पाँच सितम्बर को एक बार फिर सारा देश भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन का जन्मदिवस ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाने जा रहा है। महर्षि अरविंद ने शिक्षकों के सम्बन्ध में कहा है कि ”शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींचकर उन्हें शक्ति में निर्मित करते हैं।’ ‘महर्षि अरविंद का मानना था कि किसी राष्ट्र के वास्तविक निर्माता उस देश के शिक्षक होते हैं। इस प्रकार एक विकसित, समृद्ध और खुशहाल देश व विश्व के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। आज कोई भी बालक 2-3 वर्ष की अवस्था में विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए आता है। इस बचपन की अवस्था में बालक का मन-मस्तिष्क एक कोरे कागज के समान होता है। इस कोरे कागज रूपी मन-मस्तिष्क में विद्यालयों के शिक्षकों के द्वारा शिक्षा के माध्यम से शुरूआत के 5-6 वर्षो में दिये गये संस्कार एवं गुण उनके सम्पूर्ण जीवन को सुन्दर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं।
एक बार किसी जिज्ञासु ने सन्त विनोबा भावे से पूछा कि बाबा हमें बतायें कि युवा कौन है और वृद्ध कौन? बाबा ने बताया कि जिस व्यक्ति की सीखने की पिपासा कभी समाप्त नहीं होती, वह युवा है और जो व्यक्ति सीखने के लिए उत्सुक ही नहीं रहता, वह वृद्ध है। सन्त विनोबा भावे के इस उत्तर से स्पष्ट है कि युवा और वृद्ध होने का तात्पर्य केवल आयु से नहीं है, उसका सीधा सम्बन्ध व्यक्ति की जिजीविषा, ऊर्जा और उत्साह से है। इन समस्त गुणों को अर्जित करने के लिए चाहिए निरन्तर सीख की भूख और भूख को शान्त करने के लिए सतत साधना।
सीखना क्या है? इस विषय का उत्तर शिक्षा में अन्तर्निहित है। सम्पूर्ण देश के कुल मानव संसाधन का 50-56 प्रतिशत से ज्यादा युवा वर्ग है। युवाओं के पास अपार शक्ति का भण्डार है। युवा देश की दिशा को परिवर्तित करने में सक्षम हैं। युवा शक्ति का सृजनात्मक एवं सकारात्मक कार्यों में सदुपयोग करने की आवश्यकता है। युवाओं का चिन्तन, मनन तथा क्रियान्वयन समाजोन्मुख हो, सामाजिक सरोकार से जुड़ाव रखने वाला बने, राष्ट्र निर्माण की भावना से ओत-प्रोत हो, यह कार्य विशेष रूप से शिक्षण संस्थाओं का है। शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है। बशर्ते शिक्षा संस्थायें अपनी भूमिका का निर्वहन प्रामाणिकता एवं ईमानदारी के साथ करने के लिए संकल्पित हों।
आज शिक्षक की भूमिका बहुत विकसित व विस्तृत फलक पर देखी-परखी जा रही है। उसे मात्र शिक्षक नहीं, प्रबंधक, प्रशासक और सफल नेतृत्वकर्ता के रूप में भी खुद को प्रमाणित करना है। परन्तु, यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि हर स्थिति में उसकी शिक्षकीय गरिमा और ज्ञान के प्रति अखंड अनुराग संरक्षित रहे। गुरु की चेतना के विस्तार में उसके ज्ञानानुराग की बड़ी भूमिका है। वास्तव में जिस प्रकार शिष्यों के लिए पात्रता की लम्बी सूची है, उसी प्रकार गुरु के लक्षणों का भी बहुत सरलीकरण संभव नहीं है। उस लक्षणों की फेहरिस्त भी बढ़ती ही जा रही है। एक ज़माना था जब गुरू अपने ज्ञान के विकास के लिए निरंतर अध्यवसाय किया करते थे। उन्हें हर विधा का कमोबेश ज्ञान होता था। शिष्य की मानसिकता, प्रवृत्ति, के साथ उसकी समझ और भविष्य के अनुरूप उसे सजग कर शिक्षित करना ध्येय होता था। वेद, शास्त्र और तंत्र विज्ञानों का ज्ञान रखने वाले ही गुरु या आचार्य कहलाते थे। इन्हीं आचार्यों की कृपा से अज्ञानी भी ज्ञानियों की पंक्ति में शुमार हो जाते थे।
