Monday, December 23, 2024
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कहानी करोड़ों अरबों की कीमत के मयूर सिंहासन यानी तख्ते ताऊस की

1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् विशाल मुगल सम्राज्य का पतन आरंभ हो गया। उसके बाद कोई भी ऐसा शासक दिल्ली की गद्दी पर नहीं बैठा जो साम्राज्य को छिन्न- भिन्न होने से बचा सकता और उसके वैभव की रक्षा कर सकता। आंतरिक कलह और फूट से ग्रस्त, इस ह्रासोन्मुख साम्राज्य को 1739 ई. में नादिरशाह जैसे क्रूर और आतातायी आक्रमणकारी के हाथों विनाश का मुँह देखना पड़ा। उसके एक हुक्म से दिल्ली में जो कत्लेआम हुआ उसे सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

दिल्ली के लाखों निरीह, निरपराध नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। नादिरशाह ने 22 मार्च, 1730 को चांदनी चौक की सुनहरी मस्जिद में बैठकर तलवार म्यान से बाहर निकाली और हुक्म दिया जब तक मैं तलवार म्यान में न रखूं दिल्ली के एक-एक नागरिक को मौत के घाट उतार दिया जाए। फिर क्या था ? उसके सैनिक दिल्ली वालों पर बाज की तरह टूट पड़े। स्त्री, पुरुष, बुढ़े- बच्चों, पशु-पक्षी, जो भी मिला कत्ल कर दिया गया । हर घर से खून की धारा बह निकली। चांदनी चौक, दरीबा कलां, जामा मस्जिद का आस-पड़ोस सभी आग में जल उठे। 9 घंटे तक हत्याकांड चलता रहा। यह एक लंबी कहानी है कि किस प्रकार यह रक्तपात बंद हो पाया और नादिरशाह को यहां से विदा किया गया। किंतु कहते हैं कि दिल्ली के पूरे एक लाख नागरिक इस हत्याकांड के शिकार हुए थे ।

इस दिल दहलाने वाले नर-संहार के साथ-साथ ही नादिरशाह ने शाही खजाने को भी खाली कर दिया और तत्कालीन दिल्ली सम्राट मुहम्मद शाह रंगीला असहाय होकर सब कुछ देखता रहा। बादशाह से नादिरशाह ने लाखों रुपये तथा प्रायः साढ़े तीन सौ वर्षों से संग्रहीत शाही खजाने के जवाहरात लिए और इनसे भी बढ़कर मुगल साम्राज्य का वैभव ” कोहनूर हीरा ” और शाहजहां का बहुमूल्य सिंहासन “तख्ते ताऊस” भी उसके हाथ लगा ।

“कोहेनूर” की भांति ही तख्ते ताऊस भी शाहजहां की प्रसिद्ध निधियों में था । कोहेनूर तो कट छंट कर आज भी इंगलैंड की महारानी के ताज की शोभा बढ़ा रहा है, किंतु अभागे ” तख्ते ताऊस” का कहीं भी नामो निशान नहीं रहा।

मुगल बादशाहों शाहजहां के दरबार में देश-विदेश के जौहरी बहुमूल्य हीरे, माणिक, पन्ने, पुखराज आदि कीमती पत्थरों को लेकर उपस्थित हुआ करते थे। वह उन्हें आँखों से देखकर ही उनका मूल्यांकन करते तथा पसंद की चीजों को खरीदा करते थे । स्वभावतः बादशाह का रत्न भंडार संसार के तत्कालीन सभी रत्न भंडारों से सवाया था।

