ये नाव जर्जर ही सही, तूफानों से टकराती तो है
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
स्व. दुष्यंत कुमार की इन दो पंक्तियों को सार्थक किया है साीबीआई के दो जांबाज अधिकारियों सतीश डागर और मुलिंजा नारायणन ने। जिनकी ताकत के आगे सरकारें और प्रभावशाली लोग भी सिर झुकाते थे, उस डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम की हकीकत सामने लाने और रेप के मामले में उसे सजा दिलाने में सीबीआई के दो जांबाज अफसरों ने अहम भूमिका निभाई। उनके नाम हैं सतीश डागर और तत्कालीन डीआईजी मुलिंजा नारायणन। इन सीबीआई अफसरों ने राम रहीम के रसूख को खूंटी पर टांगकर उनका पूरा का पूरा किला ही ढहा दिया। इन दोनों अधिकारियों पर कई तरह के दबाव झेले। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने अपनी जान तक को दांव पर लगा दिया और झुकने से इनकार करते हुए, केस को आखिरकार अंजाम तक पहुंचाया।
15 साल पहले डेरे में साध्वियों के साथ हुए यौन उत्पीड़न को पत्रकार रामचंदर छत्रपति ने उजागर किया था। ‘पूरा सच’ नाम का अखबार निकालने वाले छत्रपति ने डेरे का पूरा सच और एक गुमनाम पत्र अपने अखबार में छापा था, जिसमें साध्वियों के साथ बलात्कार की बात लिखी थी। पत्र के प्रकाशन के कुछ ही दिन के भीतर छत्रपति पर हमला हुआ और उनकी मौत हो गई। साध्वियों के भाई रंजीत की भी हत्या कर दी गई। जाहिर है कि इस केस की जांच में शामिल होने का सीधा मतलब था, अपनी जान को जोखिम में डालना। डर और दहशत के माहौल के बीच आरोप लगाने वाली साध्वियों को बयान दर्ज कराने के लिए सामने लाने सबसे बड़ी चुनौती थी। इस चुनौती को सीबीआई अफसर सतीश डागर ने अपने हाथ में लिया और पीड़ित साध्वियों को खोज निकाला।
रामचंदर छत्रपति के बेटे अंशुल ने सतीश डागर के साहस की तारीफ की है। अंशुल के मुताबिक सतीश डागर पर अधिकारियों और नेताओं का दबाव था। डेरा समर्थकों की ओर से उन्हें धमकी भी मिल रही थी, लेकिन डागर ने कमाल का साहस दिखाया और केस को अंजाम तक पहुंचाने में सफल रहे। उन्होंने बताया कि अगर सतीश डागर नहीं होते तो उन्हें कभी इंसाफ नहीं मिल पाता और यह मामला कभी अंजाम तक न पहुंचता। सतीश ने ही पीड़ित साध्वी को खोज निकाला और उसे बयान दर्ज कराने के लिए तैयार किया। इसके बाद भी लड़कियों को कई तरह के दबाव का सामना करना पड़ा।
2007 में सीबीआई के तत्कालीन डीआईजी मुलिंजा नारायणन को राम रहीम का केस बंद करने के लिए सौंपा गया था। मुलिंजा ने बताया कि जिस दिन उन्हें केस सौंपा गया था, उसी दिन उनके वरिष्ठ अधिकारी उनके कमरे में आए और साफ कहा कि यह केस तुम्हें जांच करने के लिए नहीं, बंद करने के लिए सौंपा गया है। मुलिंजा पर केस को बंद करने के लिए काफी दबाव था, लेकिन उन्होंने बिना किसी डर के मामले की जांच की और इस केस को आखिरी अंजाम तक पहुंचाया।
मुलिंजा ने बताया कि उन्हें यह केस अदालत ने सौंपा था इसलिए झुकने का कोई सवाल ही था। सीबीआई ने इस मामले में 2002 में एफआईआर दर्ज की थी। मुलिंजा ने कहा, ‘पांच साल तक मामले में कुछ नहीं हुआ तो कोर्ट ने केस ऐसे अधिकारी को सौंपने को कहा, जो किसी अफसर या नेता के दबाव में न आए। जब केस मेरे पास आया, तो मैंने अपने अधिकारियों से कह दिया कि मैं उनकी बात नहीं मानूंगा और केस की तह तक जाऊंगा। बड़े नेताओं और हरियाणा के सांसदों तक ने मुझे फोन कर केस बंद करने के लिए कहा। लेकिन मैं नहीं झुका।’
मुलिंजा ने कहा, ‘जब बाबा को पूछताछ के लिए बुलाया जाता था तो वह बाबा बनने की कोशिश करत था, लेकिन मुझे लगता था कि वह एक डरा हुआ आदमी है। मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य तब हुआ, जब मेरे जूनियर अफसरों ने भी केस बंद करने की सलाह दी।’
मुलिंजा को डेरा समर्थकों की ओर से भी लगातार धमकी मिल रही थी। इसके अलावा लेटर के आधार पर मामले की जांच करना इतना आसान नहीं था। लेटर की जांच के दौरान पता चला कि यह पंजाब के होशियारपुर से आया है, लेकिन इसे किसने भेजा है, यह पता नहीं चल रहा था। नारायणन ने बताया, ‘मुझे पीड़िता के परिवार के लोगों को मैजिस्ट्रेट के सामने बयान देने के लिए समझाना पड़ा, क्योंकि पीड़िता और उसके परिवार के लोगों को डेरा की ओर से धमकी मिल रही थी।’