शिक्षक न केवल विद्यार्थी के व्यक्तित्व का निर्माता, बल्कि राष्ट्र का निर्माता भी होता है। राष्ट्र का मूर्त रूप वहाँ के नागरिक होते हैं। किसी राष्ट्र के भावी नागरिकों को गढ़ने वाले शिक्षकों की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण है। वैसे तो शिक्षक का महत्त्व हमारे यहां अनादिकाल से रहा है। जहाँ से ज्ञान का प्रकाश मिले, वह स्रोत कम महत्त्वपूर्ण हो भी नहीं सकता। राष्ट्र को जगद्गुरु बनने का सौभाग्य भी ज्ञान के बल पर ही मिला होगा, जिसका महत्त्वपूर्ण आधार वहाँ के आदर्श शिक्षक या गुरु ही रहे होंगे।
प्रख्यात चिंतक डॉ.प्रणव पंड्या के अनुसार शिक्षक पद की इस गरिमा को हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन ने भी समझा था और यह भी कहा कि आलीशान भवन और साजसज्जा कोई भी महान् शिक्षक का स्थान नहीं ले सकता है। असामान्य प्रतिभा के धनी महान् साहित्यकार, दार्शनिक विचारक इस विभूति ने अपना जन्मदिन भी शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। डॉ० राधाकृष्णन का जीवन आदि से लेकर अंत तक भारतीय संस्कृति के सूत्र में ऐसे पिरोया हुआ था कि मात्र एक राजनेता के रूप में ही उन्होंने राष्ट्र की सेवा नहीं की, वरन् भारतीय ज्ञान के तत्त्वदर्शन को जन- जन व देश- विदेश तक पहुँचाने वाला उनका एक महान् विचारक और साहित्यकार वाला रूप और भी महत्त्वपूर्ण रहा। देश को गौरवान्वित करने वाली इस महान् आत्मा ने जीवन की महान् गरिमा के प्रति आकर्षित होकर अपना जन्म दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा करके शिक्षा की महत्ता व शिक्षक की गरिमा में एक और नया अध्याय जोड़ दिया।
शिक्षकों का चिंतन, चरित्र और व्यवहार विद्यार्थियों को काफी हद तक प्रभावित करता है। उनका आचरण और रहन- सहन आदर्शयुक्त हो और वे अपने कर्त्तव्य तथा दायित्व के प्रति सचेत हों, तो राष्ट्र के भावी कर्णधारों को सही दिशा देकर देश व समाज को श्रेष्ठ नर रत्न देने की महती भूमिका निबाह सकते हैं। शिक्षा तो एक प्रतिपादन है, शिक्षक उसका मूर्तरूप कहा जा सकता है। शिक्षक दूसरे अर्थों में गुरु भी है, अतः उस गुरु तत्त्व की गरिमा समझते हुए अपनी महत्ता को लघु नहीं करना चाहिए।
आज देश की दशा देखकर यह लगता है, काश! हमारे यहाँ फिर से शिवाजी और चन्द्रगुप्त जैसे नर रत्न गढ़े जाते। लेकिन आज तो दूर- दूर तक इसकी कोई संभावना नजर नहीं आती। वस्तुतः आखिर विद्यमान परिस्थितियों के लिए कौन उत्तरदायी है? किसे दोष दिया जाय? शिक्षक को अथवा शिक्षा तंत्र को? अब चूँकि शिक्षा तंत्र का कोई प्रत्यक्ष स्वरूप नहीं है। इसलिए संपूर्ण रोष उससे सम्बद्ध शिक्षकों व संचालकों के प्रति होता है, यह कुछ हद तक भले सही हो, लेकिन यह सत्य है कि वर्तमान परिस्थितियों के लिए शिक्षा तंत्र का विद्यमान विकृत स्वरूप जिम्मेदार नहीं है, जिसमें व्यक्ति, चरित्र निर्माण वाला पक्ष पूर्णतया तिरोहित हो गया। वर्तमान शिक्षा प्रणाली के फलस्वरूप डाक्टर्स, इंजीनियर्स, वैज्ञानिक, वास्तुकारों आदि की भीड़ भले ही जमा हो जाए, लेकिन मानवीय मूल्यों के अभाव में न श्रेष्ठ नागरिक की कल्पना की जा सकती है, और न ही सुन्दर राष्ट्र की।
