Monday, November 25, 2024
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कहानी गोरा और बादल की

आप सबने (फ़िल्म में) सुना और देखा ही होगा की किस तरह अल्लाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ किले के नीचे पड़ाव डाला था और जब छल बल से जीत ना मिली तो अंत मे रानी पद्मिनी के एक बार दर्पण में दर्शन भर कर लेने के बदले महाराणा से मित्रता का प्रस्ताव महाराणा को रखा। महाराणा रतन सिंह भी यह प्रस्ताव मानने को राजी हो गए।

मगर महाराणा के सेनापति गोरा चौहान को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आयी और इसी बात पर महाराणा से उनका मनमुटाव शुरू हो गया। महाराणा ने उन्हें तुरंत गढ़ छोड़ कर निकल जाने का आदेश दिया और स्वाभिमानी गोरा तुरंत महल छोड़ कर जंगल में अपने परिवार के साथ रहने लगे।

अल्लाउद्दीन सिर्फ दर्शन कर कर कब जाने वाला था उसने योजनाबद्ध तरीके से महाराणा को दिल्ली बुलाया और उन्हें वहां कैद कर लिया। चित्तौड़गढ़ को संदेश भेजा गया कि अगर अगले 10 दिन में महारानी पद्मिनी दिल्ली आकर खिलजी के हरम में रहना स्वीकार कर ले तो महाराणा का जीवन बच सकता है अन्यथा 11 वें दिन महाराणा का सिर चित्तौड़गढ़ रवाना कर दिया जाएगा।

यह संदेश जब महारानी ने सुना तो तुरंत गोरा के लिए बुलावा भेजा गया क्योंकि अब सेनापति गोरा चौहान ही मेवाड़ की इकलौती उम्मीद थी।

एक और अपमान का विष था तो दूसरी तरफ मेवाड़ की महारानी का बुलावा, स्वामिभक्त गोरा बड़े असमंजस में थे। भारी मन से चित्तौड़गढ़ पहुंचे तो महारानी ने सीधे महल में बुला लिया। “राणी सा! मानता हूं संकट अब गढ़ पर आ गया है मगर मैं तो एक सैनिक मात्र हूँ और महाराणा का आदेश है कि मैं किसी भी अभियान में हिस्सा ना लूं।”

एक मधुर स्वर गूंजा “सेनापति जी! मैं क्षत्राणी हूँ और शत्रु के शिविर में जा कर प्राण देना अच्छे से जानती हूं। मगर आज अगर मैं गयी तो लोग कहेंगे कि ऐसी रजपूती किस काम की जिसमें मर्दों के रहते एक महिला को लड़ने दिल्ली जाना पड़े। आप उम्र में मुझसे बड़े हैं और आपका युद्ध कौशल जग जाहिर है। मुझे आपके चरण छू कर एक पुत्री की तरह आपसे यह मांगते हुए बिल्कुल लज्जा नहीं लगेगी कि राजपूतों की शान आज आपके इन्हीं हाथों में है।” कह कर रानी गोरा के चरणों को छूने झुकी।

गोरा बिजली की गति से पीछे हट गए। “राणी सा! यह क्या कर रही हो? आप महारानी हो और मैं आपका दास मात्र हूँ। आप इस गढ़ की जगदम्बा स्वरूप माता हैं और कोई माता अपने पुत्र के चरण छुए तो पुत्र को जीवित रहने का अधिकार ही नहीं बचता। मैं आज ही योजना बनाता हूँ और दिल्ली कूच करता हूँ।”

महारानी की आंखों में विश्वास आंसू बन कर गालों पर ढलक रहा था। गोरा चौहान ने 3500 सैनिकों का चुनाव किया जो शायद चित्तौड़ के सबसे वीर सैनिक थे। 700 डोले मंगवाए गए। हर डोले में एक सैनिक, तलवार ,भाले और चार सैनिक कहार के रूप में जाने का तय हुआ। महारानी पद्मिनी गोरा चौहान और उनके भतीजे बादल का तिलक करने स्वयं महल से नीचे आयी।

