पूरे विश्व को अहिंसा,शांति तथा सद्भाव की शिक्षा देने वाला हमारा देश कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाओं का शिकार हो जाता है या सुनियोजित ढंग से ऐसे रास्ते पर ढकेल दिया जाता है जिससे न केवल देश का सद्भावपूर्ण वातावरण कुछ समय के लिए तार-तार होता दिखाई देने लगता है बल्कि इसकी धमक दूसरे देशों तक भी जा पहुंचती है। और यह स्थिति हमारे देश की प्रगति व एकता के लिए तो बाधक है ही साथ-साथ पूरे विश्व में देश की बदनामी का कारण भी बनती है। लोकतंत्र पर भीड़तंत्र के हावी होने की छोटी-छोटी घटनाओं के समाचार तो हमें आए दिन कहीं न कहीं से मिलते ही रहते हैं।
कभी किसी दुष्कर्म के आरोपी को भीड़ द्वारा पकड़ कर पीट-पीट कर बेरहमी से मार डालने का समाचार सुनाई देता है तो कभी कोई गरीब महिला चुड़ैल होने के आरोप में बाहुबलियों द्वारा पीट-पीट कर मार डाली जाती है। हद तो यह है कि स्वयं को शिक्षित कहने वाली भीड़ पिछले दिनों बैंगलोर में एक विदेशी महिला को मारते-पीटते व उसके कपड़े फाड़ते देखी गई। ऐसी घटनाएं इस देश में अक्सर सुनने को मिलती हैं। परंतु हकीकत में इस तरह के हादसे या सांप्रदायिकता अथवा जातिवाद की आग में जलती हुई भीड़ द्वारा सार्वजनिक रूप से हिंसा का तांडव किया जाना हमारे वास्तविक भारतीय मिज़ाज के बिल्कुल विरुद्ध है।
इन छोटी परंतु दर्दनाक घटनाओं के अतिरिक्त हमारे देश में कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाएं भी होती रहती हैं जो अचानक नहीं होतीं बल्कि सुनियोजित तरीके से उन्हें अंजाम दिया जाता है। इनमें बाकायदा कहीं नेताओं की तो कहीं प्रशासन के लोगों की मिलीभगत होती है। आमतौर पर चतुर बुद्धि शातिर नेताओं द्वारा ऐसी सुनियोजित घटनाओं में भी भारतीय समाज की ’धर्मÓ रूपी दुखती रग को ही दबाया जाता है। चाहे वह 1984 में देश में कई जगहों पर हुए सिख विरोधी दंगे हों,1990 व 92 की अयोध्या की घटना हो, गोधरा की घटना या फिर उसके बाद 2002 में गुजरात में हुई व्यापक सांप्रदायिक हिंसा हो, 1993 के मुंबई दंगे हों, असम व उड़ीसा में हुई सांप्रदायिक हिंसा हो या इसके पूर्व देश में हुई ऐसी और कई सांप्रदायिक घटनाएं, इन सभी घटनाओं का नुक़सान जहां देश के आम गरीब व मध्यम श्रेणी के लोगों को उठाना पड़ता है वहीं ऐसी हिंसा में पक्ष विशेष की पैरवी करने वाले नेतओं को इन हादसों का राजनैतिक लाभ प्राप्त होता देखा गया है।
दंगों में मारे गए लोगों की लाशों पर अपनी राजनीति की रोटियां सेंक कर कोई छुटभैय्या नेता विधानसभा का टिकट पाकर एमएलए या एमपी बन जाता है तथा खुद को सूरमा समझने लगता है। कोई अल्पसंख्यकों का हिमायती बनकर पूरे देश में स्वयं को अल्पसंख्यकों का सबसे बड़ा मसीहा बताने लगता है और मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री तो बन ही जाता है साथ-साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर भी उसकी नज़रें टिकी रहती हैं। तो कोई मुख्यमंत्री तो क्या प्रधानमंत्री तक की कुर्सी तक पहुंचने में भी सफल हो जाता है। दुर्भाग्य तो यह है कि अपनी इस प्रकार की तथाकथित राजनैतिक सफलता को ही यह सत्तालोभी राजनीतिज्ञ ‘भीड़तंत्रÓ का सही प्रयोग किया जाना समझते हैं।
