विचार करें तो किसी संज्ञा-सर्वनाम के भीतर पहले से मौजूद सद्गुण, कौशल तथा वृति को उभारना… विकसित करना ही उसका असल सशक्तिकरण है… असली सबलता है। कहने का मकसद यह है कि यदि किसी अबला को सबला बनना अथवा बनाना हो, तो प्रयास उसके भीतर अंतनिर्हित सद्गुणों और मौलिक शक्तियों को उभारने की दिशा में होना चाहिए, न कि किसी अन्य दिशा में। निस्संदेह, मानसिक तथा नैतिक सबलता के बिना, किसी अन्य सबलता का कोई अर्थ नहीं होता। अतः यह ख्याल तो हम रखें ही।
सशक्तिकरण के आइने में नारी शक्तियां
सशक्तिकरण के उक्त आइने में देखें तो श्री, वाणी, स्मृति, मेधा, धैर्य, क्षमा और आस्था – नारी को प्रकृति प्रदत सप्त शक्तियां हैं। रचना, नारी को प्रकृति प्रदत विशेष दृष्टि व वृति है। प्रत्येक रचना को अत्यंत धीरज से रचने का गुण तथा पोषने का कौशल, प्रत्येक नारी को जन्म से हासिल होता है। बारीक उंगलियां, नारी को बारीक काम करने में पुरुषों से अधिक महारत देती है। पतला स्वर, नारी की आवाज़ को कर्णप्रिय बनाता है। ममता और कोमलता, प्रत्येक नारी के स्वभाव हैं। स्वभाव यानी स्वतः निहित भाव। ये दोनो भाव, नारी को कलात्मक सौंदर्य की दृष्टि देते हैं।
स्पष्ट है कि किसी भी कलात्मक हुनर, प्रदर्शन अथवा कृति का सर्वश्रेष्ठ हासिल करने के लिए रचना व सौंदर्य की जिस वृति व दृष्टि, धीरज के जिस गुण तथा बारीकी के जिस हुनर की आवश्यकता होती है, नारी को यह सभी प्रकृति प्रदत है। यही कारण है कि अनपढ़ नारियां भी अपनी कल्पना से अल्पना के ऐसे सुंदर नमूने गढ़ डालती हैं, जिन्हे बनाने में किसी पुरुष को दिमाग पर अतिरिक्त जोर डालना पडे़। यही कारण है कि नारी के बिना किसी मकान की आंतरिक सज्जा के सुरुचिपूर्ण होने की कल्पना भी सहज संभव नहीं। यही कारण है कि गाना-गुनगुनाना, साधारण स्तर का नृत्य तथा सिलाई, बुनाई, कढ़ाई जैसे कौशल को प्रत्येक नारी बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण केन्द्र गये भी हासिल कर लेती है। पाक कला, भारतीय नारियोें को परम्परा से हासिल विशेष कला है।
परम्परागत कलाओं के बूते सशक्त नारियां
गौर कीजिए कि शिल्प, गायन व नृत्य की अनेक परम्परागत विधाओं का विकास नारी में प्राकृतिक रूप से मौजूद ऐसे कौशल व गुणों के कारण ही हुआ। भरतनाट्यम, ओडिसी, गणगौर, घूमर, तेरहताली, भवाई, लावणी, रुऊफ और गिद्दा जैसी प्रख्यात नृत्य शैलियों का उदय तो नारी पात्रों के पैरों पर थिरक कर ही हुआ। आदरणीया सोनल मानसिंह, मल्लिका साराभाई, रुक्मिणी देवी अरुंडेल, शोभना नारायण, यामिनी कृष्णमूर्ति, वैजयंतीमाला, सितारा देवी, प्रेरणा श्रीमाली, मालविका सरकार, …एक तरफ से गिनती करना शुरु कीजिए, भारत में ख्यातिनाम नृत्यागनाओं की सूची बेहद लंबी है। स्वर साम्राज्ञी लता मंगेश्कर, आशा भोसले, श्रेया घोषाल, अनुराधा पौड़वाल, फातिमा, चित्रा सिंह, के. एस. चित्रा, नाजिया हसन, सुमन चटर्जी… फिल्मी गायकी के भारत में भी सशक्त महिला स्वरों की कमी नहीं। लोकगायकी के बल पर देशव्यापी लोकप्रियता हासिल करने वालों में अल्लाह जिलाई बाई, मालिनी अवस्थी और इला अरुण से लेकर शारदा सिन्हा जैसी नारी शख्सियतें स्वयमेव सशक्तिकरण की प्रमाण हैं।