शिक्षा का वर्तमान क्षेत्र और उद्देश्य लगभग रोजगार से संबंधित हो गये हैं,यही बड़ी परेशानी का विषय है। जो लोग यह कहते हैं कि यहां के प्रत्येक व्यक्ति को दो जून रोटी, पीने को शुद्ध जल मिल जाए और तन ढकने को कपड़ा हो, रहने को छाया हो, तब आगे राष्ट्र निर्माण और व्यक्ति निर्माण की बात सोचनी चाहिए। वे लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हमें अपनी नीतियाँ लागू किए अपना तंत्र विकसित किये आधी शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है, लेकिन हम अभी तक कितनों के लिए रोजी, रोटी पानी, कपड़ा, आवास आदि की व्यवस्था कर सके। यदि शिक्षा के साथ चरित्र और स्वावलम्बी बनने का शिक्षण जुड़ा होता, तो संभवतः व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जीवन कम तबाह होते। वर्तमान समय में व्यक्तिगत जीवन अभाव ग्रस्तता से तो राष्ट्रीय जीवन भ्रष्टाचार से पीड़ित है।
जो विद्या अमृत देने वाली थी जिनके बारे में महानता के बारे में कहा गया ‘सा विद्या या विमुक्तये’ वह विद्या आज अपने मूल स्वभाव से हटकर बंधन में जकड़ने वाले स्वरूप में कैसे पहुँच गई? आज शिक्षा पाकर भी मनुष्य मनुष्यता को क्यों नहीं प्राप्त कर रहा? इस ओर देश के शिक्षाविदों का ध्यान क्यों नहीं जाता? यदि समय रहते इन मूल प्रश्रों पर विचार नहीं किया गया और शिक्षा प्रणाली में आवश्यक सुधार नहीं हुआ, तो हालात और विषाक्त हो सकते हैं। सुसंस्कारिता व स्वावलम्बन जैसे तथ्य शिक्षा से अनिवार्य रूप से जुड़ने चाहिए। शिक्षा के साथ ही शिक्षक भी अपने दायित्व को गरिमापूर्ण ढंग से निबाहेंगे, तभी वांछित सफलता प्राप्त की जा सकती है। कभी कहीं वेतनमान, सुविधाओं संबंधी बात भले आये या कमी पड़े, लेकिन गुरु गरिमा को विस्मृत किये बिना, अपने गौरव का महत्त्व अनुभव करते हुए आगे बढ़ते चलें, क्योंकि प्रश्र मानवीय मूल्यों के संरक्षण और अभिवर्धन का है।
यह हमारे देश की विडम्बना है कि मनुष्य को गढ़ने वाले पेशे और पद का आकलन उस ढंग से नहीं किया जाता, जितना पदार्थों को आकृति देने वाले पेशों को। आज शिक्षक दिवस पर स्वीकारने योग्य तथ्य यही है कि शिक्षक संस्कृति के उस तंतु को जोड़े रखने के लिए आगे आयें, जिसके बल पर राष्ट्र को चरित्रवान् व्यक्तित्व दिये जा सके। स्वयं को मात्र ट्यूटर और टीचर की भूमिका में ही कैद न करें, तो अच्छा होगा और उस महान् आत्मा के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि भी यही होगी कि उनके विचारों को आत्मसात् करते हुए शिक्षक राष्ट्र की महत्ता समझें, जिसमें उन्होंने कहा था ‘अध्यापन वृत्ति को व्यापार ने निम्न स्तर पर नहीं उतारना चाहिए। यह तो एक मिशन है। अध्यापकों का कर्त्तव्य है कि वे अपने शिष्यों को लोकतंत्र के सच्चे नागरिक बनायें।’