1628 ई. में औपचारिक रूप से सिंहासनारूढ़ होने के तुरंत बाद शाहजहां ने निश्चय किया कि वह एक ऐसे राज – सिंहासन का निर्माण कराकर अपने आपको गौरवान्वित करेगा, जो अन्य किसी भी बादशाह के सिंहासन से कहीं अधिक श्रेष्ठ एवं मूल्यवान हो । अप्राप्य रत्नों को भारी मात्रा में खरीदा गया और इस प्रकार राजकीय रत्नागार में भारी वृद्धि की गई। इस समस्त संचित भंडार को श्रेष्ठ ‘तख्ते ताऊस’ को अलंकृत करने में लगा दिया गया। यूरोप के दो प्रसिद्ध कारीगर आस्टिन, जो बोरडो का रहने वाला था तथा जेरेनिमों बेरोनियों, संयोगवश उन दिनों मुगल दरबार में ही थे। उनके देख-रेख में इसकी रूप रेखा तैयार की गई थी और बेबदल के निर्देशन में 7 वर्ष के सतत परिश्रम के बाद 1634 ई. में यह सिंहासन बनकर तैयार हुआ ।

ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया के पृष्ठ 377 पर लिखा है कि इसका निर्माण बेबदल खाँ के निरीक्षण में 7 वर्षों (1628-35) में पूर्ण हुआ । यह सिंहासन एक पलंग के प्रकार का था, जिसके पाए सोने के बने थे । इसकी चित्रित छत, पन्ने के बने बारह स्तम्भों पर टिकी हुई थी और प्रत्येक स्तम्भ पर दो-दो मोर थे जिनके उपर रत्न जुड़े हुए थे । प्रत्येक जोड़ के पक्षियों के बीच में एक वृक्ष था जो हीरों, पन्नों और माणिक तथा मोतियों से सुसज्जित था । यह अलंकृत सिंहासन जिसकी लागत कम से कम एक करोड़ रुपये अर्थात् उस समय के साढ़े बारह लाख पौंड के बराबर होगी। 1739 तक लाल किले में उस समय तक शोभायमान रहा जब तक कि नादिरशाह उसे उठाकर ईरान नहीं ले गया ।

भूतपूर्व संसद सदस्य श्री आर. पी. नारायण सिंह के शब्दों में ‘यह देखने में चारपाई के किस्म का, छह फुट लंबा, सोने के चार खम्बों पर स्थित था । तख्त का पिछला हिस्सा हू-बहू मोर की पूंछ के रंग और आकार-प्रकार का था, जिसमें उच्च श्रेणी के हीरे, माणिक और नीलम लगे हुए थे। छत के छोटे-छोटे आधार स्तम्भ सोने के बने हुए और पन्ने तथा मोतियों से आच्छादित थे। ‘

17वीं सदी में जीन थेवनो नाम का एक फ्रांसीसी यात्री भारत आया था। उसने लिखा है – ” कहते हैं इसमें 20 करोड़ का तो सोना ही लगा है। पर कौन इसकी कीमत आंक सकता है ? इसका मूल्यांकन तो इसके उन बहुमूल्य पत्थरों की कीमत जानने पर ही किया जा सकता है जिनसे यह लदा हुआ है।”

शरलॉक होम्स के रचयिता सर आर्थर कॉनन डायल ने अपनी आत्मकथा में लिखा था । ” दिल्ली में मुगलों के महल में रखा मयूर के रूप में निर्मित यह अद्भुत सिंहासन पूरी तरह सोने का बना था और भांति-भांति के हीरों- रत्नों आदि से जड़ा था। वह स्वर्णयुक्त पांवों वाले ऐसे छोटे पलंग जैसा दिखाई देता था, जिसके पतले स्तम्भों पर हीरे, पन्ने तथा रत्न बड़े कलात्मक ढंग से जड़े गए थे । सिंहासन के पृष्ठ भाग में दो मयूर प्रतिष्ठित थे, जिनके शरीर तथा फैले पंखों पर भी भांति-भांति के दमकते – चमकते रत्न, हीरे और पन्ने आदि शोभायमान थे।”