दुनिया के सौ सर्वाधिक मशहूर चित्रकारों की वर्तमान सूची देखें, तो इसमें 40 महिला चित्रकार तो अकेले अमेरिका की हैं। इस सूची में शामिल मैक्सिको की फरीदा काहलो, फ्रांस की बर्थ मोरिसट, कनाडा की जाॅनी मिशल, टिन्सल कोरे, हेलेन फ्रेंकनेथलर के अलावा भारत, आॅस्ट्रिया, वियाना, यूनाइटेड किंग्डम आदि देशों की महिला चित्रकारों की भी गिनती कर लें तो आप दावे से कह सकते हैं कि चित्रकारी से शोहरत पाने वालों में नारी, पुरुषों से आगे हैं। अमृता शेरगिल, मुंबई की सुचित्रा कृष्णमूर्ति और मधुबनी पेंटिंग की चित्रकार बौवा देवी जैसे नामों को छोड़ दें, तो मशहूर चित्रकारों की भारतीय दुनिया में नारी संख्या शायद कम इसलिए है कि भारत में पेटिंग को प्रतिष्ठित प्रोफेशन के रूप में उभारने की उतनी कोशिश नहीं हुईं, जितनी कई अन्य देशों में। मधुबनी स्टेशन पर सात हज़ार दो सौ वर्ग फीट में बनाई मधुबनी पेंटिंग को बनाने वाले 140 कलाकारों की टोली में शामिल अनुपम कुमारी ने कहा कि पहले कभी ऐसा मौका नहीं मिला।
खैर, उपलब्धियों की ताज़ा दुनिया देखें तो लता मंगेश्कर ने जहां गायन के जरिए, तो वहीं नेहा किरपाल ने इंडिया आर्ट फेयर की स्थापना कर चित्रकला को न सिर्फ नया आयाम दिया, बल्कि भारत की दस सबसे सशक्त महिलाओं में अपना नाम दर्ज कराया है। इंडियन आयडल जैसी कठिन प्रतियोगिता की पहली महिला विजेता – अगरतला की सुरभि देबवबर्मा की खनकती आवाज़ को आप भूले न होंगे। यह सुरभि का ही बूता था कि चार मिनट, 30 सेकेण्ड अवधि की उतार-चढ़ाव भरी एक निजी टेलीविजन प्रस्तुति (18 मार्च) के जरिये वह ‘गिन्नीज वर्ल्ड बुक आॅफ रिकाॅर्डस’ में अपना कीर्तिमान दर्ज कराने में सफल रही है। सुरभि ने तीन मिनट, 53 सेकेण्ड लंबी प्रस्तुति देने वाले न्यूज़ीलैण्ड के रेबेका राइट का रिकाॅर्ड तोड़ दिखाया। एक अन्य शख्सियत मानुषी छिल्लर का नाम आपके जेहन में अभी एकदम ताजा होगा। मानुषी छिल्लर को 18 नवंबर, 2017 की शाम चीन के समुद्रतटीय सान्या शहर में ‘मिस वल्र्ड 2017’ के खिताब से नवाजी गई। गौर करने की बात है कि इस खिताब को हासिल कराने में मानुषी के भीतर मौजूद एक कवि, एक चित्रकार और एक कुचीपुड़ी नृत्यांगना की सबसे अह्म भूमिका रही।
भारत का शायद ही कोई इलाका होगा, जहां शादी-ब्याह जैसे घरेलु उत्सव बिना महिला संगीत के सम्पन्न होते हों। गाना-गुनगुनाना हर नारी को विशेष प्रिय होता है। किंतु संत हिरदा नगर, भोपाल की पूर्णिमा चतुर्वेदी ने शोहरत इसलिए पाई है, चूंकि घर में गाते-गाते उनका मन विलुप्त होती कला की बढ़ावा देने में रमने लगा। पूर्णिमा ने संगीत व कला में अपने तथा दूसरों के सशक्तिकरण की राह देख ली। लुप्त होते लोकगीतों को बचाते-बचाते वह निमाड़ी लोकशैली के चित्र बनाने तथा सिखाने में लग गईं। आदिवासी लोककला परिषद, महेश्वर में प्रशिक्षण देती हैं। निमाड़ी लोकनृत्य की विशेष प्रस्तुति के लिए गत् तीन वर्षों से उन्हे भोपाल के हिंदी भवन में विशेष आमंत्रित किया जाता है। प्रशिक्षण देने वह देश की राजधानी दिल्ली तक जाती हैं।
