Wednesday, December 25, 2024
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कथा-गोरखपुर का गोरखधंधा

गुरु गोरखनाथ जैसे महायोगी और महाकवि के नगर गोरखपुर के क़िस्से बहुत हैं। गुरु गोरख के ही क़िस्से इतने सारे हैं कि पूछिए मत। इन क़िस्सों के वशीभूत गोरखधंधा ही कहने लगे लोग। तो भी इस गोरखधंधा वाले नगर में कवि और शायर जितने हैं , कथाकार उतने नहीं हैं। लखनऊ जैसे शहरों को अगर अपवाद मान लें तो ज़्यादातर शहरों में कवि, शायर गली-गली मिल जाएंगे पर कथाकार कम ही मिलेंगे। तो फ़िराक़ गोरखपुरी के शहर में भी जहां बकौल नामवर सिंह कुत्ते भी शेर में भौंकते हैं , कथाकार कम ही मिलते हैं। अलग बात है कि गोरखपुर में प्रेमचंद से भी पहले मन्नन द्विवेदी गजपुरी के उपन्यास रामलाल और कल्याणी मिलते हैं। खंड काव्य , कविताएं , निबंध और कुछ जीवनी भी। लेकिन बहुत खोजा पर मन्नन द्विवेदी गजपुरी की कहानी नहीं मिली तो नहीं मिली। कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी तक दस्तक दी पर ख़ाली हाथ रहा।

तो जिस गोरखपुर में प्रेमचंद पढ़े , नौकरी किए और गांधी का भाषण सुन कर सरकारी नौकरी छोड़ कर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूदे , कहानी की शुरुआत गोरखपुर में प्रेमचंद से ही मान लिया। ईदगाह , पंच परमेश्वर , रंगभूमि जैसी कई कालजयी रचनाएं प्रेमचंद ने गोरखपुर में ही लिखीं। पहले उर्दू में फिर हिंदी में। प्रेमचंद के बाद पांडेय बेचन शर्मा उग्र की कहानियां मिलती हैं। पांडेय बेचैन शर्मा उग्र गोरखपुर के क्रांतिकारी अख़बार स्वदेश में काम करते थे। यहीं उन के ख़िलाफ़ वारंट जारी हुआ तो वह फरार हो गए। स्वदेश के संपादक दशरथ प्रसाद द्विवेदी गिरफ़्तार हो गए। संयोग देखिए कि प्रेमचंद के बड़े पुत्र श्रीपत राय 1916 में गोरखपुर में ही पैदा हुए। श्रीपत राय अंतरराष्ट्रीय स्तर के चित्रकार थे। मक़बूल फ़िदा हुसैन और राम कुमार जैसे चित्रकारों के अभिन्न मित्र श्रीपत राय कहानी पत्रिका के संपादक और प्रकाशक थे। पर अकलंक मेहता छद्म नाम से हिंदी में कहानियां भी लिखीं श्रीपत राय ने। सो श्रीपत राय की कहानी खोजना भी दुष्कर कार्य था। लेकिन लखनऊ में लमही के संपादक विजय राय के सौजन्य से कहानी मिली। फिर श्रीपत राय ही क्यों गोरखपुर नगर के कई पुराने कथाकारों की कहानियां तलाश करना कठिन ही साबित हुआ।