कुछ घटनाएं ऐसी भी होती हैं जिनसे देश को बचाए जाने की बेहद सख्त ज़रूरत है। और यदि इन घटनाओं को बारीकी से देखा जाए तो यह सब किसी प्रतिक्रिया अथवा आवेश का परिणाम न होकर महज़ एक साजि़श नज़र आती हैं। मिसाल के तौर पर 2012 में असम में अल्पसंख्यक विरोधी दंगे हुए। राज्य सरकार इसे नियंत्रित कर पाने में असफल रही। सांप्रदायिक शक्तियों ने जमकर लूटपाट,आगजऩी व हत्याएं की। इसी दौर में बर्मा में भी रोहंगिया मुसलमानों पर वहां के बौद्ध समाज द्वारा ज़ुल्म ढाया जा रहा था। इन घटनाओं से भारतीय मुसलमानों में बेचैनी बढ़ी और उन्होंने मुंबई के आज़ाद मैदान पर 11 अगस्त 2012 में एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया।
यह प्रदर्शन हिंसा में बदल गया। और इसने दंगों की शक्ल अख़्तियार कर ली। परिणामस्वरूप 2 बेक़ुसूर लोगों की मौत हो गई तथा 54 लोग बुरी तरह ज़ख्मी हुए जिनमें 45 पुलिससकर्मी शामिल थे। इस घटना का एक सबसे दु:खद व आपत्तिजनक चेहराु:खद व आपत्तिजनक चेहरा यह भी था कि इस हिंसक प्रदर्शन में शामिल कुछ शरारती युवकों द्वारा 1857 के शहीदों की स्मृति में बनाई गई अमर जवान ज्योति को क्षतिग्रस्त कर दिया। हमारे सम्मानित स्वतंत्रता सेनानियों की शान में की गई इतनी बड़ी गुस्ताखी को न तो किसी क्रिया की प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप स्वीकार किया जा सकता है न ही इसे किसी और तरीके से जायज़ ठहराया जा सकता है। यह बेहद घिनौना,आपत्तिजनक तथा निंदनीय अपराध था जो एक उग्र व हिंसक भीड़ द्वारा किया गया। इस घटना की जितनी भी निंदा की जाए वह कम है।
भीड़तंत्र के आक्रमक व बेलगाम हो जाने के ऐसे ही कुछ समाचार पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में मालदा के कालियाचक क्षेत्र से तथा बिहार के पूर्णिया से प्राप्त हुए हैं। उत्तर प्रदेश के गुमनाम से एक व्यक्ति द्वारा जो स्वयं को हिंदू महासभा का नेता कहता था,ने पैग़ंबर-ए-रसूल हज़रत मोहम्मद के बारे में सार्वजनिक रूप से कुछ अपशब्द कहे। हिंदू महासभा के प्रमुख द्वारा अपने संगठन को उस व्यक्ति के आपत्तिजनक बयान से भी अलग किया गया तथा उसके महासभा का सदस्य होने से भी इंकार किया गया। उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले जिस व्यक्ति ने हज़रत मोहम्मद साहब की शान में गुस्ताखी की थी उसे देश व प्रदेश तो क्या उसके अपने शहर व कस्बे के लोग भी अच्छी तरह से नहीं जानते थे।
देश के कई हिस्सों में भारतीय मुसलमानों ने उसका नाम ले-ले कर इतने ज़बरदस्त प्रदर्शन किए कि वह अपने-आप में एक हीरो बन गया। सरकार द्वारा उसकी गिरफ्तारी की गई तथा उसे राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत जेल भी भेज दिया गया। परंतु इस क़ानूनी कार्रवाई के बाद भी मुसलमानों का विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शन करने का सिलसिला जारी रहा। जहां तक शांतिपूर्ण व अहिंसक प्रदर्शन आयोजित करने की बात है तो निश्चित रूप से यह प्रत्येक भारतवासी के मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा है। परंतु इन्हीं प्रदर्शनों के बहाने तथा हज़ारों व लाखों की भीड़ अपने सामने खड़ी देखकर उनकी भावनाओं को इस क़द्र भडक़ाना कि यदि भीड़तंत्र लोकतंत्र का गला घोंटने लग जाए और हिंसा की शक्ल ले ले इसे तो कतई जायज़ नहीं ठहराया जा सकता?