एक सड़क दुर्घटना और उसके पश्चात् गैंगरीन की वजह से अपना एक पैर गंवाने वाली कन्नूर की सुधा चन्द्रन कभी अशक्त मान ली गई थी। सुधा ने भरतनाट्यम के घुघरुओं को अपने जयपुरी पैर में बांधकर यह सिद्ध कर दिखाया है कि कला भी नारी सशक्तिकरण का मज़बूत माध्यम हो सकती है। सुधा चन्द्रन आज टेलीविज़न और फिल्म की दुनिया की अभिनेत्री भी हैं। यह प्रमाण है कि नारियों के सशक्तिकरण को क्रेच, गैस चूल्हा, हेल्प लाइन अथवा वन स्टाॅप सेंटर से ज्यादा, उनके भीतर निहित शक्ति, गुण व हुनर का आकाश देने की दरकार है।
शासकीय योजनाओं में विशेष तवज्जो की दरकार
इस विशेष संदर्भ व समय के आइने में उठता मुख्य सवाल यही है कि यदि नृत्य, गायन व चित्रकारी की बल पर इतनी सारी नारियां देश-दुनिया की सशक्त हस्ताक्षर बन सकती हैं; तो कला की इन विधाओं को हम नारी सशक्तिकरण की शासकीय योजनाओं में विशेष तवज्जो क्यों नहीं दे सकते ?
21 जनवरी, 2015 को भारत सरकार द्वारा शुरु की गई ‘हृदय’ तो विशेष तौर पर विरासत विकास एवम् संवर्द्धन की ही योजना है। क्या ‘हृदय’ योजना के तहत् नृत्य, गायन, चित्रकारी तथा हस्तशिल्प की परम्परागत कलाओं के विकास व संवर्द्धन का हेतु नारियों को विशेष अवसर दिए गये ? हमारे आदिवासी समुदाय गवाह हैं कि भारत के पास नृत्य, गायन, चित्रकारी की एक भरी-पूरी सांस्कृतिक विरासत है। इसी कारण भारत के समाज में पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये विधायें विकसित हुईं; बावज़ूद इसके क्या आदिवासी युवाओं के कौशल विकास हेतु नियोजित ‘रोशनी’ योजना में उक्त कलाओं को जगह दी गई ? विशेषकर नक्सल प्रभावित 24 इलाकों के लिए सात जून, 2013 को शुरु की गई ’रोशनी’ योजना में प्रति वर्ष 5000 युवाओं को प्रशिक्षण व रोजगार का लक्ष्य रखा गया था। निर्देश था कि 50 प्रतिशत प्रतिभागी युवतियां हों। क्या युवतियों ने अपनी परम्परागत कलाओं को अपने रोज़गार का आधार बनाने की मांग की ? हैदराबाद के एक स्वयं सहायता समूह को मैने अपनी परम्परागत् पाक कला के बूते सम्मान और आर्थिक समृद्धि की कई सीढ़िया चढ़ते देखा। पाक कला के लिए आज होटल तथा खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में व्यवसाय से लेकर नौकरियों के शानदार मौके मौजूद हैं। ऐसे में पाक कला को नारी सशक्तिकरण का आधार क्यों नहीं होना चाहिए ? कोई बताये।