बिमटेक के निदेशक हरिवंश चतुर्वेदी ने इस प्रसंग में कुछ दो टूक लेकिन पते की बातें कहीं हैं। मैं समझता हूँ कि शिक्षकों, प्राध्यापकों को इन इस बातों पर गौर करना चाहिए। वे लिखते हैं कि शिक्षकों के बारे में समाज की धारणा पिछले 50 वर्षों में कैसे बदल गई, यह हमारे साहित्य और फिल्मों में शिक्षक पात्रों के चरित्र-चित्रण में ही देखा जा सकता है। 20वीं सदी के महान लेखकों यथा प्रेमचंद, शरत चंद्र, बंकिम चंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर आदि ने अपनी रचनाओं में शिक्षकों को बहुत सकारात्मक रूप में चित्रित किया था। भारतीय फिल्में भी आजादी से पहले और बाद के कालखंडों में शिक्षकों को राष्ट्र निर्माता और एक आदर्श नायक के रूप में दिखाते रहे। फिल्म गंगा-जमुना में जब अभिनेता अभि भट्टाचार्य को इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के गाना स्कूली बच्चों के साथ गाता हुआ दिखाया गया, तो भारतीय युवाओं को एक बहुत मूल्यवान संदेश मिला। यह संदेश था कि शिक्षक समाज के लिए एक जिम्मेदार भावी पीढ़ी तैयार करते हैं, जो हमारे शाश्वत मूल्यों यथा-न्याय, समानता, भाईचारा और सामाजिक सद्भाव की रखवाली करती है।
हाल की फिल्मों में शिक्षकों को एक हास्यास्पद चरित्र के रूप में प्रदर्शित किया गया है। इन फिल्मों में शिक्षक की भूमिका हंसी पैदा करने के लिए है, क्योंकि वे एक सनकी, जिद्दी और तानाशाह के रूप में कहानी में प्रवेश करते हैं और विद्यार्थी-वर्ग की मानसिकता से बिल्कुल कटे हुए हैं। बॉलीवुड की फिल्मों थ्री इडियट्स और मुन्नाभाई एमबीबीएस में प्रिंसिपल को निश्चित रूप में एक नकारात्मक चरित्र के रूप में पेश किया गया था। किसी शिक्षक, प्रिंसिपल या कुलपति को सकारात्मक भूमिका में दिखाने वाली फिल्में अब नहीं बन रही हैं।
दरअसल शिक्षक दिवस को एक उत्सवधर्मी औपचारिकता न समझते हुए आज यह सोचने की जरूरत है कि शिक्षक होने के क्या मायने और सरोकार होते हैं? क्या हम शिक्षकों को उतना सम्मान देते हैं, जितना कि समाज में किसी आईएएस, आईपीएस, उद्योगपति, राजनेता, इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, पत्रकार और बैंक अधिकारी को दिया जाता है? जिस भारतीय समाज में 20वीं सदी में सर आशुतोष मुखर्जी, एस राधाकृष्णन, वी एस झा, के एन राज, पी सी महलनोबिस, रामास्वामी मुदलियार, वी के आर वी राव और डी टी लकड़वाला जैसे शिक्षकों की पूजा होती थी, उसी समाज की हमारी नई पीढ़ी क्रिकेट, फिल्म और टीवी के कलाकारों, एथलीटों और उद्यमियों को ही अपना आदर्श क्यों समझने लगी है? कहीं यह भारतीय समाज में शिक्षकों के प्रति कम हो रहे सम्मान का एक उदाहरण तो नहीं?
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लेखक, छत्तीसगढ़ राज्य अलंकरण से
सम्मानित प्रेरक वक्ता-प्रशिक्षक-स्रोतपुरुष
और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं।
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सम्प्रति – हिन्दी विभाग, शासकीय
दिग्विजय पीजी कालेज
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