हाल ही में रिलीज हुई ‘द कश्मीर फाइलस’ जिस शिद्दत और निष्पक्षता से कश्मीरी पंडितों के निर्वासन की त्रासदी को रूपायित करती है,वह इतिहास बनता जा रहा है।आप सत्य को छिपा सकते हैं मगर दबा नहीं सकते,यह इन दर्दभरी फाइलस का संदेश है।कई राज्यों ने इस फिल्म को करमुक्त कर दिया है। और राज्य भी करेंगे,ऐसी आशा है।
कश्मीरी पंडितों को अपने वतन से बेघर हुए अब लगभग बत्तीस वर्ष हो चले हैं। 32 वर्ष ! यानी तीन दशक से ऊपर!! बच्चे जवान हो गए,जवान बुजुर्ग और बुजुर्गवार या तो हैं या फिर ‘त्राहि-त्राहि’ करते देवलोक सिधार गए।कैसी दुःखद/त्रासद स्थिति है कि नयी पीढ़ी के किशोरों-युवाओं को यह तक नहीं मालूम कि उनका जन्म कहाँ हुआ था?उनकी मातृभूमि कौनसी है?बाप-दादाओं से उन्हों ने जरूर सुना है कि मूलतः वे कश्मीरी हैं, मगर 1990 में वे बेघर हुए थे।
सरकारें आईं और गईं मगर किसी भी सरकार ने इनको वापस घाटी में बसाने की मन से कोशिश नहीं की।आश्वासन अथवा कार्ययोजनाएं जरूर घोषित की गईं। सरकारें जांच-आयोग तक गठित नहीं कर पाईं ताकि यह बात सामने आसके कि इस देशप्रेमी समुदाय पर जो अनाचार हुए,जो नृशंस हत्याएं हुईं या फिर जो जघन्य अपराध पंडितों पर किए गये, उनके जिम्मेदार कौन हैं?
‘द कश्मीर फाइलस’ के प्रदर्शन से अब यह आशा जगने लगी है कि सरकार शीघ्र एक जांच आयोग बिठायेगी ताकि मानवता को तारतार करने वाले अपराधियों पर दंड का शिकंजा कसने में अब ज्यादा देर न लगे।
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)
पूर्व सदस्य,हिंदी सलाहकार समिति,विधि एवं न्याय मंत्रालय,भारत सरकार।
पूर्व अध्येता,भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,राष्ट्रपति निवास,शिमला तथा पूर्व वरिष्ठ अध्येता (हिंदी) संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार।
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