किसी साफ-सुथरे मैदान या कमरे में 50- 100 लोग भगवा झंडे के सामने एकत्र हैं। ध्वज प्रणाम के बाद सब बारी बारी झंडे के सामने सर झुका कर लिफाफे में कुछ अर्पित कर शांत चित से अपने स्थान पर आ कर बैठ जाते हैं। पूजन पूरा होने पर कोई कार्यकर्ता आज के दिन अर्थात भगवा ध्वज और भारतीय गुरु परम्परा तथा वर्तमान परिस्थिति में राष्ट्र के प्रति अधिकतम समर्पण का आह्वान कर बैठ जाता है। इसके बाद कार्यक्रम समाप्त हो जाता है। सब लोग हंसी ख़ुशी अपने घरों को वापिस चले जाते हैं। कौन हैं ये लोग और इन्होंने आज क्या किया ? आप में से कुछ तो समझ ही गये होंगे कि ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता ही हो सकते हैं। अगर ये बात सही है तो इन्होने लिफाफे में कुछ राशि के रूप में अपनी गुरु दक्षिणा अर्पित की है। क्या इस समर्पण का प्रचार होता है? अधिक राशि देने वाले का सम्मान होता है क्या? और इस लिफाफे में कितनी राशी होती होगी? आपकी सारी जिज्ञासाएं ठीक हो सकती है लेकिन संघ के कार्यकर्ता आपके सब सवालों पर मुस्करायेंगे जरूर। क्यूंकि वे साल दर साल से देखते आ रहे हैं, स्वयं गुरुदक्षिणा करते आ रहे हैं। वे जानते हैं कि संघ के लाखों कार्यकर्ता प्रतिवर्ष प्रचार – प्रसिद्धी से कोसों दूर रह कर अपना समर्पण करते आए हैं।
स्वयंसेवक इसी लिफाफे में साधारण पुष्प , 50/100 रूपये से लेकर हजारो ही नहीं तो लाखों की राशि देश के लिए सहज समर्पित करते हैं। रोचक बात तो यह है कि उसी दरी पर हजारो रूपये अर्पित करने वाला स्वयंसेवक है तो उसी के पास उसके भारी भरकम समर्पण से पूरी तरह अंज़ान और बेखबर मात्र पुष्प चढ़ाने वाला स्वयंसेवक भी पूरे आत्मविश्वास से बैठा होता है। ये दृश्य किसी दूसरे ग्रह के नहीं हैं बल्कि इसी पृथ्वी लोक में जुलाई अगस्त में कहीं भी देखे जा सकते हैं। आपके मन में स्वाभाविक ही प्रश्न आयेगा कि जिस समाज में हर आम और खास आदमी में लोकेषणा इतनी ज्यादा मन मष्तिष्क में आ बैठी हो कि व्यक्ति बड़ी राशी तो दूर साधारण पंखे या मंदिर में लगने वाली टायल पर भी नाम लिखवाने का मोह नहीं टाल पाता उसी समाज में संघ ने ये चमत्कार कैसे कर दिखाया? इस सब को समझने के लिए संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार के जीवन का अध्ययन करनाआवश्यक है।
अदभुत संगठक डॉ. हेडगेवार-नागपुर में 1889 में जन्मे विश्व् के महान संगठनकर्ता डॉ. हेडगेवार कांग्रेस के अंदर राष्ट्रीय स्तर के नेता थे। कांग्रेस में सक्रियता के साथ साथ वे उच्च कोटि के क्रन्तिकारी भी थे। सब प्रकार के क्रियाक्लापों में व्यस्त रहने के बाबजूद प्राक्रतिक आपदा आदि में सेवा कार्यों में भी वे सबसे आगे रहते थे। ये सब करते हुए भी वे समाज में आए विकारों का बड़ी पैनी नजर से विश्लेष्ण करते रहते थे। १९१४ से १९२५ तक विशेष रूप से उन्होंने इसी मर्ज के मूल कारण खोजने पर अपने आपको केन्द्रित किया। उनकी खोज का मुख्य विषय रहता था कि हम बार बार बार गुलाम क्यूँ हो जाते हैं? पिछले डेढ़ दो हजार साल से भारत को अलग विदेशी जातियां गुलाम बनती रही हैं। हम एक हमलावर से जैसे कैसे निपटते उतने में दूसरी जाति आ चढ़ती थी। किसी कवि ने ठीक ही है कहा है-
सोचो कि हम पर हमला हर दम होता ही क्यूँ है?