पुराने तो पुराने नए लोगों की कहानियां प्राप्त करना भी कठिन ही हो गया था। कम ही लोग थे जो पानी की तरह मिले। कुछ लोग तो पर्वत से भी ज़्यादा दुरुह हो गए। कुछ ने असहयोग का ऐसा सुर पकड़ा कि पूछिए मत। पर गोरखपुर के ही मशहूर गीतकार माहेश्वर तिवारी की वह गीत पंक्ति है न : जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे। तो कई सारे नए-पुराने पर्वत भी पार होते गए। कहानियां मिलने लगीं। आते-जाते राह बनाते तुम से पेड़ भले ! गीत भले देवेंद्र कुमार बंगाली का है पर देवेंद्र आर्य ने भी कहानियों की राह इसी तरह बनाई। दुश्वारियां आसान होती गईं। देवेंद्र आर्य जिस तरह पुत्र-शोक में हो कर भी दुश्वारियां आसान करते जा रहे थे , लोगों को पानी की तरह जोड़ते जा रहे थे , वह अवर्णनीय है। डाक्टर कृष्णचंद्र लाल ने भी कई पुराने कहानीकारों को जोड़ने में मदद की। तो रवि राय ने कई नए-पुराने कहानीकारों और उन के संपर्क को। ऐसे जैसे गोरखपुर में नए -पुराने के बीच के इनसाइक्लोपीडिया हों। रवींद्र मोहन त्रिपाठी ने भी दिल खोल कर , घर-घर जा कर कहानियां खोजने में मदद की। प्रेमव्रत तिवारी ने भी यूरोप में रह रहे शालिग्राम शुक्ल की कहानी बड़े मन से उपलब्ध करवाई। भंगिमा में छपी कुछ कहानियां पुरानी फाइलों से दिगंबर ने उपलब्ध करवाईं। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने जीवन में सिर्फ़ एक ही कहानी लिखी है डायरी। वह भी कथा-गोरखपुर में उपस्थित है। इस कहानी को देते समय वह कहने लगे कि मन करता है कि कुछ और कहानियां भी अब लिखूं।

98 बरस की उम्र में दिल्ली में रहते हुए भी जिस चेतना और सक्रियता के साथ रामदरश मिश्र ने तमाम पुराने कहानीकारों की याद दिलाई और उन की कहानियों के स्रोत बताए वह तो अनिर्वचनीय है। रामदरश मिश्र का गांव और मेरा गांव आस-पास ही है। इस नाते वह मुझे स्नेह भी बहुत करते हैं। रामदेव शुक्ल ने भी अपनी कहानी दी और भरपूर मदद की । गाज़ियाबाद में रह रहे भगवान सिंह ने भी कई ऐसे पुराने कथाकारों की याद दिलाई जिन से मैं ख़ूब परिचित था पर उन के नाम ध्यान से उतर गए थे। भगवान सिंह भी इन दिनों भारी विपदा में थे। गाज़ियाबाद में रह रहे कोई 90 बरस के भगवान सिंह के इकलौते पुत्र अमरीका में रहते हैं और कोरोना से ग्रस्त हो कर महीनों से अस्पताल में ज़िंदगी की जंग लड़ रहे थे। भगवान सिंह गोरखपुर में मेरे गांव के बगल में गगहा के रहने वाले हैं। इस लिए भी आत्मीयता का ज्वार है। लेकिन बेटे की उस कठिन घड़ी में भी भगवान सिंह लगातार चर्चा करते रहे। इसी चर्चा में एक बार इंदिरा राय की चर्चा की उन्हों ने। इंदिरा राय का नाम मैं पहली बार सुन रहा था। पर भगवान सिंह ने बताया कि उन के ही समय की हैं और एक समय बहुत अच्छी कहानियां लिखती थीं। फिर उन का विवाह रायपुर में हो गया। उस के बाद का पता नहीं है। मैं ने रायपुर में अपने संपर्कों को खंगाला। पता करते-करते पता चला कि रायपुर नहीं , विलासपुर में वह रहती हैं। विलासपुर में संपर्कों को खंगाला तो पता चला कि हैं कुछ पुराने लोग जो उन्हें जानते हैं। कथाकार देवेंद्र वाया लखनऊ इन दिनों विलासपुर में ही हैं। उन से कहा। कुछ दिन बाद उन को किसी ने बताया कि इंदिरा राय तो रहीं नहीं अब। मैं ने कहा कि उन का घर खोज कर देखिए। पर किसी को उन का घर भी नहीं मिल रहा था। मिलता भी कैसे भला। बाद में पता चला कि इंदिरा राय का वह बड़ा सा बंगला गिरा कर व्यावसायिक काम्प्लेक्स बना दिया गया है।

