजनीतिक के रंगमहलों से लेकर बीजेपी में भी बंद दरवाजों में भी इस मुलाकात के मतलब तलाशे जा रहे हैं। दरअसल, शिवसेना और बीजेपी दोनों धुर विरोधी दलों के इन दोनों सितारा नेताओं का मुंबई में एक पांच सितारा होटल में मिलना बिहार की जनता को जगा गया। क्योंकि फडणवीस इन दिनों बिहार में बीजेपी के चुनाव अभियान की कमान भी संभाल रहे हैं।
यह न केवल हमारे देश मे बल्कि समस्त संसार के सभी देशों में हर जगह होता आया है कि एक जीता जागता शख्स मौत के हवाले होते ही अचानक शीर्षकों, मुद्दों और फाइल नंबरों में बदल जाता है। इसीलिए एक अभागे अभिनेता सुशांत का अकाल अवसान मीडिया के लिए शीर्षक है, पुलिस, सीबीआई, ईडी और नारकोटिक्सवालों के लिए फाइल नंबर है, और राजनीति के लिए सिर्फ एक मुद्दा। समाचारों का संसार साक्षी है, चार महीनों से चौबीस घंटेवाले न्यूज चैनलों के मदारियों से लेकर जमूरे गवाह हैं, और हैं राजनीति के रंग भी इसकी पुष्टि कर रहे हैं कि बीजेपी शुरू से ही सुशांत की मौत को मुद्दे के रूप में बिहार की चुनावी चौपाल सजाने के सरंजाम में लगी थी। असल में सुशांत की मौत बिहार के लिए भावनाओं का मामला है। बीजेपी इसे समझ रही थी और यह भी समझा रही थी कि बिहार की प्रजा के लिए शिवसेना और संजय राऊत अपने आचरण से और बयानों से भी किसी खलनायक से कम नहीं हैं। फिर भी बीजेपी नेता का उनसे चुपके चुपके शिवसेना नेता से यह मिलन बिहार के बाशिंदों को खल रहा है कि कोई छल तो नहीं हो रहा।
अब यह संजय राऊत और फडणवीस का कसूर नहीं है कि जनता को उनके मिलने के तर्क पसंद नहीं आ रहे हैं। लेकिन यह राजनीति की चिंता का चिरंतन विषय जरूर है। क्योंकि नेता जब स्वयं को सरकार से ज्यादा मजबूत दिखाने का अभिनय करने लगे, तो यह मानना बहुत वाजिब हो जाता है कि असल में मामला क्या है। सो, राजनीति से अज्ञात अधपके प्रकांड पत्रकारों का प्रयोग करके हवा भले ही उड़वा दी हो कि दोनों का मिलन महाराष्ट्र में सरकार बदलने के संकेत से सजा है। लेकिन अपना मानना है कि यह मुलाकात महाराष्ट्र की वर्तमान सरकार गिराकर नई सरकार रचने की कोशिश कतई नहीं कही जा सकती। क्योंकि एक तो उद्धव ठाकरे राजगद्दी छोड़कर बीजेपी में फडणवीस के राज्याभिषेक के शुरू से ही विरोध में हैं। और दूसरे, राऊत और फडणवीस दोनों अपने अपने दलों में कोई इतने बड़े निर्णयकर्ता नहीं है कि उनके बातचीत करने भर से शिवसेना अपने गठबंधन की गांठ खोलकर बीजेपी से ब्याह रचा ले। लेकिन फिर भी कयास लग रहे हैं, बातें उड़ रही हैं। मगर, बातें हैं, बातों का क्या। राजनीति कोई बातों से नहीं चलती। वह चलती है क्षमता से, सामर्थ्य से और जनता के विश्वास की जमा पूंजी से। और वह सब इन दिनों तो शिवसेना के खाते में साफ दिख रहा है।
राजनीति में इस तकह की मुलाकातों के निहितार्थ कुछ और हो सकते हैं, लेकिन फलितार्थ यही है कि सुशांत को न्याय दिलाने का ढोल पीटनेवाली बीजेपी की सुशांत के परिवार के प्रति सदभावना पर उंगली उठ रही है। क्योंकि सुशांत की मौत की जांच हाशिए पर डालकर मामला बॉलीवुड के ड्रग्स कनेक्शन की ओर निकल पड़ा है। मृत अभिनेता के परिवार की न्याय की उम्मीद में नींद उड़ी हुई है। वानप्रस्थ आश्रम की उम्र पार करता हुआ एक बूढ़ा पिता पुत्र के लिए और चार बेबस बहनें बिलख बिलख कर भाई की मौत पर न्याय के लिए विलाप कर रही हैं। इसीलिए भले ही मन न माने, लेकिन पल भर के लिए स्वयं को सापेक्ष रूप से बेवकूफ मानकर विश्वास कर भी लिया जाए कि राऊत और फडणवीस की यह मुलाकात शुद्ध रूप से एक ईमानदार पत्रकारीय चर्चा ही थी, फिर भी इस मुलाकात की समयानुकूलता दोनों के राजनीतिक आचरण के अनुकूल नहीं थी। इसीलिए बिहारी समुदाय के खलनायक के रूप में खड़ी शिवसेना के संजय राऊत से फडणवीस की इस मुलाकात के बारे में माना जा रहा है कि बिहार की प्रजा के भरोसे को तोड़ने का भाजपा ने राजनीतिक पाप किया है। लेकिन चुनाव के अवसर पर होनेवाले ऐसे पाप गंगा में नहाने से भी नहीं धुलते, यह बिहार अच्छी तरह जानता हैं। गंगा आखिर बिहार के बारह जिलों में बहकर ही तो बंगाल की खाड़ी की तरफ बढ़ती है!
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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