Monday, November 25, 2024
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टेलीविज़न हमारे दिमाग में कचरा भर रहा है

मैं हाल ही में कुमाऊं क्षेत्र के दौरे पर गया था। वहां मुझे सेना से अवकाश प्राप्त 72 साल के एक व्यक्ति से बातचीत करने का मौका मिला। उनके सवालों ने दिमाग को झनझना दिया। उस व्यक्ति ने कहा, ‘अब लगता है सचमुच भारत बदल गया है, भारत के लोग बदल गए हैं। हम पहले सुनते थे कि पीढ़ियों में अंतर होता है, जिसे हमलोग जनेरेशन गैप कहते हैं। पहले विश्वास नहीं होता था कि पीढ़ियों में अंतर इतना ज्यादा होगा।’ मैं उनकी बात समझ नहीं पाया। मैंने पूछा कि इन सारे बातों का मतलब क्या है और आप क्यों ऐसा कह रहे हैं, तो उन्होंने कहा कि क्या हम भूल गए हैं कि हमारे ही पुरखों ने आजादी की लड़ाई में लाठियां खाईं थीं, जेल गए थे, गोली खाई थी? या हम यह भूल गए हैं कि हममें से किसी के परिवार के लोगों ने फांसी पर लटक कर अपनी जान दी थी? या हम यह भी भूल गए हैं कि हमारे ही बीच के लोगों ने आजाद हिंद फौज में काम किया था? मैं समझ नहीं पाया कि एक सिपाही जो सेना में 25-30 साल नौकरी कर रिटायर हुआ और जिसकी उम्र 72-73 साल है, वो इतने गुस्से में क्यों हैं।

मैंने उनसे कुछ देर और बातचीत की, तब मुझे पता चला कि हमारे सबसे बड़े हथियार टेलिविजन ने इस देश के गांव-गांव तक लोगों के पास जिस तरह की जानकारियां पहुंचाने का काम किया है, वो एक तरफ लोगों को एक मानसिकता में ले गई हैं, वहीं दूसरी तरफ संवेदनशील लोगों को दूसरी मानसिकता में ले गई हैं। हम और हमारा देश इसका फर्क नहीं करता कि सच क्या है और झूठ क्या है। पहले यह साफ था कि यह सच है या झूठ है। लेकिन जब से सोशल मीडिया ने राक्षस और शैतान के रूप में हमारे दिमाग पर कब्जा किया है, तब से सच और झूठ का फर्क मिट गया है, बल्कि अब तो यह हो गया है कि झूठ ही सच है। पहले हम सोचते थे कि पहला हमला अर्थव्यवस्था पर है, लेकिन नहीं, पहला हमला हमारे सोचने के पूरे तरीके पर है। अब हम स्वयं ही सेना हैं, स्वयं ही अपराधी हैं, स्वयं ही वकील हैं, स्वयं ही सुप्रीम कोर्ट हैं, फैसला देकर सजा देने वाले जल्लाद भी हैं।

उस व्यक्ति की बातों को लेकर सोचते हुए मुझे यही लगा कि अब अगर सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला देता है, तो उसे न मानने के पीछे हमारे पास एक आधार है, क्योंकि हमारे मन के विश्वास को उससे चोट पहुंचती है। सुप्रीम कोर्ट ने वो फैसला दे दिया, जो हमारे मन के अनुकूल नहीं है। उदाहरण के रूप में हम हाल की दो घटनाओं को ले सकते हैं। सबरीमाला मामले में भाजपा ने खुलेआम सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ स्टैंड लिया, वहीं दिवाली में पटाखा बजाने के समय निर्धारण के सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भी भाजपा नेताओं ने सरेआम अवहेलना की। ऐसी घटनाएं सीधे तौर पर दिखाती हैं, कि हम अराजक समाज की ओर बढ़ रहे हैं।

