महोदय
मुझे स्मरण हो रहा है सन् 1993 में जब मै ब्रिटेन की यात्रा पर था तो वहां ब्रिस्टल में कुछ बुद्धिजीवी वर्ग से भाषा व धर्म पर चर्चा हो रही थी तो एक प्रोफ़ेसर ने बड़ा स्पष्ट कहा कि आप लोग (भारतवासी) अपनी मातृभाषा से अलग अंग्रेजी में कैसे विद्या प्राप्त करते है यह कैसे सम्भव होता है ? उनको बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि 1947 में स्वतंत्र देश बनने के बाद भी हम लोग अभी भी गुलाम मानसिकता से बाहर क्यों नहीं आये ? एक अन्य वरिष्ठ सज्जन ने अपने मन की दुविधा को बताते हुए यह भी पूछा था कि आप हिन्दू व मुसलमान एक साथ कैसे रह सकते हो ? उनका कहना था की एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती ? वास्तव में दोनों ही विचारणीय बिन्दुओ ने हमें आत्मग्लानि का एहसास कराया था।
इसमें कोई संदेह ही नहीं है कि विभिन्न संस्कृतियों व धर्मो के समाजो का एक साथ रहना अत्यंत कष्टकारी है, यह आज चल रहे वैश्विक जिहाद से भी प्रमाणित हो रहा है। क्योकि अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने की भ्रमित विचारधारा ही सभ्यताओ के संघर्ष की उपज है।
वर्मा (म्यांमार) के एक बौद्ध गुरु: भंते विरथू ने लगभग 2 वर्ष पूर्व कहा था कि "आप चाहे जितने भी भले और सहनशील क्यों न हो , लेकिन आप एक पागल कुत्ते के साथ सो नहीं सकते"।
साथ ही अपनी मातृभाषा में पढ़ना व लिखना सरल व सर्वश्रेष्ठ माध्यम है । विश्व के अनेक देशो में अपने गौरव व स्वाभिमान को बनाये रखने व अपनी उन्नति के लिए वे सब अपनी अपनी ( mother language) मातृ भाषा में ही समस्त व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाते आ रहे है।
आज मानवीय मूल्यों के साथ साथ उनकी भाषाऐ व संस्कृतियों की रक्षार्थ समाज में एक सामूहिक चेतना जगाने की आवश्यकता है।विश्व के राजनेताओ, बुद्धिजीवियो व मानवाधिकारवादियों को चाहिए कि सब एकजुट होकर विभिन्न आस्थाओ में विश्वास करने वाले समाज को उनके मौलिक अधिकारो से वंचित होने की दशा में प्रयास करना चाहिए।
भवदीय
विनोद कुमार सर्वोदय
गाज़ियाबाद (UP)