वस्तुतः विज्ञान धर्म की स्थापना के लिए, सत्य की स्थापना के लिए सर्वोत्तम उपाय है, साधन है।
भारतीय विचार परंपरा में शाश्वत सत्य “असम्भूत” है और विज्ञान की खोज “सम्भूत” की पड़ताल है।
अतः जँहा तक विज्ञान खोज करता जाएगा सम्भूत की वँहा तक धर्म का कार्य आसान होता जाएगा क्योकि असम्भूत सम्भूत के इतर है, beyond है।
परंतु वर्तमान के छदम् धार्मिकों ने, बाबाओ ने जन मानस को सिर्फ आस्था के खूंटे से बाँध दिया है और न स्वयं खोज कर रहे न करने दे रहे है।
भक्ति आंदोलन ने भारतीय चेतना को, जनमानस को बहुत प्रभावित किया और उसके लाभ भी हुए किन्तु अब यह भक्ति अपनी उपादेयता पूर्ण कर चुकी है इसे नमस्कार कर विदा करने की जरूरत है और पुनः वैदिक ज्ञान पिपासुओं की तरह जीवन जीने की जरूरत है।
अगर भारत को पुनः विश्व गुरु बनना है तो संदेह को जन्म देना ही होगा, जिज्ञासा को प्रतिष्ठित करना ही होगा। बनी बनाई परम्पराए शाश्वत सत्य नहीं हो सकती है, जो अपना जीवन काल पूर्ण कर चुकी है उन परम्पराओ के श्राद्ध करने का वक्त आ गया। हाँ जो अब भी जीवंत है उन्हें जरूर जिए।
भारत की विचार परंपरा को पुनः सक्रिय करने के लिए फिर कोई शंकराचार्य चाहिए, फिर किसी रामानुज की जरुरत है, फिर मध्व चाहिए, विवेकानंद चाहिए, दयानंद चाहिए, रवीन्द्र चाहिए, राममोहन रे, बाल गंगाधर, महर्षि रमण, गाँधी, विनोबा इत्यादि चाहिये राम रहीम नहीं चाहिए, आसाराम नहीं चाहिए,गोल्डन बाबा नहीं चाहिए और भी अनेक धर्म की खाल ओढे हुए बहरूपिये नहीं चाहिए।
आप स्वयं विचारे कि हमें पुनः महर्षि पतंजलि चाहिए या पतंजलि नाम की दुकान चाहिए।
(लेखक चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं और धार्मिक विषयों पर गंभीर शोधपूर्ण लेखन करते हैं)