बादल जिसकी अभी मूछें भी नहीं आयी बहुत खुश था कि महारानी स्वयं उसका तिलक करने आई है और गोरा की आंखों से आंसू बह रहे थे क्योंकि वो जानते थे कि यह अभियान इन 3500 सैनिकों के बलिदान का न्यौता है। एक बालक, जिसने दुनिया में कुछ नहीं देखा, को तो शायद उस भयावहता का अंश भी नहीं पता है। पूरा चित्तौड़गढ़ “जय एकलिंग जी री!” के उद्घोष से गूंज उठा और डोले दिल्ली को रवाना हुए।

डोले दिल्ली पहुंचे और दरवाजे पर सैनिकों को संदेश दिया गया कि सुल्तान को बोलिये कि पद्मिनी स्वयं आयी है और अपने साथ अपनी 700 दासियों के डोले भी लायी है लेकिन दिल्ली में प्रवेश तभी होगा जब पद्मिनी को पहले महाराणा से मिलने का आश्वासन दिया जाए।

खबर जैसे ही सुल्तान को मिली उस कामांध राक्षस ने तुरंत हामी भर कर डोले अंदर बुलाने की अनुमति दे दी। वचन के अनुसार रानी का डोला पहले वहां जाएगा जहां महाराणा को कैद किया हुआ है। गोरा ने अपने भतीजे बादल को बुला कर पूरी योजना एक बार फिर से बता दी। “बादल! यह लुहार और 10 अन्य सैनिक राणाजी के बंधन काटेंगे और तुम 20 घुड़सवारों की एक टुकड़ी लेकर छुपे रहना। जैसे ही राणा जी बाहर आएँ, तुम अपनी टुकड़ी के साथ राणा जी को घोड़े पर बिठा कर चित्तौड़ की तरफ कूच कर देना। हमारी चिंता बिल्कुल मत करना। राणाजी की सुरक्षा का पूरा जिम्मा तुम्हारे सिर है। ध्यान रहे प्राण भले चले जाएं मगर राणाजी सुरक्षित गढ़ पहुंचने चाहिए।”

“काका! ऐसा ही होगा। चाहे बादल को तिल तिल कटना पड़े मगर राणाजी को एक खरोंच नहीं आने दूंगा। अगर राणाजी को कोई छू ले तो मुझे एकलिंगजी की शपथ है।” बादल गर्व से बोला।

“ठीक है मेरे लाडले! ले आ आखिरी बार मेरी बूढ़ी छाती से लग जा, फिर शायद अब जीवन मे कभी मिल न पाएं।” कहते कहते गोरा की आंखों में आंसू आने लगे मगर बड़ी चतुराई से उन्होंने आंसू अपनी बूढ़ी आंखों में छुपाए और पलट कर आंखें पोंछ लीं।

खिलजी के सेनापति को शक हो गया था कि इस डोले में पद्मिनी तो छोड़ो कोई महिला नहीं आयी है और उसने अपनी सेना को हमले का आदेश दिया। उधर राणाजी ने आजाद होते ही देखा गोरा अपनी टुकड़ी के साथ उनको विदा करने खड़ा है। महाराणा की आंखों में पश्चाताप के आंसू थे मगर अभी पछतावे का समय नहीं था।

महाराणा ने तलवार उठा कर अपनी सेना का नेतृत्व करने हेतु हुंकार भरी “हुकुम! आप निश्चत रूप से हमारे नायक हैं मगर मैं राणीसा को वचन देकर आया हूँ कि आप जीवित ही गढ़ पधारेंगे। आप बादल की टुकड़ी के साथ गढ़ पधारिये। इन मलेछों के लिए मैं अकेला ही बहुत हूँ।” राणा ने अपने सेनापति की बात भारी मन से मान ली और चित्तौड़ की तरफ कूच किया।