मेरी राय है कि सर्व शिक्षा अभियान, ट्राइसम, राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना तथा कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना जैसे कई मौके हमारे गांवों के पास हैं। हमें चाहिए कि हम इन मौकों को कला के ज़रिए नारी सशक्तिकरण के मंच में तब्दील करने की संभावनाओं की तलाश शुरु करें। ‘स्वाधार घर योजना’ विशेष तौर पर वेश्यावृति से मुक्त महिलाओं, रिहा कैदियों, विधवाओं, तस्करी से पीड़ित, मानसिक विकलांग, बेसहारा तथा प्राकृतिक आपदा पीड़ित महिलाओं को शारीरिक व मानसिक मजबूती देने के लिए वर्ष 2001-2002 में शुरु की गई थी। निस्संदेह, बेसहारा को घर तो चाहिए, लेकिन यदि किसी बेसहारा के हुनर को एक बार ठीक से सहारा दे दिया जाये, तो उसे फिर कभी अपनी आजीविका के लिए किसी सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हस्तशिल्प की भारतीय दुनिया इसका विशेष प्रमाण हैं।
हस्तशिल्प में मौजू़द अपार संभावनायें
कश्मीर की आरी, कशीदाकारी व स्वर्णकारी, चंबा के रुमाल, पंजाब की फुलकारी, अलीगढ़ की फूल-पत्ती, मुरादाबाद की पीतल उद्योग, खुर्जा का पाॅट्री उद्योग, लखनऊ की चिकनकारी, मऊ की तांत साड़ी, बनारस का जरी वाली साड़ियां, चित्रकूट के काठ-खिलौने, अंबाला-पानीपत की खादी, राजस्थान-गुजरात की बंधेज, राबरी व शीशाकारी, जयपुरी गोटा, जैसलमेर का छापा उद्योग, नाथद्वारा की पिचवाई, उड़ीसा की पिपली, आंध्र प्रदेश की बंजारा एम्ब्राडयरी, कांचीपुरम साड़ियां, तमिलनाडु की टोडा, बंगाल का कांठा, पूर्वोत्तर का रेशम शिल्प और मणिपुर की शामिलामी…. भारत भर में कहीं भी निगाह दौड़ाइये; नारी उड़ान के लिए परम्परागत हस्तशिल्प का आसमान खुला पड़ा है।
सुखद आंकड़ा है कि भारत हस्तशिल्प निर्यात कमोबेश हर वर्ष बढ़ रहा है। 1986-87 में भारत मात्र 386.7 करोड़ रुपये का हस्तशिल्प निर्यात करता था। वर्ष 2017-18 में भारत 24392.39 करोड़ रुपये का हस्तशिल्प निर्यातक बन चुका है। शेष 2000 करोड़ का भारतीय हस्तशिल्प उत्पाद भारत के अपने बाज़ार में ही खप जाता है। एक्सिम बैंक के अध्ययनानुसार, भारत में हस्तशिल्प इकाइयों की संख्या बढ़कर आज 12.66 लाख हो चुकी है। इनमें करीब 67,000 इकाइयां विशुद्ध रूप से निर्यात उत्पादक इकाइयां हैं। कुल इकाइयों के कारण 41.03 लाख कारीगरों को रोज़गार है। इनमें सबसे अधिक यानी करीब 50.57 प्रतिशत इकाइयां तथा 54.35 प्रतिशत रोज़गार, टैक्सटाइल हस्तशिल्प उद्योग से संबद्ध है।
गौर कीजिए कि बावजूद इस बढ़ोत्तरी के हस्तशिल्प उत्पादों के कुल वैश्विक कारोबार में भारतीय उत्पादों की भागीदारी अभी भी मात्र दो प्रतिशत ही है। इसलिए संभावनायें अपार हैं। संभावनाओं को सच में बदलने के लिए हस्तशिल्प निर्यात संवर्धन परिषद है। तकनीकी ज्ञान, उन्नयन तथा समन्वय के इसके प्रयास हैं। केन्द्र तथा राज्य सरकारों की दस्तकार सशक्तिकरण संबंधी कार्यक्रम हैं। कहना न होगा कि परम्परागत शिल्प और कलाओं से नारी नहीं, बल्कि सर्व सबलीकरण की संभावनायें मौजूद हैं। ज़रूरत है तो सिर्फ हथेलियों को आगे बढ़ाकर इन संभावनाओं से अपनी झोली भर लेने की।
