कोई भी नहीं चाहता कि देश में दंगे हो क्योकि दंगों का अंत सभी को मालूम है केवल ही केवल बर्बादी |दिल्ली में जो हिंसा और दंगे गत दिनों हुए उनके कारण समूचे भारत का मन इन दिनों व्यथित है, डरा हुआ है और चिंतित है। सांप्रदायिकता के राक्षस ने राष्ट्रीय एकता एवं साम्प्रदायिक सौहार्द को पलीता लगाया है। दिल्ली दंगों का यथार्थ डरावना एवं भयावह है। कई लोग मारे गए हैं। दो सौ से अधिक घायल हैं। व्यापक स्तर पर जन-धन की हानि हुई है, पुलिसकर्मी भी हिंसा के शिकार हुए हैं। सरकारी प्रयासों से स्थिति सामान्य हुई है। इसको लेकर राजनीतिक लाभ उठाने की निंदनीय कोशिशें भी हो रही हैं। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से अकारण त्यागपत्र मांगा गया है। सांप्रदायिक आक्रामकता वस्तुतः कानून व्यवस्था की ही समस्या नहीं है, यह राष्ट्रीय एकता को चुनौती देने वाले अलगाववादी समूहों की साजिश है। देश में पिछले तीन-चार माह से सुनियोजित तरीके से सांप्रदायिकता का जहर फैलाया जा रहा है। ताजा हिंसा, आगजनी एवं तोड़फोड़ इसी सुनियोजित सांप्रदायिक आक्रामकता का नतीजा है।
दुर्भाग्यपूर्ण तो यह भी रहा कि यह उन्मादी घटनाक्रम उन दो दिनों में सबसे ज्यादा हुआ जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत की राजकीय यात्रा पर थे। इस पर भी जम कर राजनीति हो चुकी है कि क्या खूनी तांडव का समय चुनने के पीछे कोई साजिश थी ? किन्तु अब बात इस हद से बाहर जाती हुई दिखाई पड़ रही है क्योंकि इंडोनेशिया की सरकार ने वहां स्थित भारतीय राजदूत को जकार्ता बुला कर दिल्ली की साम्प्रदायिक हिंसा पर चिन्ता प्रकट की है। मलेशिया के प्रधानमन्त्री महाथिर मोहम्मद भी नागरिकता कानून को लेकर बहुत तीखी टिप्पणी कर चुके हैं जिसे लेकर भारत ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी और इसे भारत के अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप बताया था। सच भी है कि भारत साम्प्रदायिक सौहार्द को खंडित करने वाली शक्तियों को मिल रहे मुस्लिम राष्ट्रों के संरक्षण को कैसे औचित्यपूर्ण माने ? भारत की बढ़ती ताकत एवं राष्ट्रीय एकता को कमजोर करने की यह एक तरह की साजिश है। पहले भी इस तरह की षडयंत्र एवं साजिशों से भारत को कमजोर करने की कोशिशें होती रही हैं। भारत के राजनीतिक दलों की भी विडम्बना रही है कि वे अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाने के लिये साम्प्रदायिकता को हवा देते हैं। क्योंकि सांप्रदायिक अलगाववाद का वोट बैंक है। वे धौंस देते हैं कि हमारी संख्या 20-25 करोड़ है। हम एक अरब आबादी पर भारी हैं। इस तरह की धौंस कब तक भारत की एकता एवं अखंडता पर भारी पड़ती रहेगी ?
भारत में सांप्रदायिक अलगाव की राजनीति का इतिहास पुराना और भयावह है। आक्रामक सांप्रदायिकता के चलते स्वाधीनता के पूर्व भी तमाम दंगे हुए थे। 1946 में बाकायदा कलकत्ता में सीधी कार्रवाई की घोषणा की गई थी। उसमें तब लगभग चार हजार लोग मारे गए थे। 10-11 हजार लोग घायल हुए थे। संविधान सभा को लेकर भी दंगे हुए थे। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ढाई हजार से ज्यादा सिखों की हत्या हुई थी। मुंबई का 1992-93 का दंगा भी है। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ और मुजफ्फरनगर दंगों के लिए अक्सर चर्चा में रहते हैं। 2012 के असम दंगे में 80 लोग मारे गए थे। भागलपुर दंगों की याद डरावनी एवं भयावह है। इसके अलावा भी सांप्रदायिक आक्रामकता ने देश के अनेक हिस्सों में व्यापक जनधन की हानि की है। प्रश्न है कि सांप्रदायिक अलगाववाद कब तक भारत के अस्तित्व एवं अस्मिता के लिये खतरा बना रहेगा ? सांप्रदायिक दंगों के पीछे भड़काऊ ताकतें एवं संकीर्ण मानसिकताएं होती हैं। भारतीय समाज में सौहार्द और सद्भाव को बढ़ाने वाली शक्तियां भी अपना काम करती हैं, पर उनका प्रभाव सांप्रदायिक उन्माद पर प्रभाव नहीं पड़ता। तोड़ने वाली सांप्रदायिक नफरत एवं द्वेष की मानसिकता की समाप्ति व्यापक जन अभियान से ही संभव है, लेकिन इसके लिये देश के राजनीतिक दलों को भी ईमानदार प्रयास करने होंगे।
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