फिर एक मित्र ने बताया कि गोरखपुर के एक स्वनामधन्य आलोचक कभी बिलासपुर गए थे श्रीकांत वर्मा के एक कार्यक्रम में तो इंदिरा राय का कहानी-संग्रह उन्हें उपहार में दिया गया था। उन से संपर्क किया तो आदतन वह अपनी आत्म-मुग्धता में डूब कर किसिम-किसिम के पहाड़े पढ़ाने लगे। कृत्रिम व्यस्तता के आडंबर रचते रहे। यह उन की आदत में है। लोग जानते हैं। दो-तीन महीना निकल गया। अंतत : बनारस के पत्रकार और अनुज आवेश तिवारी , जो इन दिनों रायपुर में हैं , उन के जिम्मे यह काम डाला। उन्हों ने एक ही दिन में डाक्टर उर्मिला शुक्ला को खोज निकाला जिन्हों ने इंदिरा राय पर रिसर्च किया था। उर्मिला शुक्ला कहानियां भी लिखती हैं। उत्तर प्रदेश में गोंडा की रहने वाली हैं। आवेश ने उन का फ़ोन नंबर भी दिया। उर्मिला शुक्ला से बात हुई। उन्हों ने बताया कि इंदिरा राय संभवत : जीवित हैं । कुछ समय पहले मेरी बात हुई थी। नंबर मांगा तो कहने लगीं , नहीं मिल रहा। फिर लाचारी जताते हुए कहा कि उन का एक उपन्यास तो रायपुर में उन के पास है। पर कहानियां विलासपुर वाले घर पर हैं। मैं ने कहा कि उपन्यास पर जो परिचय छपा है , वही भेजिए। भेज दिया उन्हों ने। पर उस से कुछ अता-पता नहीं मिला। फिर उन का फ़ोन आया कि मध्य प्रदेश के कहानीकारों के एक साझा संकलन में उन की कहानी मिल गई है। मैं ने कहा , भेजिए। उन्हों ने भेजा भी। पर कहानी पर नाम नहीं था। मैं ने उन्हें बताया। तो वह बोलीं , वह कहानी के पहले वाले पन्ने पर परिचय के साथ है। मैं ने कहा भेजिए उसे भी। भेजा उन्हों ने उसे भी। परिचय के साथ एक मोबाईल नंबर भी था।

वह नंबर मिलाया तो संयोग देखिए कि इंदिरा राय ने ख़ुद फ़ोन उठाया। उन्हें अपना नाम और परिचय बताया तो वह बोलीं , जानती हूं आप को। पढ़ा है आप को। फिर जब कथा-गोरखपुर की योजना बताई तो वह बहुत भाउक हो गईं। गला रुंध गया। कहने लगीं , गोरखपुर में लोग हम को अभी भी याद रखे हैं। कहते-कहते वह भाव-विभोर हो गईं। नइहर की यादों में डूब गईं। बताने लगीं कि कभी यू पी बोर्ड का इम्तहान टॉप किया था। बड़े काज़ीपुर का अपना घर याद किया। अपनी जमींदारी और पुराने लोगों को याद किया। बड़ी देर तक वह गोरखपुर की यादों में डूबती-उतराती रहीं। भोजपुरी में आ गईं। कहने लगीं कहावत है कि नइहर क कुकुरो नीक लगला और आप तो हमारे बच्चे हैं। फिर कहने लगीं कि तीन बेटे हैं। एक अमरीका में है। एक मुंबई में। एक बेंगलूर में। पहले अमरीका भी जाती थी। अब लंबी यात्रा के कारण नहीं जा पाती। तो मुंबई और बेंगलूर में रहती हूं। बारी-बारी। उन से कहानी की फरमाइश की तो वह बोलीं कल भिजवा दूंगी। पर उन की बातचीत से मुझे लगा कि शायद वह भूल जाएं। भेज न पाएं। तो कहा कि घर में किसी और से बात करवा दें। हो सके तो बेटे से। कहने लगीं बेटा तो आफ़िस से आया नहीं है। तो कहा कि घर में बहू से या और किसी से बात करवा दें। उन्हों ने नौकरानी से बहू को बुलाने को कहा। बहू आई। साथ ही साथ बेटा उत्कर्ष राय भी। उत्कर्ष से बात हुई। बेटा , मां से ज़्यादा भाउक हो गया ,कि गोरखपुर में मां को लोग अभी भी याद करते हैं। हर्ष और भाउकता का जैसे प्रयाग रच गया , उत्कर्ष राय की बातों में। उत्कर्ष को कथा-गोरखपुर की योजना बताई और इंदिरा जी की एक कहानी , फ़ोटो , परिचय भेजने को कहा। दस मिनट में सब कुछ उत्कर्ष राय ने भेज दिया।

