Saturday, November 23, 2024
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स्वामी दयानन्द और महात्मा ज्योतिबा फुले

वेदों के अद्वितीय विद्वान और समाज सुधारक महर्षि दयानन्द सरस्वती जुलाई, 1875 में पूना गये थे और वहां आपने 15 व्याख्यान दिये थे जो आज भी लेखबद्ध होकर सुरक्षित हैं। सत्यशोधक समाज के संस्थापक महात्मा ज्योतिबा फुले महर्षि दयानन्द के व्याख्यान सुनने आते थे। दोनों परस्पर प्रेमभाव व मित्रता के संबंधो में बन्ध गये। पूना में महर्षि दयानन्द को उनके शिष्य व समाज सुधारक महादेव गोविन्द रानाडे ने आमंत्रित किया था। ऋषि दयानन्द का वहां सार्वजनिक अभिनन्दन भी किया गया था। इस हेतु पूना नगर में एक शोभा यात्रा निकाली गई थी। ऋषि दयानन्द, महादेव गोविन्द रानाडे, महात्मा फुले आदि महापुरुष शोभायात्रा में अग्रिम पंक्ति में चल रहे थे। महात्मा फुले इस शोभा यात्रा में अपने दल बल सहित सम्मिलित हुए थे। महात्मा फुले ने ऋषि दयानन्द को अपनी शूद्र अति शूद कन्याओं की पाठशाला में व्याख्यान के लिए आमन्त्रित भी किया था।
 ऋषि दयानन्द ने महात्मा फुले के आमंत्रण को स्वीकार किया एवं शूद्रों की पाठशाला में उपदेश देने पहुंचे और वहां उन्हें धर्मोपदेश दिया। स्वामी जी व्याख्यान के मुख्य बिंदु।
1. एक ब्राह्मण वर्णस्थ सन्यासी द्वारा जन-कल्याण के लिए शूद्रों एवं स्त्रियों को बिना किसी भेदभाव के वेदों का उपदेश दिया गया।
2. शूद्रों को महान गायत्री मंत्र का उपदेश दिया।
3. शूद्र समाज की बालिकाओं को महान प्राचीन विदुषी गार्गी और मैत्रयी के समान बनने की प्रेरणा दी गई।
4. विद्या के ग्रहण और अविद्या के त्याग का उपदेश दिया गया।
5. वेद मन्त्रों के उदहारण देकर यह सिद्ध किया गया कि वेद स्वयं से चारों वर्णों अर्थात ब्राह्मण से लेकर क्षत्रिय तक को समान रूप से पढ़ने का अधिकार देते हैं हैं।
ऋषि दयानन्द के उपदेश को सभी बालिकाओं, माता सावित्री देवी सहित सभी अध्यापिकाओं और सत्य शोधक समाज व स्कूल के सभी अधिकारियों ने ध्यान से सुना। ऋषि दयानन्द और ज्योतिबा फूले जी का इस प्रकरण ऐतिहासिक महत्व है।
आधुनिक समाज में सदियों के पश्चात अगर किसी विद्वान् ब्राह्मण सन्यासी द्वारा शूद्रों को बिना  किसी भेदभाव के गायत्री का उपदेश दिया गया था तो वह सन्यासी अन्य कोई नहीं अपितु स्वामी दयानन्द थे। खेद है आज का दलित समाज महात्मा फुले का नाम तो बड़ी प्रसन्नता से दलितोद्धार में योगदान देने के लिए स्मरण करता है। मगर दलितोद्धार के लिए सर्वप्रथम उदघोष करने वाले स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का कोई स्मरण नहीं करता।
पुणे के चिपलूनकर नामक ब्राह्मण द्वारा स्वामी दयानन्द के विरोध में यह कार्य किया गया था। चिपलूनकर ने एक गधे पर गर्दभानंद लिख कर उसकी सवारी निकाली थी। स्वामी दयानन्द के समीप आकर कुछ लोगों ने कहा कई स्वामी जी देखिये ये लोग क्या कर रहे है। स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले नकली दयानन्द के साथ तो ऐसा ही होना चाहिए। स्वामी जी के प्रवचनों पर पत्थर बाजी कर उन्हें रुकवाने का प्रयास भी इन लोगों ने किया मगर असफल हुए। अंत में स्वामी दयानन्द की शोभायात्रा निकाली गई। उन्हें हाथी पर बैठाया गया। चारों वेद एक पालकी में शुसोभित थे। स्वामी जी के हाथी के बगल में एक ओर रानाडे महोदय और फुले महात्मा विद्यमान थे। उनकी इस शोभायात्रा पर भी उत्पातियों ने कीचड़ भर भर कार फेंका। जिससे उनके वस्त्र ख़राब हो गए।

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