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उपलेख – एक
शिल्प से नारी सबलीकरण का अनुपम प्रयोग
मैनचेस्टर आॅफ ईस्ट: सुआलकूची
भारतीय नारियों का दुर्बलीकरण, सामािजक ढांचे के गलत डिज़ायन का दुष्परिणाम है। कुम्हार, लुहार, बढ़ई, दर्जी, मोची आदि हुनरमंद कारीगर जातियां पिछड़ी कही र्गइं। गंदगी फैलाने वालों को ऊंचा तथा सफाई करने वालों को नीचा वर्ग माना गया। समाज को पुरुष सत्तात्मक बनाकर, नारी को दोयम दर्जा दिया गया। ये सब समाज के ग़ल़त डिज़ायन के कारण ही हुआ है। लिहाजा, भारत में नारियों का सबलीकरण तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि सामाजिक डिज़ायन में परिवर्तन न किया जाये। हमारी परम्परागत कलायें, भारत के सामाज़िक डिज़ायन में परिवर्तन का प्रभावी माध्यम कैसे बन सकती हैं; असम का सुआलकूची इसका अनुपम उदाहरण है।
सुआलकूची – असम की राजधानी गुवाहाटी से 32 कि.मी. दूर स्थित ज़िला कामरूप के दो राजस्व गांव – सुआलकूची और बरमूंडी सुआलकूची का गठजोड़ है। 10वीं-11वीं शताब्दी के पाल शासक राजा धर्मपाल ने शिल्प को बढ़ावा देने के लिए शिल्पी समुदाय को तांतीकूची से लाकर सुआलकूची में बसाया था। इस तरह बसा सुआलकूची, मूल रूप से एक शिल्प ग्राम ही है। कताई-बुनाई, मिट्टी बर्तन, तेल कोल्हू, स्वर्ण कारीगरी आधारित लघु उद्योग इसकी खासियत रहे हैं। राजा स्वर्गदेव प्रताप सिंह ( 1603-1641) शासनकाल में महान प्रशासक – मोमई तामुली बारबरुआ द्वारा सुआलकूची को बाकायदा एक रेशम बुनाई गांव के रूप में प्रतिष्ठित करने का काम शुरु किया गया। राजसी उपयोग के वस्त्र निर्माण का काम, मुख्य रूप से सुआलकूची का जिम्मा हो गया; वह भी सिर्फ तांती समुदाय की महिलाओं का ही जिम्मा। प्रारम्भ में तांती समुदाय की महिलाएं हीं बुनकर थी। कालांतर में कारोबार में इतनी वृद्धि हुई कि पुरुष भी बुनकर बनने को लालायित हो उठे। 1930 के बाद के वर्षों में मछुआरा से लेकर ब्राह्मण समुदाय तक बुनाई के पेशे में शामिल हो गये। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बढ़ी मांग के काल में लगभग पूरा सुआलकूची गांव ही बुनकर में तब्दील हो गया। सुआलकूची की 92 प्रतिशत आबादी आज गैर कृषि कार्य में है। इस 92 प्रतिशत में से 95 प्रतिशत आबादी हैण्डलूम और मूंगा उत्पादक गतिविधियों में व्यस्त है। इस तरह अब बुनाई, सुआलकूची का पेशा नहीं, परम्परा है।
सामाजिक के इस बदले डिज़ायन का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि सुआलकूची में आज सब की पहचान, इनकी जातियों से पहले एक ही है। यहां सभी बुनकर हैं। इसका लाभ सभी के सबलीकरण के रूप में सामने आया है। आज सुआलकूची में हैण्डलूम की ज्यादातर इकाइयां घरेलु दर्जें की हैं। व्यवसायिक हैण्डलूम की संख्या करीब 14 हजार है। सूती, सिल्क और खादी वस्त्र उत्पादन की अपनी विशालता के कारण सुआलकूची आज दुनिया के नक्शे में ‘मैनचेस्टर आॅफ ईस्ट’ के रूप में खास रुतबा रखता है। मूंगा, इरी और श्वेत पट रेशम पर खास शिल्पकारी में सबसे धनी होने के कारण, सुआलकूची को मिला दूसरा दर्जा मशहूर ‘सिल्क विलेज’ का है। नौ जनवरी, 1946 को यहां आये महात्मा गांधी ने इसे देखते हुए ही कहा था कि यहां लोग कपडे़े पर सपना उतारते है।