हंसती है सारी दुनिया भारत रोता ही क्यूँ है?
डॉ. हेडगेवार ने विचार किया कि आखिर भारत कब अपने आपको पहचानेगा? कब और कैसे भारत अपने प्रकृति प्रदत्त दायित्व- विश्व का मार्गदर्शन करने की स्थिति में आएगा? भयंकर विपरीत आर्थिक परिस्थितियों में अपनी डाक्टरी की पढाई पूरी कर एक भी दिन धन कमाने के लिए नौकरी या अपनी प्रेक्टिस नहीं की। कालेज प्रिंसिपल द्वारा वर्मा सरकार की बहुत आकर्षक नौकरी के प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर दिया। उन्होंने व्यक्तियों की चिकित्सा करने के बजाये समाज और राष्ट्र के रोग का निदान ढूंडा। अपने निदान में उन्होंने देश भक्ति, व् अन्य श्रेष्ठ गुणों से युक्त एक जिमेवार नागरिक खड़ा करने को अपने जीवन का ध्येय बनाया। ऐसे श्रेष्ठ लोगों से युक्त समाज का संगठन खड़ा करने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। इसी लक्ष्य की पूर्ति केलिए विजयदशमी 1925 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। संघ की स्थापना से भारत माँ की वर्षों पुरानी इच्छा पूरी हो गयी। डॉ. हेडगेवार ने प्रचलित धारा से हट कर संघ के सारे नियम व् परम्पराएँ खड़ी की। ये विशेषताएं ही संघ की आज की सफलता का आधार सिद्ध हो गयी। इन परम्पराओं में श्री गुरु दक्षिणा पद्धति भी प्रमुख है।
महान गुरु शिष्य परम्परा- भारत की गुरु शिष्य परम्परा भी अदभुत है। भौतिकवादी रंग में रंगे विदेशी या अब तो भारत में भी विदेशी चश्मा लगाये लोगों को इस परम्परा की गहराई या ऊंचाई समझ में नहीं आती। स्वामी विवेकानन्द अपने साथ अपने गुरुदेव ठाकुर राम कृष्ण का चित्र रखते थे। अमेरिकी शिष्यों के पूछने पर बोले कि ये मेरे गुरुदेव हैं। मैं आज जो भी हूँ इनकी कृपा के कारण हूँ। शिष्यों ने पूछा ये कितने पढ़े हैं? स्वामी जी बोले ,’ये तो निरक्षर भटाचार्य हैं अर्थात पूरी तरह अनपढ़ हैं।’ अमेरीकी शिष्यों को विश्वास नहीं हुआ। बोले कि आप जैसे महा विद्वान महापुरुष को इन्होने क्या सिखाया होगा? स्वामी जी बोले, ‘ ये मेरे जैसे हजारों विवेकानन्द पैदा कर सकते है। खैर, उनको स्वामी जी की अनेक बातों की तरह ये गुरु शिष्य सम्बद्ध भी समझ नहीं आया। हम सब जानते हैं कि भारत में गुरु को भगवन से भी अधिक बड़ा स्थान दिया गया है। शिष्य गुरुकृपा से जब जीवन की सच्चाई की कुछ थाह पा लेता है तो भाव-बिभोर हो कर उनकी प्रशंसा में अपने मन का आदर उड़ेल देता है। उदाहरण के लिए-
गुरु गोबिंद दोउ खड़े काके लागूं पाए।
बलिहारी गुरु अपने गोबिं दियो मिलाये।
यह तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान
शीश दिए गुरु मिले तो भो सस्ता जान।
गुरु कुम्हार शिश कुम्भ है गढ़ गढ़ काढ़े खोट ।
अंतर हाथ सहार दे बाहर मारे चोट।
इसी प्रकार एक अन्य सुन्दर भाव देखिये-
*गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुदेवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मैव श्री गुरुवे नम:।।
ध्यान मूलं गुरु मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदम्।
मन्त्र मूलं गुरु वाक्यं , मोक्ष मूलं गुरु कृपा।
