कृषि एवं किसानों के हितों से जुड़े विधेयकों के पारित होने के पश्चात उसके पक्ष और विपक्ष में तमाम दलीलें दी जा रही हैं| तरह-तरह के दावे किए जा रहे हैं| सरकार जहाँ इसे नई क्रांति एवं नई आज़ादी की संज्ञा दे रही है तो कुछ विपक्षी दल इसे काला क़ानून तक बता रहे हैं| ऐसे में इन दावों एवं आरोपों का सूक्ष्मता से विश्लेषण करना होगा|
भारत एक कृषि प्रधान देश है| यहाँ की 70 फ़ीसदी आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है| आत्मनिर्भर भारत का पथ कृषि की उपेक्षा करके प्रशस्त नहीं हो सकता| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार किसानों की आय को 2022 तक दुगुनी करने के लिए वचनबद्ध है| सरकार उसी वचनबद्धता की दिशा में वर्तमान विधेयकों- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण), कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक तथा आवश्यक वस्तु संशोधन अध्यादेश-2020 को एक सधा हुआ ठोस सुधारात्मक क़दम बता रही है| इसमें कोई दो राय नहीं कि किसानों ने देश को खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में अपनी ओर से कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रखी है| हम उस दौर से बहुत आगे निकल आए हैं, जब हमारा देश दोयम दर्ज़े के अमेरिकन गेहूँ पर खाद्यान्न के लिए निर्भर रहा करता था|
आज हम उस दौर में पहुँच गए हैं, जहाँ व्यवस्था के अनुकूल एवं सहयोगी रहने पर हमारे किसान अपने परिश्रम एवं पुरुषार्थ से बंजर भूमि में भी सोना उगा सकते हैं| परंतु विडंबना यह है कि किसानों के हितों को लेकर तमाम पार्टियाँ विगत सात दशकों से राजनीति करती आई हैं| उनकी राजनीति तो चमकी, पर किसानों की क़िस्मत नहीं चमकी| इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सत्तर के दशक से आज तक सेवा-क्षेत्र में कार्यरत विभिन्न अधिकारियों-कर्मचारियों की आय में जहाँ औसतन सौ से डेढ़ सौ प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहीं किसानों के द्वारा उत्पादित प्रमुख फ़सलों के मूल्यों में मात्र 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई| किसानों की क़िस्मत चमकाने के लिए सस्ती एवं लोकप्रिय राजनीति से ऊपर उठकर ठोस सुधारात्मक क़दम उठाने होंगें, चली आ रही व्यवस्था के सभी छिद्रों को हर हाल में बंद करना होगा| अढ़ातियों, बिचौलियों और मंडी समिति पर वर्षों से काबिज़ नेताओं के भंवरजाल से किसानों को मुक्त कराना होगा|
दुर्भाग्य से ऐसे हर प्रयास से पूर्व मचा हल्ला-हंगामा सुधार की हर प्रक्रिया पर विराम लगा देता है| अपने परिश्रम और पुरुषार्थ के बल पर जो संतोषी किसान परिस्थितियों एवं प्राकृतिक प्रतिकूलताओं को सहज ही झेलना जानता रहा है, वह राजनीति की बिसात पर मोहरा बन हर बार पिटता रहा है| उनके नाम पर राजनीति करने वाले तमाम नेताओं ने अपनी कई-कई पीढ़ियों का भविष्य भले सुरक्षित कर लिया हो, पर किसानों का भविष्य हर क्षण संकट में रहता है| अब देखने वाली बात यह होगी कि इन विधेयकों के पारित हो जाने के बाद किसानों की आर्थिक दशा में कैसा और कितना बदलाव आता है या स्थितियाँ ज्यों-की-त्यों बनी रहती हैं? प्रायः नीतियों के निर्धारण से अधिक महत्त्वपूर्ण उसका क्रियान्वयन होता है और सरकार की चुस्ती-फूर्त्ति सदैव मायने रखती है|