हमारे एक पुराने साथी हैं जय प्रकाश शाही। पत्रकार थे। एक दुर्घटना में असमय गुज़र गए। हमारे गांव भी आस-पास थे। पत्रकारिता भी उन के साथ ही शुरु की। लखनऊ में भी हमारे घर अगल-बगल थे। दुर्भाग्य से एक्सीडेंट में भी हम लोग अगल-बगल ही बैठे थे। एम्बेस्डर कार जिस में हम लोग बैठे थे , एक ट्रक से उस की आमने-सामने की टक्कर हो गई। जय प्रकाश शाही ड्राइवर समेत एट स्पॉट विदा हो गए। किसी तरह महीनों ज़िंदगी से जंग जीत कर मैं लौटा। एक समय जय प्रकाश शाही भी कविताएं खूब लिखते थे। कम लोग जानते हैं कि जय प्रकाश शाही ने कुछ कहानियां भी लिखी हैं। तो शीला शाही भाभी जी से कथा-गोरखपुर की योजना बताते हुए कहा कि किसी तरह खोज-खाज कर उन की कहानी दे दीजिए। वह कहने लगीं , यह तो बहुत शुरु की बात है। तब वह अपना सब कुछ गांव में ही रखते थे। गोरखपुर में रहने की कोई स्थाई जगह तो थी नहीं। पर जब लखनऊ में रहने का हो गया तो गांव से अम्मा जी ने कुछ लाने ही नहीं दिया। ये जब-जब कुछ कागज़ लाने की बात करते तो अम्मा जी हाथ रोक लेतीं। कहतीं , कुछ हमरहू लगे रहे के चाहीं की नाईं। पढ़ी-लिखी नहीं थीं पर अपने बेटे का लिखा बहुत संभाल कर , बहुत मान से एक लकड़ी के एक बक्से में रखती थीं। तो शाही जी भी मान गए।

मां के विदा होने के पहले शाही जी विदा हो गए। फिर अब मां भी नहीं रहीं। गांव से नाता टूट गया। जय प्रकाश शाही की गोरखपुर के समय में लिखी सारी कविताएं , कहानियां , लेख बिला गए। मां की ममता और नेह में नत हो गए। बहुत तलाश की उदयभान मिश्र की कहानी। उदयभान मिश्र की एक किताब उदयभान मिश्र का रचना संसार के परिचय में कहानी-संग्रह माधवी [ प्रेस में ] का ज़िक्र तो है पर न माधवी कहानी मिली , न कोई और कहानी। गोरखपुर में उन की बेटी विजय ने भी बहुत तलाश किया पर कोई कहानी नहीं मिली। ऐसे ही नहीं मिली गोल्डस्मिथ की कहानी। अंजुम इरफ़ानी की कहानी। दोनों की कहानियां सारिका में छपी थीं। गोरखपुर , कानपुर , दिल्ली , मुंबई , भोपाल , गुजरात , बलरामपुर तक में खोज हुई। कम से कम पचास से ज़्यादा मित्र लोग सक्रिय हुए इन दोनों की कहानियां खोजने में। फिर भी नहीं मिलीं। अंजुम इरफ़ानी के बच्चे जानते ही नहीं थे कि वह कहानियां भी लिखते थे। जब कि कभी सारिका में छपी उन की कहानी छोटा शहर आज भी मेरे मन में टंगी पड़ी है। गोल्डस्मिथ की कहानी तो छोड़िए , उन के परिवारीजन बहुत खोजने पर भी नहीं मिले। बहुत कम लोग जानते हैं कि एक पेड़ चाँदनी / लगाया है आँगने / फूले तो आ जाना / एक फूल माँगने जैसे गीत रचने वाले देवेंद्र कुमार बंगाली ने कहानी भी लिखी है। और कवि जब कहानी लिखते हैं तो उन के गद्य और कथा का रंग ही कुछ और होता है। इस कथा-गोरखपुर में कई कहानियां ऐसी हैं जो कवियों की कहानियां हैं। रामदरश मिश्र , परमानंद श्रीवास्तव , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी , हृदय विकास पांडेय , अर्चना श्रीवास्तव , देवेंद्र आर्य , कात्यायनी , वशिष्ठ अनूप , रंजना जायसवाल ऐसे ही कवि हैं। मुफ़लिसी में किसी से प्यार की बात ज़िंदगी को उदास करती है / जैसे किसी ग़रीब की औरत अकसर सोने चांदी की आस करती है। जैसे शेर लिखने वाले शायर एम कोठियावी रही की कहानी भी कथा-गोरखपुर का हिस्सा है।