परंतु मालदा से लेकर पूर्णिया तक जो हिंसक प्रदर्शन हुए उनमें दुर्भाग्यवश हिंसा का ज़बरदस्त तांडव देखने को मिला। खबरों के मुताबिक मालदा के कालियाचक में लगभग दस घंटे तक लगातार हिंसा का दौर चला। थाने में उग्र भीड़ ने आग लगा दी। लूटपाट व आगज़नी का साम्राज्य नज़र आने लगा। कई गाडिय़ां,मकान व दुकानें आग के हवाले कर दी गईं। पुलिसबल व हिंसक भीड़ आमने-सामने होकर एक-दूसरे पर आक्रमण करते देखे गए। कुछ ऐसी ही घटना बिहार के पूर्णिया जि़ले में भी घटी। वहां भी इसी विषय को लेकर विरोध प्रदर्शन हुआ जो देखते ही देखते हिंसक हो गया। यहां भी पुलिस स्टेशन को निशाना बनाया गया। और कई गाडिय़ों में आग लगा दी गई।
क्या इस प्रकार के हिंसक प्रदर्शन जो दूसरे धर्म या समुदाय के लोगों में भय पैदा करें या यह विरोध प्रदर्शन जो विरोध प्रदर्शन तो कम आतंक का प्रदर्शन अधिक दिखाई दें उन्हें किसी क़ीमत पर उचित ठहराया जा सकता है? ऐसे कई प्रदर्शनों में उत्तेजित वक्ताओं ने अपने भाषणों में यह भी कहा कि जो व्यक्ति हज़रत मोहम्मद साहब का अपमान करने वाले अमुक व्यक्ति का सिर कलम करके लाएगा उसे इतनी धनराशी पुरस्कार स्वरूप दी जाएगी। यह घोषणा क्या इस्लामी शरिया के अनुरूप है या भारतीय नियम व क़ानून इस प्रकार की घोषणा की इजाज़त देते हैं? ऐसी घोषणाएं तथा ऐसे हिंसक प्रदर्शन क्या इस्लाम की छवि को बेहतर बनाने का काम करते हैं या इनसे इस्लाम की बदनामी होती है, इस विषय पर धर्म के ठेकेदारों का सोचना बहुत ज़रूरी है।
किसी एक व्यक्ति द्वारा हज़रत मोहम्मद की शान में गुस्ताखी करने से उनकी शान या इज़्ज़त में कोई कमी नहीं आ सकती। बजाए इसके गुस्ताखी करने वाले शख्स पर स्वयं समाज लानतें भेजता है तथा उसकी निंदा करता है। उत्तेजित मुसलमानों को सिर्फ यह सोच लेना चाहिए कि यदि स्वयं हज़रत मोहम्मद साहब के सामने किसी ने ऐसी गुस्ताखी की होती तो क्या वे उसका सर क़लम कर देते या अपने अनुयाईयों को इस प्रकार के हिंसक प्रदर्शन करने और आगज़नी व लूटपाट करने की ऐसी छूट देते? हमारे प्रदर्शनकारी मुसलमान भाईयों को स्वयं ही जवाब मिल जाएगा।
आज के दौर में जबकि इस्लाम के नाम पर विभिन्न संगठन आतंक व हिंसा का माहौल बनाने में लगे हैं ऐसे में कम से कम भारतीय मुसलमानों को चाहिए कि वे अपनी कारगुज़ारियों से यह साबित करने की कोशिश करें कि दुनिया का मुसलमान चाहे जैसा भी हो कम से कम भारतीय मुसलमान का मिज़ाज हिंसक तथा किसी धर्म व संप्रदाय का विरोधी नहीं है। भारतीय मुसलमानों को राजनैतिक शक्तियों के हाथों की कठपुतली बनने से भी स्वयं को बचाना चाहिए। अपने देश की छवि एक विश्व प्रसिद्ध धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में ही रहने दी जाए तथा इसे भीड़तंत्र का शिकार होने से बचाया जाए यही हम सब भारतवासियों की कोशिश होनी चाहिए।
Tanveer Jafri ( columnist),
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