कहना न होगा कि यह नारियों के हुनर से हुई शुरुआत का ही परिणाम है कि सुआलकूची में हरकरघों में अब सामाजिक असमानता अथवा भेदभाव नहीं, बल्कि नारायण चन्द्र दास द्वारा रचित गीत बजता है –
”खट खट खट खटसालरे सबदे प्रिय मोर नीते….। ”
सुआलकूची, अब शिल्प से सिर्फ नारी नहीं, सर्व सबलता का एक अनुपम प्रमाण है। नारी सशक्तिकरण के पैरोकारों को सुआलकूची से सीखना चाहिए। आइये, सीखें।
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उपलेख – दो
एक प्रेरणा
भोट तुलसी
उत्तराखण्ड के भोटिया, कभी भारत-तिब्बत व्यापार के सबसे प्रमुख निर्यातक थे। भारत-चीन युद्ध के बाद 1962 में भारत-तिब्बत व्यापार पर रोक लग गई। यह रोक, भोटिया समुदाय के लिए आपदा लेकर आई। भोटिया लोगों की आजीविका एकाएक खतरे में पड़ गई। विकल्प के रूप में मर्दों ने भेड़-बकरियां पालना शुरु किया। भेड़-बकरी पालन ने रोटी तो दी, किंतु असल समृद्धि तब आई, जब भोटिया औरतों ने अपने हुनर को औजार बनाया। उन्होने ऊन को शिल्प में बदलना शुरु किया। कालीन, कंबल, थुमला, चद्दर, शाल, टोपी, जैकेट से लेकर बकरी के ऊन से बने रेनीकोट तक आज इनकी विशेषज्ञता है। अब आप चाहे सर्दियों में उत्तराकाशी के नीचे बसे गांव डुंडा बीरपुर जाइये या फिर गर्मियों में ऊपर बसे हरसिल-बगौरी में; आप शिल्प से सबलता और समृद्धि की चमक खुद अपनी आंखों से देख सकते हैं। शायद ही कोई भोटिया महिला ऐसी होगी, जिसके शरीर पर सोना-चांदी और मूंगे के न्यूनतमक 100-200 ग्राम जेवर न हों। इनके घर नगरीय सुविधाओं से लैस हैं। औरतों को मर्दों से अधिक सम्मान, अधिकार व उत्सव के मौके हासिल हैं। इनके बच्चे पढ़-लिखकर सरकारी नौकरियों में अफसर बन रहे हैं।
पिथौरागढ़ के गांव नौलरा मेें जन्मी भोटिया महिला तुलसी देवी ने लक्षमी आश्रम, कौसानी से प्रेरणा लेकर वर्ष 1952 में ही एक छोटा सा कताई-बुनाई केन्द्र खोला था। 1976 में तुलसी देवी द्वारा ऑस्ट्रेलियाई भेड़ के ऊन से बनाये अंगारा शाॅल को इतनी प्रसिद्धि मिली कि 1983 आते-आते इनका केन्द्र ‘तुलसी रानी शाॅल फैक्टरी’ में परिवर्तित हो गया। हुनर से निकली इस विकास यात्रा ने तुलसी देवी को आगे चलकर जिला परिषद, चमोली के अध्यक्ष जैसा सम्मानित पद दिलाया। कभी खुद रास्ता खोज रही तुलसी देवी को इनके हुनर ने कई अनाथ बालिकाओं का पालन-पोषण..शिक्षा-दीक्षा कर जिंदगी की नई राह दिखाने लायक समर्थ बनाया। तुलसी देवी अब किसी पहचान की मोहताज नहीं। ‘तुलसी रानी शाॅल’ के रूप में इनका अस्तित्व अब अमिट है।