युद्ध फिल्मों के बहाने दर्शकों में देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम की उदात्त भावनाओं की हिलोरें कितनी ऊंची उठती हैं रुपहला पर्दा इसकी गवाही देता रहा है. पिछले दिनों भारतीय वायुसेना के पराक्रम की मिसाल बनी एयर स्ट्राइक और विंग कमांडर अभिनंदन की सुरक्षित वापसी से देश भर में उठा राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान का ज्वार अभी पूरी तरह थमा भी नहीं था कि होली पर अक्षय कुमार की ‘केसरी’ ने जन मानस को सैन्य इतिहास की प्रमुख लड़ाइयों में गिनी जाने वाली सारागढ़ी की शौर्यगाथा के केसरिया रंग में रंग दिया.
फिल्म ‘केसरी’ में ब्रिटिश आर्मी के युद्ध कौशल से ज्यादा थर्राता है सारागढ़ी किले पर तैनात 36 सिख रेजिमेंट के 21 सिपाहियों का नेतृत्व करने वाले हवलदार ईशरसिंह के बुलंद हौसले को उजागर करते ओजस्वी संवादों का गोला बारूद. यही नहीं खुद को हवलदार इशरसिंह के किरदार में ढालने के लिये अक्षय कुमार की प्रतिबद्धता, समर्पण और गेटअप भी फिल्म का मुख्य आकर्षण है. हालाँकि फिल्म के प्रचार अभियान में अक्षय की केसरिया पगड़ी पर सजे जिस धारदार रिंगनुमा घातक हथियार का बढ़चढ़कर उलेख किया जाता रहा उसका कोई रोमांचक सीन फिल्म में नज़र नहीं आता.
‘केसरी’ सारागढ़ी की लड़ाई पर बनी अकेली फिल्म नहीं है. दो वर्ष पूर्व जब धर्मा प्रोडक्शन के लिये निर्माता करण जौहर ने इस फिल्म को बनाने की घोषणा की थी तब सलमान खान भी निर्माता के बतौर इससे जुड़े थे. बाद में उन्होंने इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट से अपना हाथ खींच लिया. अजय देवगण ने भी इसी विषय पर फिल्म की इच्छा जताई थी. ‘गोल्ड’ के रिलीज़ होने के समय खुद अक्षय भी ‘केसरी’ के अटकने से जुड़े सवालों से कन्नी काटते रहे. इधर रणदीप हुडा को लेकर निर्देशक राजकुमार संतोषी ने ‘इक्कीस: बैटल ऑफ़ सारागढ़ी’ बनाई है पर अब बॉक्स ऑफिस पर ‘केसरी’ की धूम के बाद क्या दर्शक एक बार फिर रुपहले परदे पर सारागढ़ी की सिताराविहीन लड़ाई देखने आयेंगे इसमें फिलहाल संदेह है. इसी विषय पर केन्द्रित ‘इक्कीस सरफ़रोश’ नामक टेलीविजन सीरियल भी प्रसारित हो चुका है.
फिल्म की कहानी पराधीन भारत में 1897 के समय की है जब अफगानिस्तान से लगे सरहदी इलाकों में गुलिस्तान, लोखार्ट और सारागढ़ी के किलों पर सुरक्षा के लिये तैनात ब्रिटिश इंडियन आर्मी आक्रमणकारियों के अलग अलग समूहों से जूझ रही थी. आततायिओं के चंगुल से एक महिला को बचाने के प्रयास में वरिष्ठ अधिकारियों की नाराजगी मोल लेने वाले हवलदार ईशरसिंह (अक्षय कुमार) को सारागढ़ी किले पर तैनात 36 सिख रेजिमेंट की चौकी का इंचार्ज बनाकर भेज दिया जाता है. 21 जवान और एक खानसामे के साथ सारागढ़ी में तैनात ईशरसिंह को तगड़ी चुनौती उस समय मिलती है जब उस पर 10 हज़ार आक्रमणकारियों को रोकने की जिम्मेदारी आती है. बुलंद हौसले के साथ प्राणोत्सर्ग के लिये तैयार ईशरसिंह ब्रिटिश आर्मी की खाकी पगड़ी के स्थान पर केसरी पगड़ी धारण कर जंग के मैदान में कूद पड़ता है. एक ही दिन में तीन किले फतह करने की आक्रमणकारियों की योजना धरी रह जाती है.