इसी प्रकार अन्यान्य विदेशी यात्रियों ने इसके संबंध में लिखा है और इसकी कीमत के संबंध में तरह- तरह की अटकलबाजियां लगाई हैं, किन्तु प्रसिद्ध यात्री ट्रेवर्नियर ने जो इसका आंखों देखा विवरण प्रस्तुत किया है वह अधिक प्रामाणिक है। उनके ” मुख्य सिंहासन जो पहले दरबार के मुख्य भाग में स्थित है वह हमारे शिविर की चारपाइयों से आकार और प्रकार में मिलता-जुलता है, अर्थात् यह लगभग 6 फुट लंबा और 4 फुट चौड़ा है। चारों पायों के ऊपर 4 सलाखें लगी हुई हैं जो 20 से लेकर 25 इंच तक ऊंची हैं। ये सिंहासन के आधार को सहारा दिये हुए हैं। इन सलाखों के ऊपर बारह स्तम्भ हैं जो इसकी छतरी को तीन ओर से संभाले हुए हैं। पायों और सलाखों, दोनों ही के ऊपर जो 18 इंच से बड़े हैं, सोने के पत्र चढ़े हुए हैं और उन पर अनेक हीरे, माणिक और पन्ने जड़े हुए हैं।”

“मैंने इस सिंहासन के बड़े-बड़े माणिकों को गिना है, वे 108 के लगभग हैं। इनमें सबसे छोटे का भार 100 कैरेट है, किंतु कुछ ऐसे भी हैं, जो 200 कैरेट या उससे बड़े दिखाई देते हैं । ”

‘छतरी का अन्दर का भाग हीरों और मोतियों से ढका हुआ है, जिसके चारों ओर मोतियों की झालर लगी हुई है। छतरी के ऊपर, जो एक चौकोर गुम्बद की शक्ल की है, एक मोर स्थित है जिसकी पूंछ ऊपर को उठी हुई है। पूंछ नील मणि तथा अन्य रंगों के पत्थरों से बनी है। मोर का शरीर सोने का है जिसमें बहुमूल्य पत्थर लगे हुए हैं। उसकी छाती के सामने एक बड़ा माणिक लगा है जिसके ऊपर भाले के आकार का एक लगभग 50 कैरेट भार का मोती है, जो कुछ-कुछ पीले जल जैसा है । ‘

“ट्रेवर्नियर जो 1640 में भारत आया था, उसका कथन है कि तैमूरलंग के समय से संगृहीत धन से प्रारंभ और शाहजहां द्वारा पूर्ण इस सिंहासन का मूल्य 1,07,000 लाख है।

इस भव्य सिंहासन के पीछे एक छोटा सिंहासन है, जो स्नान कुंड के आकार का है यह अंडकार है जिसकी लंबाई 7 फुट और चौड़ाई 5 फुट है। इसके बाहर हीरे मोती जड़े हुए हैं, किंतु इसकी छतरी नहीं है ।

लार्ड कर्जन ने जिस तख्त को तेहरान में देखा था, उसके विषय में वह लिखता है कि यह तख्ते-ताऊस बिल्कुल भी भारतीय कृति नहीं है । इसका निर्माण इस्फहान के मुहम्मद हुसेन खाँ सदर ने फतह अली शाह (1793-1847 ) के लिए उस समय कराया था, जब शाह ने एक इस्फहानी युवती के साथ विवाह किया था, – ……..। नादिर शाह के मूल ‘मयूर सिंहासन (अर्थात् दो प्रतिकृतियों के अवशेष) को आगा मुहम्मद शाह (1785-97) ने टूटी-फूटी और जीर्ण-शीर्ण अवस्था में प्राप्त किया था । उसने इसे विजेता के रूप में अन्य जवाहिरात के साथ प्राप्त किया था। इसके बाद इसके प्राप्त अंशों से आधुनिक रूप और प्रकार का एक अन्य सिंहासन बनाया गया जो आज तेहरान के महल में स्थित है । अतः इस कुर्सी पर महान मुगलों के मयूर सिंहासन के अवशेष विद्यमान हैं।’

नादिरशाह को यह इतना अधिक पसन्द था कि वह जहां कहीं भी जाता इसे साथ ले जाता था। इसके बाद यह तख्त आगा मुहम्मद शाह के हाथों पड़ा जिसने फारस की बादशाहत भी नादिरशाह के मरने पर हड़प ली थी।

