रांची के गांव सिमरिया के दिहाड़ी मजदूर माता-पिता की बेटी सरिता तिर्की के आज रांची वुमेंस कॉलेज में बीएड टीचर होने तक की दास्तान झकझोर कर रख देती है। खाने के पैसे न होने से पानी पी-पीकर दिन काटने पड़े, बस किराए के लिए खेत में मजदूरी करनी पड़ी लेकिन उन्होंने कत्तई हार नहीं मानी। मंजिल पर पहुंच ही गईं। सरिता तिर्की तमाम परेशानियों से जूझती महिला जब अपने दम पर फर्श से अर्श पर पहुंचती है, तो उस पर भला किसे गर्व नहीं हो सकता है। ऐसी ही शख्सियत हैं रांची (झारखंड) के गांव सिमरिया की सरिता तिर्की, जिनके माता-पिता दिहाड़ी मज़दूर हैं। उन लोगों के पास थोड़ी-बहुत ज़मीन थी, जिससे बमुश्किल वे अपने परिवार के खाने भर अनाज उगा लिया करते थे। उनके पांच बच्चे हैं। सरिता अपने पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर हैं।
बचपन से ही दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देख उन्हें भी पढने-लिखने की ख्वाहिश होती थी। इसी वजह से जब वह पांच वर्ष की थीं, तब माता-पिता ने एक स्थानीय मिशनरी स्कूल में उनका एडमिशन करवा दिया। वहां कोई फीस नहीं लगती थी। हमारे समाज में खास कर महिलाओं को हर कदम पर दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है। एक अपना अस्तित्व बनाए रखने की और दूसरे इस पुरुष वर्चस्ववादी समाज में खुद को साबित करने की चुनौती। अगर महिला वंचित तबके की हो, फिर तो उसके सामने और भी कई मुफ्त की दुश्वारियां। चूंकि नन्ही उम्र से ही सरिता तिर्की शुरू से ही पढ़ने में तेज थीं, इसलिए केजी से लेकर छठवीं क्लास तक लगातार फर्स्ट डिविजन में पास होती रहीं। मिडिल स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही तिर्की ने संकल्प ले लिया कि अब और मेहनत से पढ़ाई कर समाज में अपनी अच्छी पहचान बनानी है।
यह प्रतिज्ञा आसाना नहीं थी, जीवन की सख्त कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। फिर भी पढ़ाई के प्रति उनके रूझान को देखते हुए ही तिर्की के घरवालों ने उनको सातवीं क्लास से खूंटी केंद्रीय विद्यालय में एडमिशन करा दिया। वहां हॉस्टल का भी इंतजाम मिला। वहीं से तिर्की ने अपनी दसवीं क्लास तक की पढ़ाई पूरी की। तिर्की को आज भी इस बात का मलाल रहता है कि उन चार वर्षों तक एक भी घर वाला उनसे मिलने स्कूल नहीं पहुंचा। तभी इस बात पर उदास हो जाती हैं कि वे घर से 42 किलो मीटर दूर स्कूल आते भी कैसे, उनके पास तक वहां तक जाने के लिए किराए के पैसे भी नहीं होते थे। तिर्की को आज भी खुशी इस बात की रहती है कि कठिन वक़्त में भी दसवीं क्लास में वह फर्स्ट डिवीजन पास हुईं। वक़्त खराब हो तो समाज में मददगार भी मिल ही जाते हैं। उसी तरह तिर्की की जिंदगी में आईं वॉर्डन सिस्टर मेली कंडेमना, जिन्होंने दसवीं पास करने के बाद 500 रुपये देकर खूंटी कॉलेज में एडमिशन करा दिया।
उसके बाद वह बेड़ो से रोजाना बस से चुपचाप बिना किराया चुकाए खूंटी कॉलेज जाने-आने लगीं। एक दिन कंडक्टर को पता चला तो उसने धक्के देकर उन्हें बस से उतार दिया। उसके बाद उन्होंने टिकट के पैसे जुटाने के लिए पढ़ाई छोड़ कर कुछ दिन खेतों में काम किया। उसी बीच घर वालों ने तिर्की का ब्याह रचा दिया। जीजा ने तिर्की के लिए एक साइकिल खरीद दी तो उसके बाद वह रोजाना उसी से कॉलेज जाने-आने लगीं। बीमार पड़ जाएं, फिर भी एक दिन भी कॉलेज नागा नहीं। अब दूसरी मुश्किल ये थी कि उनके पास पढ़ने के लिए कई किताबें नहीं थीं, ले-देकर सहपाठियों या टीचर्स के नोट्स के भरोसे ही पढ़ाई कुछ समय तक चलती रही। अवकाश के दिनो में घर पर पढ़ाई नहीं हो पाती थी। ऐसे हालात के बावजूद तिर्की ने पूरे कॉलेज में ग्रेजुएशन टॉप किया।
तिर्की को अब चिंता सताने लगी कि आगे की पढ़ाई कैसे हो? सो, वह एक दिन अचानक अपने भाई के पास रांची पहुंच गईं। भाई वहां जिस घर की गॉर्ड (पहरेदारी) की नौकरी करता था, उसी के गैरेज में रहता था। उसी के साथ तिर्की भी रहने लगीं। खाने के पैसे न होने से भाई को बिना बताए चुपचाप तीन दिन किसी तरह पानी पी-पीकर बिताए। घर की महिलाओं को इस बात की भनक लग गई तो उन्हे नाश्ता करा दिया। तभी पड़ोस की एक लड़की ने अपना फॉर्म भरवाने के लिए उनको पैसे दिए। अगले दिन तिर्की ने बगल के घर में नौकरानी का काम कर लिया।
मजदूरी के पैसे मिले तो राशन खरीद लाईं और कई दिनो तक भरपेट भोजन किया। काम करती रहीं और उसी काम के पैसो से रांची यूनिवर्सिटी में एमए का फॉर्म भर दिया। एडमिशन टेस्ट लिस्ट में वह टॉप टेन में सेलेक्ट हो गईं। उसी बीच एनसीसी भी ज्वॉइन कर लिया। साथ ही, एक दूसरे घर में और ज्यादा पैसे पर मेड का काम करने लगीं। उस दौरान रोजाना मेड का काम कर पैदल एनसीसी ग्राउंड पर प्रैक्टिस, फिर वहां से पैदल रांची वुमेंस कॉलेज में पढ़ने जाती रहीं और इतनी मशक्कत के बावजूद एमए भी फर्स्ट डिवीजन पास। मकान मालकिन से प्यार-दुलार मिलने लगा। ठंड में भी सिर्फ एक दुपट्टा ओढ़ते-बिछाते देख उनसे हर तरह की मदद मिलने लगी। उन्होंने ही दस हजार रुपए देकर तिर्की का बीएड में एडमिशन करा दिया। वह बीएड में भी टॉपर रहीं। अब तिर्की को एमएड करना था। एक लाख रुपए चाहिए थे। उनके अंक प्रमाण पत्र देखकर बैंक ने एक लाख का लोन दे दिया और जमशेदपुर वुमेंस कॉलेज में दाखिला मिल गया। हॉस्टल वॉर्डन ने मेस की फीस माफ करवा दी। दोस्तों से किताबें उधार मिल गईं और एमएड भी फर्स्ट डिवीजन विथ डिस्टिंकशन। इस समय सरिता तिर्की रांची वुमेंस कॉलेज में बीएड की टीचर हैं।
साभार- https://yourstory.com/hindi/ से