मध्यांतर तक फिल्म थोड़ी बोझिल और उबाऊ मालूम पड़ती है क्योंकि लेखक के रूप में गिरीश कोहली कहानी को रोचक घटनाक्रमों का विस्तार नहीं दे पाए हैं. लेकिन उत्तरार्ध में फिल्म गति पकड़ती है और दर्शकों को बांधे रखने में कामयाब होती है. निर्देशक अनुराग सिंह ने फिल्म की भव्य प्रोडक्शन वैल्यू के साथ न्याय करते हुए लोकेशंस का पूरा लाभ उठाया है. मुर्गों की लड़ाई, आततायिओं से बेबस महिला की रक्षा, मस्जिद निर्माण में सहयोग, खानसामे को जंग में पानी पिलाने की जिम्मेदारी, दुश्मन सेना को मूत्र विसर्जन से ललकारते सिपाही का जोश और आग में धधकती लाल तलवार दुश्मन के सीने में घुसाने का दृश्य और शोलों में घिरे फौजी का भयानक विस्फोट वाला क्लाइमेक्स कमाल का है.
‘केसरी’ में अक्षय कुमार अपने बेहतरीन फॉर्म में हैं. परिणिति चोपड़ा की उपस्थिति नाम मात्र की है. छायांकन, संपादन, साउंड डिजाईन, पार्श्व संगीत सहित अन्य तकनीकी पक्ष स्तरीय हैं. गीत संगीत वातावरण उभारने में सहायक हैं. “मिटटी में मिल जांवा” गीत अत्यंत मार्मिक बन पड़ा है. निर्देशक के बतौर ‘केसरी’ अनुराग सिंह की दूसरी फिल्म है. निर्माता निर्देशक राज कँवर के सहायक रहे अनुराग को पहली फिल्म निर्देशित करने का मौका भी उन्होंने ही दिया था ‘रकीब’ में. लेकिन जिमी शेरगिल, तनुश्री दत्ता, शर्मन जोशी, राहुल खन्ना अभिनीत यह फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हो जाने से जालंधर में जन्मे अनुराग ने हिन्दी के बजाय पंजाबी फिल्मों की ओर अपना रुख किया. दिलजीत दोसांझ के साथ पांच पंजाबी हिट फ़िल्में बनाकर अनुराग असफल निर्देशक की छवि से छुटकारा पा चुके हैं. अब 12 साल बाद ‘केसरी’ जैसी बड़े बजट की फिल्म की आशातीत ओपनिंग से हिन्दी फिल्मों में उनकी पूछ परख पुनः बढ़ेगी.
फिल्म के संवाद कथानक को उभारते हैं – मेरे हिस्से का पानी है पियूं या फेंकूं तुझे क्या.. हमारे कन्धों पर ये किले खड़े हैं और वो हमे डरपोक बताते हैं.. चोट पड़ने पर ही पत्थर की मजबूती का पता चलता है.. जंग बिना हथियारों के नहीं लड़ी जाती, बहादुरी और पागलपन में फर्क होता है.. आप बार बार अल्लाह को बीच में क्यों ले आते हैं.. हरमिंदर साहब का नींव का पत्थर किसने रखा था यह याद कर लेना.. वो हमारी मदद के लिये नहीं आ सकते इसलिये किला छोड़कर भागने का हुक्म दिया है.. पहले हम सोच लें कि हम लड़ किसके लिये रहे हैं.. हम सिर्फ अपनी जान ही नहीं बहुत कुछ दाव पर लगा रहे हैं.. उन्हें बता देंगे कि हिंदुस्तान की मिटटी से डरपोक पैदा नहीं होते.. केसरी रंग शहीदी का रंग है.. आज यहाँ 21 आजाद सिख जंग लड़ेंगे भी और मरेंगे भी.. लड़ने से सिर्फ दुश्मन ख़त्म होता है, पानी पिलाने से दुश्मनी.. जीत तो हम तभी गए थे जब लड़ने का फैसला किया था.. तुम्हारी पगड़ी को कोई हाथ नहीं लगायेगा ये खान मसूद का वादा है.. हम जंग और तारीख दोनों हार चुके हैं, तुम्हे जो करना है करो पर किसी सिख की पगड़ी मत उतारना..
सारागढ़ी की लड़ाई और 21 जवानों की शहादत की याद में आज भी ब्रिटिश सेना हर साल 12 सितम्बर को सारागढ़ी दिवस मनाती है. हमारे यहाँ भी सिख रेजिमेंट की सभी इकाइयों में सारागढ़ी दिवस मनाया जाता है. अभी दो वर्ष पूर्व पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने सारागढ़ी दिवस पर राज्य में सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की है.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व फिल्म जगत से जुड़े विषयों पर लिखते हैं
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