हमारी संस्कृति में जीवन में अच्छे गुरु का मिलना बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। मनुष्य ईश्वर का अंश होने के बाबजूद मोह माया के जंजाल में उलझ कर पशुवत व्यवहार करने लग पड़ता है। गुरु उसके मन में जमी मोह माया की राख हटा कर भगवद्प्राप्ति की दिशा में बढ़ाता है। यहाँ यह रोचक है कि गुरु को प्रसन्न करने के लिए जहाँ शिष्य कठोर परिश्रम करता है वहीं गुरु भी शिष्य के निर्माण में अपने को पूरी तरह खपा देता है। इसके आलावा जहाँ गुरु शिष्य की कठिन परीक्षा लेता है वहीं हमारे यहाँ शिष्य भी खूब ठोक बजा कर गुरु को स्वीकार करता था। इस दृष्टि से विवेकानन्द और राम कृष्ण के अनेक प्रेरक प्रसंग हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि इसमें कोई किसी का बुरा नहीं मानता था। गुरु शिष्य के सम्बद्ध अलग ही प्रकार के होते हैं। भारत में गुरु शिष्य जोड़ी की अनंत श्रृंखला है। इनमे से प्रमुख का जिक्र करना हो तो श्री राम -वशिष्ठ, विश्वमित्र, भगवान श्री कृष्ण – संदीपनी, चन्द्रगुप्त -चाणक्य , शिवाजी – रामदास, दयानन्द -स्वामी बिरजानन्द, स्वामी विवेकानन्द – राम कृष्ण परमहंस आदि। हमारे स्वंतत्रता संग्राम में सावरकर – मडल लाल धींगड़ा, चन्द्र शेखर आजाद – शहीद भगत सिंह तथा राम परसाद बिस्मिल – अस्फाकउल्लाा खां उल्लेखनीय है। हमारी संस्कृति में एक और मान्यता के अनुसार जिस किसी से भी हम कुछ सीखते है, अपने जीवन निर्माण में जिनका भी योगदान रहता है हमने उन्हें भी आदरपूर्वक गुरु का स्थान दिया है। इस दृष्टि से माता को प्रथम गुरु का स्थान दिया गया है।
श्री गुरु दक्षिणा को बनाया संगठन का आधार- संघ की श्री गुरु दक्षिणा की इस प्राचीन पद्धति का समाज हितार्थ सफलतापूर्वक प्रयोग कर लेने में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार की दूरदृष्टि ध्यान में आती है। उनकी संगठन की कला तो कमाल की थी। शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन आर एस एस का आर्थिक आधार भारत की ये प्राचीन गुरु दक्षिणा पद्धति ही है। जिस समय साम्यवादी और अन्य संघ विरोधी संघ को अमेरिका से पैसा आता है ऐसे आधारहीन आरोप लगा रहे थे, संघ चुपचाप स्वयंसेवकों में ध्येयनिष्ठा व् समर्पण का भाव जागृत करने में व्यस्त रहा। संघ की इस साधारण लेकिन अदभुत कार्य पद्धति पर संघ विरोधी ही नहीं बल्कि कई बार नये स्वयंसेवक भी विश्वास नहीं कर पाते हैं कि इसी गुरु दक्षिणा से प्राप्त धन से संघ का साल भर का खर्चा चलता है। संघ ने बहुत पहले ही संघ ने अपने लिए नियम बनाया कि संघ अपने खर्चे के लिए श्री गुरु दक्षिणा को ही आधार बनाएगा। किसी से आर्थिक सहायता नहीं ली जाएगी। स्वयं को ऐसे कठोर नियम में बाँध लेना किसी खतरे से कम नहीं था, वो भी ऐसे समाज में जहाँ भक्त भगवान की आरती के समय आंखे बंद कर गाता तो है- तेरा तेरे अर्पण क्या लागे मेरा लेकिन आंख खोल कर जैसे ही पैसा चढ़ाता है तो जेब में सबसे कम नोट कौन सा है’ यह देखता है। इस नियम के कारण संघ को प्रारम्भ के १०/१२ साल बहुत कठिनाई आई। लेकिन संघ ने भयंकर आर्थिक कठिनयियो के बाबजूद इस नियम का श्रद्धापूर्वक पालन किया।