स्वस्थ लोकतंत्र में संवाद और सहमति का प्रयास सतत जारी रहना चाहिए| आलोचनाओं एवं असहमतियों को नीतियों एवं निर्णयों में स्थान मिलना चाहिए| अतः एक ओर सरकार को उदारता का परिचय देते हुए इन विधेयकों का विरोध कर रहे राजनीतिक दलों, नेताओं एवं किसानों को भरोसे में लेकर ताजा विवाद, भ्रम एवं आशंकाओं को निश्चित दूर करना चाहिए तो दूसरी ओर कृषि विधेयक के विरोध में खड़ी तमाम विपक्षी पार्टियों को देश को यह समझाना चाहिए कि यदि यह विधेयक किसानों के हित में नहीं है तो पूर्व में वे क्यों इसका समर्थन कर रहे थे? क्यों हुड्डा समिति ने ऐसी ही सिफ़ारिशों की संस्तुति की थी? क्यों काँग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनाव में कृषि उत्पाद बाज़ार समिति अधिनियम (एपीएमसी) को ख़त्म करने की घोषणा की थी? क्यों उसने तब कहा था कि वह कृषि-उत्पादों की खरीद-बिक्री को हर प्रकार के प्रतिबंधों से मुक्त करेगी? क्यों इसी वर्ष जून में अध्यादेश के रूप में इस विधेयक को लाए जाने पर शिरोमणि अकाली दल ने इसका समर्थन किया था?
रातों-रात ऐसा क्या हुआ कि इसके विरोध में हरसिमरत कौर बादल को मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देना पड़ा? क्या महज़ कुछ लाख आढ़तियों-बिचौलियों-कमीशनखोरों के हितों के लिए करोड़ों किसानों के हितों को दांव पर लगाया जाना उचित होगा? क्या यह सत्य नहीं कि मंडी समितियों पर इनके वर्चस्व के कारण ही किसान औने-पौने पर अपना उत्पाद बेचने को मजबूर होते रहे हैं? क्या यह सत्य नहीं कि नए विधेयक के पश्चात किसानों को अपना उत्पाद बेचने के लिए एक बड़ा बाज़ार उपलब्ध होगा? यहाँ तक कि वे अपना उत्पाद अंतरर्राज्यीय बाज़ारों में भी बेचने के लिए स्वतंत्र होंगें| क्या इसमें भी कोई दो राय होगी कि उसे अपना उत्पाद सर्वश्रेष्ठ क़ीमत पर जहाँ उसकी मर्ज़ी हो वहाँ बेचने की छूट मिलेगी या मिलनी चाहिए? किसे नहीं मालूम कि अलग-अलग शहरों में स्थित मंडी समितियों के कुछ 50-100 एजेंट मिलकर किसानों के उत्पादों के मूल्यों का निर्धारण करते आए हैं और बेचारा किसान उन्हें उनके द्वारा निर्धारित मूल्यों पर अपनी पैदावार बेचने को विवश एवं अभिशापित होता रहा है? अभी तक मंडी में फसल बेचने पर किसानों को 8.5 प्रतिशत मंडी शुल्क लगता था, पर व्यापारियों को सीधे फ़सल बेचने की स्थिति में किसान यह कर देने के लिए बाध्य नहीं होगा|
इतना ही नहीं इन विधेयकों के पारित हो जाने के पश्चात अब खाद्य उत्पाद विक्रय एवं वितरण से जुड़ी तमाम कंपनियाँ सीधे गाँवों एव खेतों से खाद्य-उत्पादों का क्रय कर सकेंगीं और इससे परिवहन पर लगने वाला किसानों का अतिरिक्त धन एवं समय बचेगा| वे उत्पाद को बाज़ार तक पहुँचाने के अतिरिक्त दबाव से मुक्त रहेगें| बल्कि नई व्यवस्था में बाज़ार उन तक पहुँचेगा| इसके अलावा इन विधेयकों से जैविक कृषि को भी बढ़ावा मिल सकता है| क्योंकि अब कृषक अपने जैविक कृषि-उत्पादों का यथोचित मूल्य-निर्धारण कर सकने की स्थिति में होंगें| यह क़ानून किसानों को इलेक्ट्रॉनिक व्यापार की भी अनुमति देता है| यह भी स्वागत योग्य क़दम है कि इन विधेयकों के अंतर्गत किसान एवं क्रेता के बीच पूर्व अनुबंधन पर आधारित कृषि को भी बढ़ावा देने की बात कही गई है|