अमरकांत गोरखपुर में पढ़े-लिखे हैं सो उन की कहानी भी है। श्रीलाल शुक्ल गोरखपुर की एक तहसील बांसगांव में एस डी एम रहे हैं। श्रीलाल जी एक समय ख़ुद बताते थे कि रागदरबारी की कथा का बीज बांसगांव में ही पड़ा। रागदरबारी के शिवपालगंज में बहुत सारा बांसगांव भी है। परमानंद श्रीवास्तव भी बांसगांव के ही हैं। वह बताते थे कि रागदरबारी के शुरु में ही रंगनाथ की जो रात में ट्रक से यात्रा है , वह वस्तुत : श्रीलाल जी की बांसगांव से गोरखपुर की यात्रा है। जो नियमित थी। कि ऐसी कुछ यात्राओं में वह ख़ुद भी श्रीलाल जी के साथ रहे थे। श्रीलाल जी जब मूड में होते थे तब बांसगांव की चर्चा एक भिन्न अर्थ में करते होते थे। तो श्रीलाल शुक्ल की भी कहानी कथा-गोरखपुर में कैसे न होती भला।

कथा-गोरखपुर के लिए भिखारी बन कर कहानियां खोजीं। ऐसे जैसे राम ने कभी सीता को खोजा था। तुलसी दास ने लिखा है , हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥ तो इस खोज में ज़्यादातर कहानियां मिलीं। कुछ नहीं भी मिलीं। बहुत तलाश के बाद भी ख़ाली हाथ रहे। कुछ कहानियां भूसे के ढेर में सुई की तरह खोजी। एक मंत्र-मुग्ध और सर्वदा छुब्ध रहने वाले कवि , आलोचक , कथाकार , प्राध्यापक ने तो प्रस्ताव सुनते ही कहा मैं इस सब में नहीं पड़ता ,कोई कहानी-वहानी नहीं देनी। जाग मछंदर गोरख आया ! कह कर अपने गुरु को ही जगाने वाले गोरख ने लिखा है न :

मरो वै जोगी मरौ, मरण है मीठा।

मरणी मरौ जिस मरणी, गोरख मरि दीठा॥

यहां गोरख , अहंकार को मारने की बात करते हैं। तो सारे अहंकार आदि को मार कर यह कहानियां साधु भाव में खोजी हैं। भगवान सिंह कहते हैं कि ऐसी-ऐसी कहानियां आप ने खोज ली हैं कि इसे कोई रिसर्चर , कोई स्कॉलर भी नहीं खोज पाता। कथा-गोरखपुर छपने जा रहा है और सच बताऊं कि कुछ कहानियों की तलाश और तलब अभी भी जारी है। अपने पत्रकारीय जीवन में संपादक भी रहा हूं लेकिन रिपोर्टर लंबे समय तक रहा हूं। तो ख़बर छपते-छपते भी ख़बर खोजने की लालसा सर्वदा बनी रहती थी। जान पर खेल कर भी ख़बर लिखने का अभ्यास रहा है। अब तो आडियो , वीडियो , स्टिंग वग़ैरह तमाम विधियां हैं। तमाम सारे कुंडल-कवच हैं। पर एक समय था कि बिना कुछ नोट किए भी वापस आ कर वर्बेटम लिख देता था। रिस्की जगह होती थी। सो वहां कुछ नोट करना , ख़तरे की बात होती थी। तो भी सुबह घर में अख़बार लोग बाद में पढ़ते थे। पर गिरफ़्तारियां पहले हो जाती थीं। अनेक बार ऐसा हुआ। लोकसभा , विधान सभा में बवाल हो जाता था हमारी ख़बरों पर। विधान परिषद में तो मेरे ख़िलाफ़ विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव तक पेश हुआ एक ख़बर को ले कर। तो ख़बर खोजने की वह ललक और वह तड़प कथा-गोरखपुर के लिए कहानी खोजने में भी बदस्तूर जारी रही। है। मोती बी ए का एक भोजपुरी गीत है , जो एक मुहावरा है मृगतृष्णा , उस को तोड़ता है : रेतवा बतावै नाईं दूर बाड़ैं धारा / तनी अउरो दौरा हिरना पा जइबा किनारा ! तो यह हुलास अभी भी शेष है। देवेंद्र आर्य का एक शेर याद आता है :