1919 में यह एक अफवाह फैली थी कि मुगल सम्राटों का तख्त-ए-ताऊस कुस्तुनतुनिया में है और तुर्कों से खरीदकर इसे शायद दिल्ली लाया जायेगा। लार्ड कर्जन ने- ‘दि टाइम्स’ में 10 सितंबर 1919 को लिखे गये अपने एक पत्र में उपर्युक्त तथ्य को दोहराया है। उसने कहा है कि नादिरशाह की मृतयु से दो वर्ष पूर्व जब तुर्की ने ईरान पर आक्रमण किया तो उन्हें भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा और यह विजयोपहार उनके हाथ में न आ सका।

कुछ लोगों का अनुमान है कि नादिरशाह के हाथों असली तख्ते-ताऊस नहीं लग सका था। जिस तख्त को नादिरशाह नहीं लूट सका उसे लूटने में बाद में अंग्रेजों ने सफलता प्राप्त की किंतु दुर्भाग्य से वह तख्ते ताऊस इंगलैंड तक भी नहीं पहुंच पाया और समुद्र में ही गायब हो गया। इस संबंध में एक बड़ी रोचक कथा प्रचलित है। 18वीं शताब्दी के अंतिम भाग में यह सिंहासन अंग्रेजों के हाथ लगा। मद्रास लाया गया और वहां से ‘ग्रोस वेनर’ नामक एक विशाल जलयान से जून, 1782 में इंगलैंड के लिए रवाना किया गया।

उसके कप्तान के अनुसार उस पर 300,000 पौंड मूल्य के कीमती हीरे-जवाहरात, जिनमें विश्व विख्यात तख्ते-ताऊस भी शामिल था, इंगलैंड भेजे जा रहे थे। किंतु दुर्भाग्यवश जहाज पूर्वी अफ्रीका के आसपास एक घोर तुफान के चंगुल में जा फंसा और एक चट्टान से टकराकर ध्वस्त हो गया। कुछ कहते हैं कि जहाज जल समाधि को प्राप्त हुआ और साथ ही तख्ते-ताऊस भी। कुछ का मानना है कि जहाज से जो यात्री तट पर आ सके उन्हें वहां रहने वाले हब्सियों ने लूटा। सभी बहुमूल्य रत्न और हीरे तथा तख्त ताऊस के जवाहरात भी उनके हाथ लगे और इस अपार धनराशि को उन्होंने एक गढे में दबा दिया।

दक्षिण अफ्रिका के प्रसिद्ध इतिहास अन्वेषक जार्ज मैक्थील ने 1825 में यह अनुमान प्रस्तुत किया कि ” ग्रौस वेनर ” का खजाना उन्जीमुबु नदी से कुछ किलोमीटर उत्तर की ओर स्थित एक गड्ढे में छिपा है। किंतु यह क्षेत्र विषेले नागों का क्षेत्र था । इसलिए किसी ने वहां जाकर खोजने का प्रयास ही नहीं किया। इसे खोज निकालने के अनेक बार प्रयत्न किए गए, किंतु कोई सफलता नहीं मिली। 1992 में यह तख्त फिर चर्चा का विषय बना और एक नई ग्रौस वेनर बुलियन सिंडीकेट की स्थापना की गई। उसने लंदन स्थित ” इंडिया हाउस” को लिखे पत्र में कुछ रहस्यों की सूचना दी थी किंतु इंडिया हाउस ने कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया । भूगर्भ वैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं कि सागर के गर्भ में छिपी लुप्त संपदा को बाहर लाने के लिए सभी देशों को मिलकर एक अति विशाल और खर्चीली योजना बनानी होगी- जो शायद अभी संभव नहीं है ।

इन चर्चाओं के बाद, फिर ये प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं कि क्या तेहरान के खजाने में रखा ” तख्ते ताऊस” नकली है ? यदि वह नकली है तो असली ” तख्ते ताऊस” क्या वही था जो “ग्रैस वेनर” जहाज द्वारा इंगलैंड ले जाया जा रहा था ? क्या वह समुद्र के गर्भ में समा गया है या दक्षिणी अफ्रीका के किसी कोने में अभी तक भी दबा पड़ा है ?

इस प्रश्नों का कभी उत्तर मिल भी सकेगा, संभावना क्षीण ही है ।

संस्कृति मंत्रालय की पत्रिका ‘संस्कृति’ से साभार

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