हम सोचने लगे कि वो व्यक्ति जिसे हम बहुत पढ़ा-लिखा नहीं मानते, वो यह बात समझ रहा है कि पीढ़ियों के बदलाव का मतलब उत्थान से पतन की ओर जाना नहीं होता, पर हम तो पतन की ओर जा रहे हैं। तब हमारे सामने रास्ता क्या रह जाता है, जब पतन की ओर ले जाने के लिए भी वे ही लोग नेतृत्व करें, जिन्हें हम उत्थान की ओर ले जाने या संपूर्ण रूप से बदलाव करने की जिम्मेदारियां देते हैं। हमारी जितनी महत्वपूर्ण संस्थाएं थीं, चाहे चुनाव आयोग हो, सीबीआई हो, रिजर्व बैंक हो या संसद की समितियां हों, इन सबके भीतर घुन पैदा हो गया है और वो घुन किसी और ने पैदा नहीं किया, उसे हमारे ही नेतृत्व ने पैदा किया, हमारे ही मार्गदर्शकों ने पैदा किया है। उस घुन को अगर हम विकास की निशानी मान लें, तो फिर विकास और विनाश का फर्क समाप्त हो गया न।

पीढ़ियों के अंतर से शायद उस व्यक्ति का मतलब यही था कि अब ऐसी ही पीढ़ी है, जो विनाश को विकास मान रही है। तभी उसे यह पता चलता है कि हमारे देश में इतना धन आया कि साढ़े चार साल में हम स्वर्ग हो गए, लेकिन हमारी कंपनियां दिवालिया होने वाली हैं। इसकी घोषणा खुद वित्त मंत्री करते हैं। रिजर्व बैंक के पास लगभग दस लाख करोड़ रुपए हैं। उसमें से साढ़े तीन लाख करोड़ रुपए अब सरकार अपने लिए चाहती है ताकि वो ये पैसा कमजोर अर्थव्यवस्था में डाल सके। सवाल ये भी है कि साढ़े चार साल के विकास के दावे के बाद भी अर्थव्यवस्था कमजोर क्यों हो गई? इसके लिए सरकार एक आपातकालीन धारा का इस्तेमाल करती है और रिजर्व बैंक से यह पैसा ले लेती है। यानि कि अब रिजर्व बैंक के 10 लाख करोड़ में से साढ़े तीन लाख करोड़ रुपए सरकार वहां डाल रही है, जहां से ये पैसा कुछ लोगों की जेब में चला जाएगा।

तब क्या इसका मतलब ये समझा जाए कि हमारा देश अफ्रीकी देशों की अर्थव्यवस्था के समकक्ष होने जा रहा है? खैर, सवालों की श्रृंखला बहुत लंबी है, पर जब उन सवालों को उठाते हैं और उसपर सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया देखते हैं, तो वो प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि ऐसे सवाल उठाने वाले ही कम दिमाग के हैं, या देश को आगे न ले जाने के जिम्मेदार हैं। कुछ भी हो, हम सारे सवालों को हिंदू-मुसलमान की कसौटी पर कस दें।

विकास होगा, नदी बहेगी, सूरज की रौशनी आएगी तो उसका फायदा इस देश के सभी लोगों को होगा। लेकिन क्या, एक वर्ग को फायदा न हो इसके लिए विकास नहीं होगा। अब परेशानी ये है कि हम जानते समझते हैं, अगर हमारे पास जरा भी दिमाग है, हम अच्छी तरह देख लेते हैं कि सार्वजनिक रूप से क्या सच बोला जा रहा है क्या झूठ बोला जा रहा है। पर अगर वो एक ऐसी दिशा का सच है जो झूठ से भी ज्यादा खतरनाक है और हम उसी को सच बता रहे हैं तो सचमुच मान लेना चाहिए कि पीढ़ियों का अंतर नहीं पूरी की पूरी पीढ़ी बदल गई है। जो लोग आजादी की लड़ाई लड़े थे, जिन्होंने आजादी के बाद खुशहाली का सपना देखा था वो सारे लोग शायद बुद्धिमान नहीं थे, वो इतने ज्यादा भावुक थे जिन्हें हम महान मूर्ख की संज्ञा आज दे सकते हैं। क्योंकि आज उनके सपनों का, उनकी लड़ाई का, उनकी बलिदान का कोई मूल्य आज की पीढ़ी के सामने नहीं है।