संघ के लिए वरदान सिद्ध हुई श्री गुरु दक्षिणा पद्धति – आज संघ बड़े बड़े कार्पोरेट हाउस, पूंजीपतियो या किसी राजनैतिक दल पर निर्भर नहीं है। यही कारण है कि राष्ट्र हित में सत्य बोलने में संघ को कोई कठिनाई नहीं आती। यह सुविधा बहुत संगठनों या राजनैतिक दलों को प्राप्त नहीं है। संघ को समाप्त करने के इस देश के शक्तिशाली प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरु और उनके बाद उनकी योग्य सपुत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 1948 और 1975 में ईमादार प्रयास किए हैं। संघ को समाप्त करने में सरकार अपने षढ़यंत्र में सफल नहीं हुइ तो इसमें संघ के कार्यकर्ताओं का अपना सर्वश्व दाव पर लगा देने की सिद्धता का प्रेरणास्रोत्र संघ में गुरु के स्थान पर स्थापित परम पवित्र भगवा ध्वज है। इसी से प्रेरणा प्राप्त कर हजारो स्वयंसेवकों ने भयंकर कष्ट सहे, अपने न किये अपराध के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई लेकिन कहीं भी समझौता या कमजोरी नहीं दिखाई। स्वयंसेवकों के त्याग और बलिदान को देख कर देश भर के पुलिस अफसर हों या अनेक कांग्रेस के नेता भी संघ के प्रति श्रद्धा से भर गये। इससे भी बड़ी बात कि विपरीत समय में भी स्वयंसेवकों ने संघ के आर्थिक स्रोत को सूखने नहीं दिया। प्रतिबंध के दौरान भी श्री गुरुदाक्षिणा चलती रही। संघ की इस गुरु परम्परा से आर्थिक सुविधा से भी ज्यादा संघ को व्यक्तिनिष्ठ के स्थान पर ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता मिले। संघ की इस उपलब्धि पर अनेक राजनैतिक ही नहीं तो समाजिक और यहाँ तक कि संत महात्मा भी हैरान हैं। संघ शायद अकेली संस्था होगी जिसे आठ दशक की अपनी यात्रा में बिभाजन की पीड़ा सहन न करनी पड़ी हो। पद की होड़ में कार्यकर्त्ता परस्पर सर फुटबोल न होते हों। किसी व्यक्ति की जयजयक़ार के नारे के बजाये केवल भारत माता की जय के स्वर सुनाई देते हों।
विश्व गुरु भारत के भव्य स्वप्न के लिए राष्ट्र यज्ञ में होम होती जवानियाँ
विश्व गुरु सिंहासन पर फिर बैठे भारत माता,
दिखे पुन: संसार चरण में माँ को शीश नवाता।
इस श्रेष्ठ लक्ष्य को साकार करने के लिए लाखों लोग अपना जीवन खपा रहे हैं। इनमे कुछ अपनी पूरी जवानी सन्यस्त रह कर राष्ट्र को समर्पित हो कर परिश्रम की पराकाष्ठ कर रहे हैं तो बहुत कार्यकर्ता घर, परिवार, व्यवसाय तथा समाजसेवा में संतुलन बैठा कर लक्ष्य को समर्पित हैं। सभी के कार्य करने का हेतु निश्वार्थ समाज सेवा व् राष्ट्र सर्वोपरि है। त्याग और बलिदान के प्रतीक परमपवित्र भगवा ध्वज से प्रेरित हो स्वयंसेवक का यही प्रेरणा वाक्य रहता है-
कंकड़ पत्थर बनकर हमने, राष्ट्र नींव को भरना है।
ब्रह्मतेज और क्षात्र तेज के, अमर पुजारी बनना है।।
सभी स्वयंसेवकों के होठों पर रहता है मात्र यह गान-
तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहे न रहें।
आइये! हम सब भी संघ इस महान कार्य को समझ कर इसमें हाथ बंटाने के लिए आगे आयें।