दिलों की घाटियों में बज रहे संतूर जैसा हो
हो कोई शहर गर तो मेरे गोरखपूर जैसा हो ।

तो कथा-गोरखपुर की यह कहानियां आप के दिल की घाटियों में संतूर की तरह बजती हैं या नहीं , मेरे लिए यह जानना दिलचस्प होगा। हां , कहानियों का क्रम लेखक के जन्म-दिन और वर्ष के हिसाब से तय किया गया है। गौरतलब है कि इस कथा-गोरखपुर में संकलित कहानियों का कहीं और इस्तेमाल करने के लिए लेखक या लेखक के परिजनों से अनुमति लेना बाध्यकारी है। बिना अनुमति के इन कहानियों का कहीं और उपयोग करना दंडनीय अपराध माना जाएगा। कॉपीराइट ऐक्ट का उललंघन माना जाएगा। अभी इन 78 कहानियों का लुत्फ़ यहां लीजिए। जल्दी ही प्रिंट में भी कथा-लखनऊ के यह सभी 8 खंड उपलब्ध होंगे।

ज़िक्र ज़रुरी है कि कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर पर एक साथ काम कर रहा था। एक-एक कर कहानियां खोज रहा था , पढ़ रहा था , छांट रहा था। संपादन आप को पढ़ना बहुत सिखाता है। यह आभास बहुत पहले से ही मुझे है। और बरस भर से इतनी सारी कथाओं को पढ़-पढ़ कर लबालब हो गया हूं। ऐसे जैसे सावन-भादो में नदी में बाढ़ आई हो। गांव-गिरांव के सरोवर भर गए हों। ताल से ताल मिला कर गांव के सारे तालाब मिल गए हों। कुछ-कुछ वैसी ही हालत मेरी हो गई है। और इंदीवर का लिखा वह एक गीत याद आ रहा है कि ओह रे ताल मिले नदी के जल में / नदी मिले सागर में / सागर मिले कौन से जल में / कोई जाने ना। तो इसी अर्थ में इस कथा सागर को ले कर ख़ुद को भरा-भरा पा रहा हूं।

संयोग से मेरे भीतर तीन शहर निरंतर धड़कते मिलते हैं। गोरखपुर , दिल्ली और लखनऊ। तीनों जगह बसेरा रहना ही बड़ा कारण है। लेकिन लखनऊ और गोरखपुर की कहानियों में एक बड़ा और ख़ास फ़र्क़ यह है कि गोरखपुर की कहानियां अपनी ज़मीन नहीं छोड़तीं। आज के युवा कथाकार भी भले कहीं रहें , कुछ भी करें पर अपना खेत , अपना मेड़ और अपनी माटी नहीं छोड़ते। नहीं छोड़ते माटी की सुगंध। माटी का प्यार , माटी की संवेदना और विपन्नता अनायास छलकती रहती है। भोजपुरी , भोजपुरी का भाव , वह जीवन लगातार लिपटता मिलता है। एक से एक नायाब कहानियां हैं इस कथा-गोरखपुर में। छोटी-छोटी कथाओं से बड़ा फलक रचती कथाओं ने मुझे मोह लिया है। कभी न छोड़े खेत वाली बात लखनऊ और गोरखपुर दोनों ही कथाओं में महकती , गमकती और इतराती हुई इठलाती मिलती है। पढ़िए आप भी इन कथाओं को और इठला कर चलिए यह कहते हुए कि आप ने कथा-गोरखपुर की कहानियां पढ़ी हैं। रियाज़ ख़ैराबादी याद आते हैं :

जवानी जिन में गुज़री है , वो गलियां याद आती हैं
बड़ी हसरत से से लब पर ज़िक्रे गोरखपुर आता है।

आमीन …

साभार https://sarokarnama.blogspot.com/2022/04/1_22.html से

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