पहले मैं सोशल मीडिया पर उन वॉयस क्लिप्स को बड़े चाव से सुनता था जिन वॉयस क्लिप्स में ये बताया जाता था कि सुषमा जी, अरुण जेटली जी, राजनाथ जी और खुद प्रधानमंत्री जी साढ़े चार साल पहले हर समस्या के पहले क्या-क्या कहते थे और मुझे लगता था कि वो खुद जब इन्हें सुनेंगे, तो उन्हें थोड़ा सा संकोच होगा और वो अपने को सुधारने की कोशिश करेंगे। पर अब जब वो क्लिप सोशल मीडिया पर देखने-सुनने को मिलती हैं, तो मैं उसे एक क्षण में डिलीट कर देता हूं। क्योंकि मुझे लगता है कि नहीं, शायद सही वो है जो आज हो रहा है। सही वो नहीं है जो उस समय उन्होंने कहा था। उस समय उन्होंने जो कहा था कि वो शायद हमें बेवकूफ बनाने के लिए कहना जरूरी था। आज जो वो कर रहे हैं वो इस देश को तबाह करने के लिए जरूरी है। तो सत्य यही है जो आज हो रहा है और चिंता तब होती है जब पूरा समाज और वो समाज जो सोशल मीडिया पर हमें दिखाई देता है, समाज वो जो अखबारों में हमें दिखाई देता है, समाज वो जो टेलिविजन की बहसों में दिखाई देता है। हमें लगता है कि यह समाज ही सही है। कुमाऊं क्षेत्र के उस अवकास प्राप्त सिपाही जैसे लोग चाहे कितनी भी चिंता करें सत्य को चाहे जितना पकड़ना चाहे वो गलत है। सच्चाई ये है जो आज हो रही है। और तब हमें लगता है कि आगे आने वाला चुनाव सचमुच एक ऐसा चुनाव होगा जो सारे पुराने मनीषियों के एक वाक्य की सच्चाई को सामने ला देगा।

जितने पुराने मनीषी हैं, ऋषि हैं, मुनि हैं, कार्ल मार्क्स जैसे विद्वान थे, यहां तक की दीन दयाल उपाध्याय थे इन सबका यह मानना था कि जनता सर्वशक्तिमान है, जनता के पास समझने की शक्ति है, जनता हर चीज का सही फैसला करती है। इसी का निर्णय होना है कि यह सूत्र वाक्य सही था या गलत था। जनता की समझ में कुछ आ रहा है या नहीं आ रहा है। और तब ये समझ में आता है कि सच्चाई तो वो भी थी जब इस दुनिया के एक समझदार आदमी ने कहा अगर एक झूठ को सौ बार दोहराओ तो वो सच मान लिया जाता है। उस महान व्यक्ति का नाम गोबेल्स था। तो क्या आज हमारा समाज इसी सिद्धांत के ऊपर चल रहा है। इसी का फैसला इस चुनाव में होना है। अगर इस चुनाव में फैसला होता है तभी पता चलेगा कि हमारी पीढ़ी, हमारा समाज विकास की तरफ मुड़ा है या विनाश की तरफ मुड़ा है। मैं विकास और विनाश के शास्त्रीय शब्दार्थ की बात कर रहा हूं। आज की बात नहीं कर रहा हूं। अंत में एक कहानी सुनाकर अपनी बात खत्म करता हूं।

एक छोटा विद्यार्थी अपने कक्षा में गया और थोड़ा खुश था और उसने कहा कि मास्टर जी आज मेरी बकरी ने अंडा दिया है। मास्टर जी ने घूर कर देखा। उसने फिर कहा कि मास्टर जी आज मेरी बकरी ने दो अंडे दिए हैं। मास्टर ने कहा पूछा कि पागल हो गए हो। बकरी कहीं अंडा देती है। अंडा तो मुर्गी देती है। उस बच्चे ने कहा, मास्टर जी मैंने अपनी मुर्गी का नाम बकरी रखा है। क्या आपको कोई ऐतराज है? और तब मैं सोचने लगा आज बहुत कुछ ऐसा ही हो रहा है। और सोच समझ कर, जान बूझ कर हो रहा है। इसी का निर्णय होना है कि हमारी सरकार, हमारा समाज जो कर रहा है उसका उसने सही नामकरण किया है या नाम बदलकर वो लोगों के दिमाग से खेल रहे हैं। और जो लोग ऐसा कर रहे हैं उसके पीछे इसी देश के लोग हैं या बाहर के कुछ दिमाग है जो सारी दुनिया को अपने कब्जे में करने का एजेंडा बनाकर हिन्दुस्तान के दिमाग को प्रदूषित कर रहे हैं।

(लेखक चौथी दुनिया के संपादक हैं)

साभार- http://www.samachar4media.com से

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