सेनापति जफर यह भांप चुका था और राणाजी के सामने 100000 की सशस्त्र सेना खड़ी थी। गोरा और महाराणा अपने सैनिकों के साथ घिर चुके थे।मगर गोरा कहाँ डरने वाले थे। उन्होंने तलवार निकाल कर युद्ध करना शुरू किया वहीं महाराणा युद्ध भी कर रहे थे और बादल उनके निकलने का रास्ता बना रहा था।

गोरा का शौर्य ऐसा था कि दस-दस सैनिकों के सिर तलवार के वार से जमीन पर गिर रहे थे। ऐसा लग रहा था कि स्वयं महाकाल अरिदल का दलन कर रहे हों।गोरा की तलवार बिजली की गति से चल रही थी और सैनिक कीट पतंगों की तरह उस ज्वाला में जल रहे थे। तभी एक भाला गोरा के पेट में आ धंसा और उनकी अंतड़ियां बाहर निकल आयी।

गोरा ने आनन फानन में अपनी पगड़ी उतारी और अपने पेट पर बांध कर पुनः अपनी बरसों से प्यासी तलवार की प्यास बुझाने में व्यस्त हो गए। जब गोरा पगड़ी बांधने में व्यस्त थे एक तुर्क सैनिक ने पीछे से उनपर पीछे से वारकिया और उनकी एक टांग काट डाली मगर इससे भी न गोरा की दक्षता कम हुई ना उनकी तलवार का वेग।

वो तो अभी भी साक्षात महाकाल लग रहे थे और तुर्क सैनिकों का रक्त दिल्ली की भूमि को पिला रहे थे।गोरा की यह हालत देख सेनापति जफर महाराणा को कैद करने भागा मगर गोरा ने उसका यह कदम देख लिया। गोरा जफर की तरफ उसे रोकने को बढ़े मगर पीछे से बिजली सी कौंधी और गोरा का सिर कट कर जमीन पर गिर गया मगर उनके धड़ का आखिरी वार भी जफर के शरीर को बीच से दो फाड़ में चीर गया।

महाराणा भागने में कामयाब रहे और बादल के साथ चित्तौड़गढ़ पहुंचे। पूरा चित्तौड़गढ़ उस दिन अपने बांके सेनापति का शौर्य सुन कर गर्व और शोक एक साथ महसूस कर रहा था। बादल अपने घर पहुंचे मगर अपनी काकी से नज़र चुराते हुए कि कहीं काकी ने पूछ लिया कि काका कहाँ है तो क्या जवाब देगा।

पीछे से आवाज आई “कुंवर सा! आपके काकाजी कहाँ रह गए? महाराणा के साथ चर्चा कर रहे हैं या अपनी पत्नी को देखने का मन नहीं किया उनका?” बादल स्तब्ध था जैसे किसी चोर की चोरी पकड़ी गई हो। बड़ी हिम्मत और आंखों में आंसू लेकर इतना ही बोल पाए “काकी! काका आज चित्तौड़गढ़ के काम आ गए।”

“मुझे इतना बता दो कि मेरे धणी ने युद्ध कैसा किया? क्या वो वीरों की तरह लड़े? क्या उन्होंने चित्तौड़गढ़ का मान बढ़ाया?”

“काकी! काका तो ऐसे लड़े जैसे साक्षात रणचंडी हों। उन्होंने सैंकड़ों मलेछों को अकेले धूल चटाई और न जाने कितनों को ऊपर पहुँचा दिया। आज साक्षात एकलिंग जी उनके रूप में लड़ रहे थे।”

“बस बेटा! इतना सुन लिया तो अब मैं शांति से इस देह को त्याग कर सकती हूँ। मन में अब कोई बोझ नहीं रहा। अब मैं भी अपने धणी के पास ही जाना चाहती हूं।” किले में सजी गोरा की चिता में उनकी पत्नी भी खुशी खुशी सती हो गयी।

साभार http://bharat-parikrama.in/ से

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