मसलन किसान अपने खेत को एक निश्चित अवधि तक किराए पर देने को स्वतंत्र है| इससे लागत और मुनाफ़े के बीच एक बेहतर आनुपातिक संतुलन कायम किया जा सकता है| ध्यातव्य है कि आज किसानों को कई बार लागत से भी कम दरों पर अपना उत्पाद बेचने को बाध्य होना पड़ता है| यह प्रशंसनीय है कि इन विधेयकों में किसानों को गुणवत्ता वाले बीजों की आपूर्त्ति, तकनीकी सहायता, फसल-बीमा, ऋण-सुविधा आदि उपलब्ध कराने जाने के प्रावधान डाले गए हैं| इन विधेयकों से कृषि क्षेत्र में निजी निवेश की संभावना को भी बल मिलेगा| जो किसान पूँजी के अभाव में समय पर जुताई-बुआई भी नहीं कर पाते थे, उन्हें शायद अब पूँजी उपलब्ध कराने वाले भागीदार मिल जाएँ| ये विधेयक किसानों को स्वतंत्र हितधारकों के रूप में अपना हानि-लाभ तय करने का अधिकार प्रदान करते हैं| यह निश्चित ही एक स्वागत योग्य क़दम है|
यह सुखद है कि कृषिमंत्री एवं प्रधानमंत्री ने बार-बार न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुविधा बनाए रखने की घोषणा की है| यह कोरा आश्वासन इसलिए नहीं लगता क्योंकि विगत छह वर्षों से इस सरकार ने एमएसपी में लगातार वृद्धि की है| सरकार ने किसानों को दिए जाने वाले अनुदानों में भी अब तक कोई कटौती नहीं की है| इसलिए सरकार पर संदेह करने का कोई ठोस कारण दिखाई नहीं देता| हाँ, यह अवश्य है कि यदि इन विधेयकों में न्यूनतम समर्थन मूल्य का लिखित प्रावधान होता तो और बेहतर होता| इसके अलावा सरकार को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को मानते हुए कुल उत्पादन लागत में कृषि-भूमि का किराया भी जोड़ना चाहिए|
अभी तक सरकार उत्पादन लागत में केवल बीज, खाद, सिंचाई और परिवार के श्रम के मूल्य को जोड़कर, उसमें अपनी ओर से 50 प्रतिशत की अतिरिक्त धनराशि मिलाकर समर्थन मूल्य का निर्धारण करती आई है| कुल मिलाकर घोषणा के स्तर पर ये विधेयक निःसंदेह आश्वस्तकारी हैं, उम्मीद है धरातल पर भी ये परिणामदायी साबित होंगें| सरकार को हर हाल में छोटे-छोटे किसानों का हित सुनिश्चित करना होगा| उन्हें अपना उत्पाद बेचने के लिए उनके समीपवर्त्ती कस्बों-शहरों में भी सुगम-सुलभ विकल्प उपलब्ध कराने होंगें और सहूलियतें प्रदान करनी होंगीं| इसके अलावा सरकार को मंडी-समितियों को भी संरक्षण प्रदान करना होगा| उसे एक झटके में ख़त्म करना पहले से मौजूद बेरोज़गारी की समस्या में और वृद्धि करेगा| उससे बड़ी संख्या में जुड़े लोगों के भरण-पोषण एवं रोज़गार का उत्तरदायित्व भी सरकार का ही बनता है| कृषि-क्षेत्र में व्यापक सुधार समय की माँग है| इसके बिना कृषि और कृषकों की दशा उन्नत नहीं बनाई जा सकती| कृषकों की भागीदारी एवं आय को बढ़ाए बिना सकल घरेलू उत्पाद के लक्ष्य को कभी हासिल नहीं किया जा सकता| किसान आत्मनिर्भर होंगें तभी भारत आत्मनिर्भर होगा|
संपर्क
प्रणय कुमार
9588225950